एक था बनिया। नाम था, वीरचन्द। गांव में रहता था। दुकान चलाता था और उससे अपना गुजर-बसर कर लेता था। गांव में काठियों और कोलियों के बीच झगड़े चलते रहते थे। पीढ़ियों पुराना बैर चला आ रहा था।
एक दिन काठियों के मन खींचकर बिगड़े और कोलियों को ताव आ गया। बीच बाजार में तलवारें खींचकर लोग आमने-सामने खड़े हो गए। काठी ने अपनी खुखड़ी निकाल ली और कोली पर हमला किया। कोली पीछे हट गया और काठी पर झपटा। एक बार में काठी का सिर धड़ से अलग हो गया। तलवार खून से नहा ली।
मार-काट देखकर बनिया बुरी तरह डर गया और अपनी दुकान बंद करके घर के अन्दर दुबककर बैठ गया। बैठा-बैठा सबकुछ देखता रहा और थर-थर कांपता रहा। लोग पुकार उठे—दौड़ो-दौड़ो, काठी मारा गया है।‘ चारों तरफ से सिपाही दौड़े आए। गांव के मुखिया और चौधरी भी आ गए। सबने कहा, "यह तो रघु कोली का ही वार है। दूसरे किसी की यह ताकत नहीं।" लेकिन अदालत में जाना हो, तो बिना गवाह के काम कैसे चले?
किसी ने कहा, "वीरचन्द सेठ दुकान में बैठे थे। ये ही हमारे गवाह हैं। देखा, न देखा, ये जानें। पर अपनी दुकान में बैठे तो थे।"
बनिया पकड़ा गया और उसे थानेदार के सामने हाजिर किया गया। थानेदार ने पूछा, "बोल बनिये! तू क्या जानता है?"
बनिये ने कहा, "हुजूर, मैं तो कुछ भी नहीं जानता। अपनी दुकान में बैठा मैं तो बही खाता लिखने में लगा था।"
थानेदार बोला, "तुझे गवाही देनी पड़ेगी। कहना पड़ेगा कि मैंने सबकुछ अपनी आंखों से देखा है।"
बनिया परेशान हो गया। सिर हिलाकर घर पहुंचा। रात हो चुकी थी। पर नींद आ रही थी। बनिया सोचने लगा—‘यह बात कहूंगा, तो कोलियों के साथ दुश्मनी हो जायगी, और यह कहूंगा, तो काठी मेरे पीछे पड़ जायगे। कुछ बनिये की अक्ल से काम लेना होगा।’ बनिये को एक बात सूझी ओर वह उठा। ढीली धोती, सिर पर पगड़ी और कंधे पर चादर डालकर वीरचन्द चल पड़ा। एक काठी के घर पहुंचकर दरवाजा खटखटाया।
काठी ने पूछा, "सेठजी! क्या बात है? क्या बात है? इतनी रात बीते कैसे आना हुआ?"
बनिये ने कहा, "दादाजी! गांव के कोली पागल हो उठे हैं। कहां जाता है कि आज उन्होंने एक खून कर दिया! पता नहीं कल क्या कर बैठेंगे? कल का कलं देखा जायगा।" बनिये की बात सुनकर दादाजी खुश हो गए और उन्होंने बनिये के हाथ में सौ रुपये रख दिए।
कमर में रुपए बांधकर बनिया कोली के घर पहुंचा। कोली ने पूछा, "सेठजी! इस समय कैसे आना हुआ? क्या काम आ गया?"
बनिये ने कहा, "काम क्या बताऊं? अपने गांव के ये काठी बहुत बावले होउ ठेहैं। एक को खत्म करके ठीक ही किया है। धन्य है कोली, और धन्य है, कोली की मां!"
सुनकर कोली खुश हो गया। उसने बनिये को दस मन बाजरा तौल दिया। बनिया घर लौटा और रात आराम से सोया। सोते-सोते सोचने लगा- ‘आज कोली और काठी को तो लूट लिया, अब कल अदालत को भी ठगना है।’ दूसरे दिन मुकदमा शुरू हुआ।
न्यायाधीश ने कहा, "बनिये! बोल, जो झूठ बोल, उसे भगवान तौले।"
बनिये ने कहा, "जो झूठ बोले, उसे भगवान तौले।"
न्यायधीश ने पूछा, "बनिये! बोल, खून कैसे हुआ और किसने किया?"
बनिये ने कहा, "साहब, इधर से काठी झपटे और उधर से कोली कूदे।"
"फिर क्या हुआ?"
"फिर वही हुआ।"
"लेकिन वही क्या हुआ?"
"साहब! यही कि इधर से काठी झपटे और उधर से कोली कूदे।"
"लेकिन फिर क्या हुआ?"
"फिर तो आमने-सामने तलवारें खिंच गईं और मेरी आंखें मिच गईं।"
इतना कहकर बनिया तो भरी अदालत के बीच धम्म से गिर पड़ा और बोला, "साहब, बनिये न कभी खून की बूंद भी देखी है? जैसे ही तलवारें आमने-सामने खिंचीं, मुझे तो चक्कर आ गया और मेरी आंखें तभी खुलीं, जब सिपाही वहां आ पहुंचे।"
न्यायाधीश ने कहा, "सुन, एक बार फिर अपनी सब बातें दोहरा दे।"
बनिया बोला:
इधर से काठी झपटे।
उधर से कोली कूदे।
आमने-सामने तलवारें खिंच गईं।
और मेरी आंखें मिच गईं।
न्यायाधीश ने बनिये को तो विदा कर दिया, लेकिन समझ नहीं पाए कि काठी क्का खून किसने किया है। मुक़दमा खारिज हो गया।
Ways of Being Ethnic in Southwest China (Harrell)
-
Ways of Being Ethnic in Southwest China (Seattle and London: University of
Washington Press, c2001), by Stevan Harrell (PDF and EPub with commentary
at Was...
19 hours ago
No comments:
Post a Comment