प्रत्येक मनुष्य जाने-अनजाने अपनी उत्तम तथा अधम विचार-तंरगों का निरन्तर उत्सर्जन एवं संप्रेषण करता रहता है जो किसी विशेष व्यक्ति के प्रति एकाग्रतदापूर्वक निर्दिष्ट न होने के कारण वातावरण में यत्र-तत्र प्रवाहित होकर अन्य जन को प्रभावित करती रहती है तथा सजातीय (समान) विचारोंवाले निकटस्थ मनुष्यों को विशेषतः प्रभावित करती हैं। उत्तम विचारों के प्रति ग्रहणशील होने पर मनुष्य के मन में श्रेष्ठ पुरुषों की श्रेष्ठ विचार-तंरगें सहज ही प्रविष्ट हो जाती हैं तथा उसे सशक्ति एवं आनन्दमय कर देती हैं। सत्संगति तथा कुसंगति का प्रभाव मानसिक तरंगों के कारण भी होता है। दूरस्थ मनुष्य निर्देशानुसार (विशेषतः पूर्वनिर्धारित समय) किसी श्रेष्ठ पुरुष के तरग्ङदैर्घ्य (वेव लैंग्थ) पर विचार-संप्रेषण एवं आनन्द सन्देश का लाभ उठाकर न केवल अवसादमुक्त बल्कि आनन्दनिमग्न भी हो सकता है। हमारा निगृहीत एवं एकाग्र मन इच्छाशक्ति के द्वारा पशु-पक्षियों और पौधों को भी संदेश दे सकता है। निष्कपट, स्वस्थ, मंगलकारी विचार में अपरिमित शक्ति होती है।
चित्त की एकाग्रता, इच्छा-शक्ति एवं संकल्प-शक्ति का विकास धैर्यपूर्वक अभ्यास करने से संभव होता है। बीच को मधुर फल और फूल से युक्त वृक्ष में परिणत करने के लिए अथक परिश्रम एवं धैर्य की आवश्यकता होती है धैर्य करना कठिन होता है किन्तु उसके फल मीठे होते हैं। एक बार शक्ति और सफलता का मार्ग समझ लेने पर भी धैर्यपूर्वक उस पर न चलनेवाला व्यक्ति किसी अन्य को दोष देने का अधिकारी नहीं है। जीवन में सफल और विफल व्यक्तियों के मध्य में इच्छाशक्ति का रेखाकन ही होता है। चित्ति की एकाग्रता एवं प्रबल इच्छा-शक्ति(संकल्पबल) के बिना मनुष्य जीवन के किसी क्षेत्र में भी सफल नहीं हो सकता। चंचल मन को नियंत्रित एवं निर्विकार करने के लिए ध्यानयोग श्रेष्ठ उपाय है। ध्यानयोगी सन्त का आकर्षण चुम्बकीय होता है तथा उसमें मन को प्रकाशित एवं प्रभावित करने की अनन्त क्षमता होती हो। यह भी तथ्यात्मक अनुभव चहो कि प्रबल आध्यात्मिक शक्ति को धारण करने वाले परम सन्त के श्र्द्धापूर्क स्मरण द्वारा उसके साथ मानसिक सम्बन्ध हो जाने पर व्यक्ति की चेतना में कल्पनानीत दिव्य शक्ति का तत्काल अनुभव होने लगता है। जिस प्रकार विद्युत् से आवेशित पदार्थ का सम्पर्क होने पर दूसरे पदार्थ मे विद्युत का आवेश हो जाता है, उसी प्रकार आध्यात्मिक सन्तों का सम्पर्क करने से उनकी शक्ति का लाभ हमें प्राप्त हो जाता है। प्रशान्त मुद्रा में स्थित निर्मल चित्तवाले सन्त के दर्शन मात्र एवं आशीर्वाद से तत्काल शान्ति का अनुभव होना उनके द्वारा उत्सर्जित ऊर्जा-तरंगों के प्रभाव का परिमाण होता है। सतत चिन्तन एवं गहन ध्यान के अभ्यासी तथा इच्छाओं को पूर्ण नियंत्रण में रखनवाले सुशान्त सन्तपुरुष असाधारणान मानसिक शक्ति एवं इच्छा-शक्ति के धनी हो जाते हैं तथा वे चित्त की एकाग्रता द्वारा चमत्कारपूर्ण कार्य करने मे समर्थ होते हैं। ऐसे सन्त धर्म, पवित्र ग्रन्थ, सम्प्रदाय, भाषा, देश आदि की सीमाओं के बन्धन से सर्वथा मुक्त होते हैं तथा उनके लिए सभी मनुष्य समानप्रिय होते है। ऐसे सन्त पुरुष यश की इच्चा तथा प्रलोभनों के प्रभाव से सर्वथा मुक्त होते हैं। समस्त प्राणियों का हित-चिन्तन एवं हित-सम्पादन करना उनका सहज स्वभाव होता है। वे न कहीं भव्य आश्रम बनाते हैं, न उनकी कोई गद्दी होती है और न वे चेलों के जाल ही बुनते हैं।
