चिन्तनशील मनुष्य का अपने साथ ईमानदार होना चाहिए तथा सब कुछ देखते और सुनते हुए भी उसे वह स्वीकार नहीं करना चाहिए जो समझ में न आता हो। मन की ईमानदारी और सादगी मनुष्य को सत्य एंव शान्ति के द्वार पर खड़ा कर देती है। सत्य का अन्वेषक किसी आत को केवल इस कारण स्वीकार नहीं कर लेता कि वह परम्परागत है अथवा उसने कहीं पढ़ा है या सुना है। वह प्रत्येक बात की सत्यता को अपने विचार और अनुभव की कसौटी पर परखता है। किन्तु वह दंभपूर्वक दूसरों को मूर्ख सिद्ध करने में शक्ति का क्षय भी नहीं करता है। आत्म-अवलोकन या आत्म-निरीक्षण मनुष्य को सत्य की गहराइयों तक ले जाता है। आत्त्म निरीक्षण के क्षणों में मानसिक अथवा शारीरिक तनाव होना केवल यह संकेत करता है कि निरीक्षणों में कहीं त्रुटि है तथा तनाव का अभाव स्पष्ट करता है कि आत्म-निरीक्षण में प्रगति हो रही है।
मनुष्य ज्यों-ज्यों सत्यान्वेक्षण के मार्ग पर आगे बढता है, उसकी चेतना में स्वत: स्वस्थ परिवर्तन द्वारा अदृश्य रुपान्तरण होने लगता है तथा मनुष्य का पुराना स्परुप मिट जाता है। किसी तथ्य को ठीक प्राकर से समझ लेना ही स्वस्थ परिवर्तन की प्रक्रिया का स्वत: प्रारम्भ है। मिथ्या विश्वासो के जंजाल से मुक्त होने पर, मन की परम शान्त अवस्था में आन्तरिक चेतना का विकास एंव विस्तार होता है तथा व्यक्ति को विश्व के समस्त जीवन के साथ अपनी एकात्मता के शान्तिदायक सम्बन्ध को बोध होने लगता है। यही विश्व-चेतना का अनुभव है।
जीवन इस सृष्टि का महानतम रहस्य है। कोई ग्रन्थ अथवा गुरु जीवन के पूर्ण सत्य का कथन करेन में समर्थ नहीं है। मनुष्य जीवन के यथार्थ से पलायन करके शान्तिमयी चेतना को कदापि प्राप्त नहीं कर सकता तथा दायित्वों के प्रति नहीं कर सकमा तथा दायित्वों के प्रति सजग रहकर जीवन की समस्याओं के साथ जूझने पर ही वह एक अन्त:स्थ प्रशान्त चेतना का संदर्शन कर सकता है।
मनुष्य दूसरों से प्ररेणा ले सकता है किन्तु किसीका अन्धनुकरण करने से उसकी आंखे कभी नहीं खुल सकतीं। अपना विचार और अनुभव ही मनुष्य में सच्चे आत्मविश्वास को जगा सकता है।
मन को अशांति देनेवाले समस्त जंजाल से मुक्त होने के लिए मनुष्य का अपने भूतकाल के प्रभाव से मुक्त होना एक अपरिहार्य आवश्यकता है। आत्मविश्लेषण की प्रक्रिया से अपने समस्त भूतकाल एंव समग्र व्यक्तित्व को पूर्णत: समझने पर मनुष्य अपने शोक, भ्रम, क्लेश कुण्ठा, भय, व्याकुलता और चिन्ता से विमुक्त हो जाता है। अपने व्यक्तित्व का सम्पूर्ण संदर्शन करना रुपान्तरण की प्रक्रिया का समारम्भ है।
हमारे गहन भय के मूल में कहीं भूतकाल की दु:खद घटनाओं के संस्कार दबे हुए होते पर उसे उद्दीप्त एंव उग्र कर देते होते हैं जो वर्तमान में छोटी-सी घटना होने पर उसे उद्दीप्त एंव उग्र कर देते हैं। गहन आत्म-निरीक्षण एंव आत्म-विश्लेषण द्वारा भय की पुरानी गांठों को खोलकर उनसे उन्मुक्त होना नितान्त संभव है। मनुष्य भतकाल की घटनाओं को निर्लिप्त एंव तटस्थ होकर देखने और समझने के द्वारा तथा विवेक एंव प्रसुप्त शक्तियों के जागरण द्वारा उनसे सर्वथा उन्मुक्त होकर एक नया भयरहित प्रारम्भ कर सकता है।
