किसी गांव में दो मित्र रहते थे। बचपनसे उनमें बड़ी घनिष्टता थी। उनमें से एक का नाम था पापबुद्वि और दूसरे का धर्मबुद्वि। पापबुद्वि पाप के काम करने में हिचकिचाता नहीं था। कोई भी ऐसा दिननहीं जाता था, जबकि वह कोई-न-कोई पाप ने करे, यहां तक कि वह अपने सगे-सम्बंधियों के साथ भी बुरा व्यवहार करने में नहीं चूकता था।
दूसरा मित्र धर्मबुद्वि सदा अच्छे-अच्छे काम किया करता था। वह अपने मित्रों की कठिनाइयों को दूर करने के लिए तन, मन, धन से पूरा प्रयत्न करता था। वह अपने चरित्र के कारण प्रसिद्व था। धर्मबुद्वि को अपने बड़े परिवार का पालन-पोषण करना पड़ता था। वह बड़ी कठिनाईयों से धनोपार्जन करता था।
एक दिन पापबुद्वि ने धर्मबुद्वि के पास जाकर कहा, “मित्र ! तूने अब तक किसी दूसरे स्थानों की यात्रा नहीं की। इसलिए तुझे और किसी सथान की कुछ भी जानकारी नहीं है। जब तेरे बेटे-पोते उन स्थानों के बारे में तुझसे पूछेंगे तो तू क्या जवाब देगा ? इसलिए मित्र, मैं चाहता हूं कि तू मेरे साथ घूमने चल।”
धर्मबुद्वि ठहरा निष्कपट। वह छल-फरेब नहीं जानता था। उसने उसकी बात मान ली। ब्राह्राण से शुभ मुहूर्त निकलवा कर वे यात्रा पर चल पड़े।
चलते-चलते वे एक सुन्दर नगरी में जाकर रहने लगे। पापबुद्वि ने धर्मबुद्वि की सहायता से बहुत-सा धन कमाया। जब अच्छी कमाई हो गई तो वे अपने घर की ओर रवाना हुए। रास्ते में पापबुद्वि मन-ही-मन सोचने लगा कि मैं इस धर्मबुद्वि को ठग कर इस सारे धन को हथिया लूं और धनवान बन जाऊं। इसका उपाय भी उसने खोज लिया।
दोनों गांव के निकट पहुंचे। पापबुद्वि ने धर्मबुद्वि से कहा, “मित्र, यह सारा धनगांव में ले जाना ठीक नहीं।”
यह सुनकर धर्मबुद्वि ने पूछा, “इसको कैसे बचाया जा सकता है? ”
पापबुद्वि ने कहा, “सारा धन अगर गांव में ले गये तो इसे भाई बटवा लेंगे और अगर कोई पुलिस को खबर कर देगा तो जीना मुश्किल हो जायगा। इसलिए इस धन में से आवश्यकता के अनुसार थोड़ा-थोड़ा लेकर बाकी को किसी जंगल में गाड़ दें। जब जरुरत पड़ेगी तो आकर ले जायेंगे।”
यह सुनकर धर्मबुद्वि बहुत खुश हुआ। दोनों ने वैसा ही किया और घर लौट गए।
कुछ दिनों बाद पापबुद्वि उसी जंगल में गया और सारा धन निकालकर उसके स्थान पर मिटटी के ढेले भर आया। उसने वह धन अपने घर में छिपा लिया। तीन-चार दिन बाद वह धर्मबूद्वि के पास जाकर बोला, “मित्र, जो धन हम लाये थे वह सब खत्म हो चुका है। इसलिए चलो, जंगल में जाकर कुछ धन और लें आयें।”
धर्मबुद्वि उसकी बात मान गया और अगलेदिन दोनों जंगल में पहुंचे। उन्होंने गुप्त धन वाली जगह गहरी खोद डाली, मगर धन का कहीं भी पता न था। इस पर पापबुद्वि ने बड़े क्रोध के साथ कहा, “धर्मबुद्वि, यह धन तूने ले लिया है।”
धर्मबुद्वि को बड़ा गुस्सा आया। उसने कहा, “मैंने यह धन नहीं लिया। मैंने अपनी जिंगी में आज तक ऐसा नीच काम कीभी नहीं किया ।यह धन तूने ही चुराया है।”
पापबुद्वि ने कहा, “मैंने नहीं रचुराया, तूने ही चुराया है। सच-सच बता दे और आधा धन मुझे दे दे, नहीं तो मैं न्यायधीश से तेरी शिकायत करूंगा।”
धर्मबुद्वि ने यह बात स्वीकार कर ली। दोनों न्यायालय में पहुंचे। न्ययाधीश को सारी घटना सुनाई गई। उसने धर्मबुद्वि की बात मान ली और पापबुद्वि को सौ कोड़े का दण्ड दिया। इस पर पापबुद्वि कांपने लगा और बोला, “महाराज, वह पेड़ पक्षी है। हम उससे पूछ लें तो वह हमें बता देगा कि उसके नीचे से धन किसने निकाला है।”
यह सुनकर न्यायधीश ने उनदोनों को साथ लेकर वहां जाने का निश्यच किया। पापबुद्वि ने कुछ समय के लिए अवकाश मांगा और वह अपने पिता के पास जाकर बोला, “पिताजी, अगर आपको यह धन और मेरे प्राण बचाने हों तो आप उस पेड़ की खोखर में बैठ जायं और न्यायधीश के पूछने पर चोरी के लिए धर्मबुद्वि का नाम ले दें।”
पिता राजी हो गये। अगले दिन न्यायधीश, पापबुद्वि और धर्मबुद्वि वहां गये। वहां जाकर पापबुद्वि ने पूछा, “ओ वृक्ष ! सच बता, यहां का धन किसने चुराया है।”
खोखर में छिपे उसके पिता ने कहा, “धर्मबुद्वि ने।”
यह सुनकर न्यायधीश धर्मबुद्वि को कठोर कारावास का दण्ड देने के लिए तैयार हो गये। धर्मबुद्वि ने कहा, “आप मुझे इस वृक्ष को आग लगाने की आज्ञा दे दें। बाद में जो उचित दण्ड होगा, उसे मैं सहर्ष स्वीकार कर लूंगा।”
न्यायधीश की आज्ञा पाकर धर्मबुद्वि ने उस पेड़ के चारों ओर खोखर में मिटटी के तेलके चीथड़े तथा उपले लगाकर आग लगा दी। कुछ ही क्षणों में पापबुद्वि का पिता चिल्लाया “अरे, मैं मरा जा रहा हूं। मुझे बचाओ।”
पिता के अधजले शरीर को बाहर निकाला गया तो सच्चाई का पता चल गया। इस पर पापबुद्वि को मृत्यु दण्ड दिया गया। धर्मबुद्वि खुशी-खुशी अपने घर लौट गया। □
A Concise History of the Commencement, Progress and Present Condition of the American Colonies in Liberia (Wilkeson)
-
A Concise History of the Commencement, Progress and Present Condition of
the American Colonies in Liberia (Washington: Printed at the Madisonian
office, 18...
2 hours ago
No comments:
Post a Comment