मानसिक ऊर्जा निश्चय ही यांत्रिक ऊर्जा की अपेक्षा कहीं अधिक शक्तिशाली होती है। मानसिक ऊर्जा विद्युत तरंगों को भी उत्पन्न एवं उद्दीप्त कर सकती है। मानसिक ऊर्जा की तरंगों को द्वारा सहस्रों मील दूरस्थित व्यक्ति को विचारों का संप्रेषण किया जा सकता है साधारणतः भी विचार-संप्रेषण द्वारा माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी, मित्र आदि के प्रेमपूर्ण स्मरण का आभास दूरस्थित व्यक्ति को तत्काल हो जाता है। योगियों द्वारा दूरस्थ व्यक्तियों को रहस्यमय ऊर्जा-तरंगों के कणों से अपनी आकृति का आभास करा देने का रहस्य तथा सिंह आदि के रूप में प्रकट हो जाने का रहस्य कदाचित् त्रि-आयामी प्रक्षेपण में निहित है। आन्तरिक शक्ति के विकास में मौन एवं मंत्र-जप का भी विशेष स्थान है किंतु मंत्र-जब की सफलता मंत्र-शक्ति में विश्वास रखना होता है।जिस प्रकार एक चतुर महावत शैतान हाथी को सूँड से सँभाले रखने के लिए एक डंडा देकर उसे इधर-उधर तोड़-फोड़ करने से रोक देता है,उसी प्रकार एक चतुर मनुष्य निरन्तर मंत्र-जप से अपने चंचल मन को संयत कर लेता है।
मनुष्य चित्त की एकाग्रता के अभ्यास द्वारा अपनी स्मरण-शक्ति को भी आश्चर्यजनक बना सकता है। कभी-कभी गम्भीर विषयों पर चित्त का एकाग्र करने से कुछ सामान्य बातों की भूल हो जाती है तथा मनुष्य स्वयं को भुलक्कड़ समझकर अपने ऊपर तरस खाने लगता है। अतिव्यस्तता के कारण अथवा मन के अन्यत्र केन्द्रित होने के कारण सामान्य बातों का विस्मरण हो जाना स्वाभाविक है। अनेक बार मनुष्य चाबी,पर्स, आभूषण, पुस्तक इत्यादि कहीं रखकर भूल जाता है तथा वह किसी सेवक इत्यादि अन्य व्यक्ति पर सन्देह करने लगता है। बहुत समय तक वस्तु के न मिलने पर वह स्वयं को व्यर्थ भुलक्कड़ कहकर कुपित हो जाता है। अनेक महान् वैज्ञानिकों, विद्वानों एवं महापुरुषों की भयंकर भूलों के सम्बन्ध में विविध प्रकार की दन्तकथाएँ प्रचलित हैं। प्रकृति का ऐसा विधान है कि मनुष्य का अचेतन मस्तिष्क कभी निष्क्रिय नहीं रहता तथा सदैव मनुष्य की समस्याओं का समाधान करने में सक्रिय रहता है। जब अचेतन मन खोई वस्तु के सम्बन्ध में खोज कर लेता है तब वह सहसा अपने निर्णय का संप्रेषण चेतन मन को कर देता है। स्मरण-शक्ति के विकास को विशिष्ट क्रियाओं के अभ्यास द्वारा स्मरण-शक्ति के आशचर्यजनक चमत्कार किए जा सकते हैं।
A Critical and Exegetical Commentary on the Epistles to the Ephesians and
to the Colossians (Abbott)
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A Critical and Exegetical Commentary on the Epistles to the Ephesians and
to the Colossians (International Critical Commentary volume; New York: C.
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2 days ago
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