यद्यपि वर्तमान मे किसी विषम परिस्थिति अथवा संकट को देखकर भय उत्पन्न होना एक साधारण मानसिक प्रतिक्रिया है तथापि विवेक द्वारा न केवल तत्काल ही भय का निराकरण करना सभंव है, बल्कि निर्भयता को स्थायी स्वभाव अना लेना भी पूर्णत: संभव है। विवेक क अतिरिक्त केवल धैर्य होना चाहिए। भूतकाल के बन्धन से मुक्त होने पर मनुष्य पूर्ण आत्म-नियंत्रण प्राप्त रक लेता है तथा अनन्त शान्ति के पथ पर पर आरुढ हो जाता है। वास्तव मे जीवन की कोई भी समस्या नितान्त व्यक्तिगत एंव विलक्षण नहीं होती तथा प्रत्येक समस्या मानवीय भी होती है जिसका समाधान होना अवश्य संभव होता है। सत्य के अन्वेषक एंव शोधक के लिए भूतकाल के बन्धन से सर्वथा मुक्त होकर वर्तमान को ही सत् मानना चाहिए। भूनकाल तो असत् है, वह विनष्ट होकर अनन्त में विलीन हो चुका तथा भविष्य ने जन्म ही नहीं लिया तथा वह अभी निर्माणाधीन है। विवेकशील मनुष्य भूनकाल के दु:ख, शोक, हानि, अपमान और अपमान और पराजय एंव हताश नहीं होता तथा वह मिथ्या कल्पनाओं के द्वारा भविष्य को भयावह मानकर व्यर्थ ही चिन्तित भी नहीं होता। हां, भूतकाल से शिक्षा ली जा सकती है तथा उज्जवल भविष्य की योजना बनाकर उसके लिए प्रयत्न करना भी विवेक-सम्मत है। भूतकाल के दु:खों का स्मरण करके तथा भविष्य की भयावह कल्पना करके वर्तमान को दु:खमय बनाना अविवेक है। कभी-कभी भूतकाल के दु:खो का स्मरण न करने पर भी स्वत: उनका स्मरण हो जाता है किन्तु उसको विगत मानकर उससे मुक्त हो जाना ही विवेक है। कुशल धावक कभी पीछे मुड़कर नहीं देखमा तथा आगे ही बढता रहता है। आगे बढते ही रहना जीवन है।
हमनें भूतकाल में भी भूलें की हैं, उनके स्मरण द्वारा अपने को बुरा मानकर क्लेश करते रहना भी एक बड़ी भूल है। तुच्छ बातों में भी पाप की कल्पना करके अपने पापी मानना महापाप है। भूल को समझकर उसे भूल मान लेना ही भूल का अन्त करना है। विचारपूर्ण प्रायश्चित अथवा करना पुरानी भूल को दुग्ध कर देता है किन्तु प्रायश्चित अथवा पश्चाताप करते ही रहना मूर्खता का लक्षण है। कोई भी विचार अथवा कर्म जो मनुष्य कोसते ही रहना और आत्मग्लानि में डूबकर तथा अपने को पापी मानकर कोसते ही रहना मूर्खता का लक्षण है। कोई भी विचार अथवा कर्म जो मनुष्य के मन में बन्धन अथवा कुण्ठा बनकर आगे बढने में बाधा डालता हो, सर्वथा त्याज्य है। भूल करना मानवीय स्वभाव है। भूल किससे नहीं होती ? भावुकतापूर्वक भूल का स्मरण करते रहना अन्धकार में भटकना है तथा यथार्थ से दूर टकर जीवन के प्रति अन्याय करना है।
वास्तव में मनुष्य चिरकाल तक भूल का स्मरण करके मन में भूल के संसकार को प्रगाढ बनाकर भूल को स्वभाव ही बना लेता है। संसार में पाप के भय ने जितना पाप रोका है, उससे अधिक उसने मानव-मन को कुण्ठित एंव दुर्बल किया है। तथा मनुष्य को दयनीय बना देती है। यदि भूल हुई है तो उसे विवेकपूर्ण पश्चाताप से दग्ध करके, उसकी पुनरावृति न करने का संकल्प लेकर आगे बढने से पुरानी भूल हुई है तो उसे विवेकपूर्ण पश्चाताप से दग्ध करके, उसकी पुनरावृति न करने का संकल्प लेकर बढ़ने से पुरानी भूलें जीवन-पथ में प्रकाश-दीप बन जाती है। बार-बार गिरकर सभंलने, उठ जाने तथा आगे बढने से मनुष्य ठीक प्रकार चलना सीख लेता है तथा उसका अनुभव आतमविश्वास को बढ़ा देता है। उत्तम पुरष बार-बार गिरकर भी गेंद की भाँति ऊपर उठ जाता है किन्तु अधम व्यक्ति गिरकर मिट्टी के ढेले के सदृश बिखर ही जाता है।
Anglo-Castilian Trade in the Later Middle Ages (Childs)
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Anglo-Castilian Trade in the Later Middle Ages (Manchester: Manchester
University Press, c1978), by Wendy R. Childs (multiple formats at
archive.org)
17 hours ago
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