संसार में प्रत्येक मनुष्य का अपने व्यक्तित्व के अनुशार अपना एक भिन्न क्षेत्र होता है तथा समान प्रतीत होते हुए भी सभी मनुष्य संस्कारों की पृष्ठभूमि तथा स्वाभाव, क्षमता, शिक्षा इत्यादि के भेद के कारण बिलकुल भिन्न होते हैं। प्रकृति में सर्वत्र अनन्त भिन्नता है तथा कोई भी दो मनुष्य, दो पशु, दो पक्षी, दो वृक्ष, दो पत्ते, दो फल, दो पुष्प पूर्णतः समान नहीं होते। मनुष्यों में बुद्धि-भेद के कारण यह प्राकृतिक विभिन्नता और भी अधिक प्रखर हो जाती है तथा किसी व्यक्ति की किसी भी अन्य व्यक्ति के साथ पूर्ण समान्ता कदापि नहीं हो सकती। साधारणतः भी किसी व्यक्ति की रुचि पढ़ने में है और किसी की रुचि पर्यटन, खेल, संगीत, नृत्य, चित्रकाल, काव्य सामाजिक कार्य, शिक्षण, विज्ञान, वक्तृत्व (भाषण-कला), नेतृत्व चिकित्सा इत्यादि में है। इन भेदों में भी प्रभेद हैं जैसे साहित्य के क्षेत्र में किसी को धर्म, दर्शन आदि गभ्भीर विषयों में रुचि है अथवा किसी को उपन्यास आदि गल्प में तथा खेल के क्षेत्र में किसीको क्रिकेट पसन्द है अथवा किसी को हाकी। सभी के मानसिक स्तर, विचार-सामग्री, मान्यताओं, मूल्यों, अनुभवों, और जीवन-शैली (लाइफ स्टाइल) तथा सोचने, समझने और करने के तरीकों में भी भिन्नता होती है। ग्राम में अशिक्षित जन के मध्य में जीवन-यापन करनेवाला बढई और लुहार अपने मानसिक संस्कारों की पृष्ठभूमि के अनुसार ही सोचता और व्यवहार करता है। एक शिक्षित एवं सभ्य समाज में पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करने वाले व्यक्ति का चिन्तन बिलकुल भिन्न होता है। शिक्षक,चिकित्सक, सैनिक, खिलाड़ी, नेता, अभिनेता, श्रमिक अथवा व्यापारी की चिन्तन-शैली भिन्न होती है किन्तु मनुष्य के मानवीय गुण ही उसे मनुष्य बनाते हैं। वास्तव में व्यक्तित्व मनुष्य के गुणों और अवगुणों के समुच्चय के आधार पर निर्मित होता है तथा मनुष्य अपने व्यक्तित्व के निर्माण के लिए प्रधानतः स्वयं उत्तरदायी होता है।
विवेकशील पुरुष बौद्धिक तथा भावनात्मक पक्षों के सामंजस्य द्वारा सुगठित व्यक्तित्व का निर्माण कर सकता है। उत्तम व्यक्तित्व की प्रमुख विशेषता संघर्ष-शक्ति, स्वाधीनता, धैर्य, सहनशीलता, मैत्रीभाव तथा क्षमा होते हैं। सत्यनिष्ठा और प्रेम उत्तम व्यक्तित्व के आधार होते हैं। सत्य का उपसक किसीका अन्धानुकरण नहीं करता। वह सब और से सत्य के कणों का संचय करके तथा उन्हें अपने अनुभव की कसौटी पर परखकर आत्मसात् कर लेता है। सत्यनिष्ठ पुरुष न्यायशील होता है। सत्य का उपासक सभी के साथ प्रेम का नाता स्थापित करता है। वह किसी को ऊँचा अथवा किसीको नीचा मानकर प्रेम-व्यवहार में भेद नहीं करता तथा सबके कल्याण की कामना करता है एवं परोपकाररत रहता है। सत्य, प्रेम और न्याय समस्त सद्गुणों के मूलभूत तत्त्व हैं तथा शाश्वत मानवीय मूल्य हैं। इनसे सिंचित होकर व्यक्तित्व पुष्पित, पल्लवित और सुरभित होता है तथा इनके अभाव में शुष्क, नीरस एवं जर्जरित हो जाता है।
मनुष्य अपने व्यक्तित्व के निर्माण के लिए स्वयं उत्तरदायी है। उत्तम व्यक्तित्व का निर्माण करने से मनुष्य को एक अनोखे ओज और प्रसन्नता का अनुभव होता है। यह एक तथ्य है कि मनुष्य अपनी संकल्प-शक्ति और आत्मविश्वास को जगाकर ही अपने व्यक्तित्व को सुगठित कर सकता है। वास्तव में प्रसन्नता, सुख और शान्ति कहीं बाहर से प्राप्त नहीं होते, बल्कि अपने चिन्तन, विचार, कर्म तथा जीवन-शैली के सहज परिणाम होते हैं। अपने भीतर प्रसन्नता जगाने से मनुष्य के सब कष्टों का अन्त हो जाता है तथा अवसाद विलुप्त हो जाता है जैसे प्रकाश के उदय से तिमिरपुंज ध्वस्त हो जाता है।
A Critical and Exegetical Commentary on the Epistles to the Ephesians and
to the Colossians (Abbott)
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A Critical and Exegetical Commentary on the Epistles to the Ephesians and
to the Colossians (International Critical Commentary volume; New York: C.
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1 day ago
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