कुछ लोग शोकसंविग्न अथवा क्रोधाभिभूत होकर किसी अन्य व्यक्ति को अकारण अपने दुःख का प्रदाता मान लेते हैं तथा उसके विनाश के लिए शाप देते हैं। कौओं के कोसने से भैंसे मर नहीं जाती। यदि अनजान में कोई भूल गई है, उसे नैतिक दृष्टि से अपराध नहीं कहा जा सकता, किन्तु किसी को जान-बूझकर जाल में फँसाना अथवा सताना घोर नीचता होती है। जान-बूझकर सताने या शोषण करने के कारण दुःखी व्यक्ति के हृदय से निकली हुई आहों का भीषण प्रभाव होता है। परस्पर सहमति औरप सहयोग से समस्याओं का समाधान होना उत्तमता का लक्षण होता है।
यद्यपि समाज-व्यवस्था के हित में नीचता दण्डनीय होती है तथापि विवेक का जागरण होने पर तथा सच्चा पश्चात्ताप करने पर मानसिक अपराध-बोध एवं आत्मग्लानि समाप्त हो जाते हैं, भले ही सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से वह व्यक्ति दण्ड का भाजन हो। परिपक्व व्यक्ति अपराध-बोध की कुण्ठाओं से आत्मविश्लेषण, चिन्तन, ध्यान और सेवाकार्य द्वारा मुक्त हो जाता है।
अनुभवों द्वारा परिपक्व होने पर अर्थात् विवेक (समझदारी) का जागरण होने पर भय का वेग क्षीण हो जाता है। वास्तव में भय होना प्राणिमात्र की स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। वन में सिंह का गर्जन सुनकर पशु-पक्षी भयभीत हो जाते हैं और प्राण-रक्षा चाहते हैं और प्राण-संकट की परिस्थिति में भय को रूप में प्रतिक्रिया होने पर यथाशक्ति प्राण-रक्षा का यत्न करते हैं। अल्प भय जागरण की पूर्वास्था है तथा जागरण का संकेत एवं प्रेरक है।
विषयम परिस्थिति के समुत्पन्न होने पर उसे पार कर जाने की उत्सुकता के साथ ही विफल अथवा पराजित होने की आशंका भी मन को घेर लेती है तथा मनुष्य भयभीत हो जाता है। प्रतिकूल परिस्थिति में भय उत्पन्न होना तथा मन में भय के संस्कार जागरित हो जाना स्वाभाविक है। जब खिलाड़ी खेल के मैदान में जाता है, उसके मन में जय और पराजय के द्वन्द्व का संघर्ष होता रहता है तथा अनिश्चय की अवस्था उसे भ्रान्त कर देती है। पराजय का भय मन में भ्रम (वहम) उत्पन्न कर देता है तथा मनुष्य पराजय के भय एवं विजय की कामना के कारण विविध प्रकार के विश्वासों का सहारा लेने लगता है। खिलाड़ी कभी किसी बैट को अथवा किसी विशेष रंग की शर्ट को भाग्यप्रद कहतदा है तथा किसी तारीख अथवा दिन को शुभ या अशुभ कहता है। वह अनेक प्रकार की मनौती करके ही खेल के मैदान में उतरता है। परीक्षार्थी परीक्षा-भवन में प्रवेश करने से पूर् विचलित अवस्था में अनेक प्रकार से अपने मन को स्थिर करता है कोई परीक्षार्थी जेब में "लकी" सिक्का रखकर लाता है तथा कोई कुछ अन्य उपाय करता है। मुकदमें में फँसा हुआ व्यक्ति अपने भयभीत मन को शान्त करने के लिए अनेक यत्न करता है। संकट-काल में अनेक विश्वास मिथ्य होते हुए भी मन को दृढता देने के कारण महत्त्वपूर्ण होते हैं तथा उनका सहसा परित्याग करना न उचित होता हौ और न संभव ही। अल्पज्ञान की अपरिपक्वावस्था में मिथ्या आस्था और विश्वास भी संबल प्रदान करते हैं तथा उस अवस्था में उनके महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता। ज्ञानमण्डित व्यक्ति अल्पज्ञ को सहसा विचलित करके निरालम्ब नहीं कर देता तथा धीरे-धीरे ही उसे अज्ञान से उबारता है। चिन्तनशील व्यक्ति धीरे-धीरे मिथ्या आस्थाओं और टोटकों से मुक्त होकर अपने मन में सत्य की प्रस्थापना करके सत्य के प्रति आस्था एवं विवेक को दृढ कर लेता है। मनुष्य सत्य और विवेक की प्रस्तापना द्वारा न केवल भीषण परिस्थिति को साहसपूर्वक पार कर लेता है, बल्कि अपने भीतर पैठे हुए भय और उसके गहरे संस्कारों पर भी विजय प्राप्त कर लेता है। यद्यपि भय प्राणिमात्र की स्वाभाविक प्रवृत्ति है, मनुष्य बुद्धि के सदुपयोग से अवश्य ही भय से मुक्त हो सकता है।
परिपक्व होने पर मनुष्य पुराने अनुभवों के आधार पर अनेक प्रकार के भयों के प्रभाव से मुक्त हो जाता है। विवेकपूर्ण चिन्तन से भय के पुराने संस्कार निष्प्रभाव एवं क्षीण हो जाते हैं। कभी-कभी किसी कार्य को करते समय अथवा किसी घटना को देखने के समय सहसा अकारण ही विचार आता है कि यदि ऐसा होगा तो वह मेरे दुर्भाग्य का सूचक होगा यद्यपि उसका मनुष्य से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं होता अथवा कभी कुछ कार्य करते समय अकारण आशंका उत्पन्न होती है कि यदि हम इस समय ऐसा करेंगे तो वैसा होगा यद्यपि इन दोनों बातों में कोई तालमेल ही नहीं होता। बयजनित अकारण आशंकाओं को किसी पुराने अपराध-बोध के संस्कार से उत्पन्न मानकर उनकी उपेक्षा कर देनी चाहिए। मनुष्य कभी-कभी चिन्तन करते समय सहसा किसी प्रियजन के सम्बन्ध मे अति मोह के प्रभाव से ऐसी कल्पना कर बैठता है अथवा ऐसा विचार करने लगता है जो अभद्र होने के कारण मन को चौंका देता है और मन घबरा उठता है। परिपक्व व्यक्ति उसका मिथ्या एलं क्षणिक समझकर उस पर ध्यान नहीं देता।
मनुष्य के मन में प्रत्येक पाँच-छह सेकिंड़ों में नया विचार आता रहता है तथा किसी अभद्र विचार के आने पर विचार-प्रवाह को रोकना नहीं चाहिए। अभद्र विचारों एवं कल्पनाओं की उपेक्षा कर देने से वे स्वयं क्षीण हो जाते है। कभी-कभी किसी के रोग को देखकर मनुष्य उसके साथ अपनी तुलना करके समान लक्षणों को ढूँढने लगता है और अकारण ही स्वयं भी दूसरे की भाँति रोगी हो जाने की संभावना अथवा भ्रम करने लगात है। संसार में किसी मनुष्य की किसी अन्य से पूर्ण समानता कदापि नहीं होती तथा कुछ बिन्दुओं की समानता होने पर भी मनुष्य और मनुष्य में महान् अन्तर होता है। सभी की क्षमता, आन्तरिक शक्ति और पृष्ठभूमि भिन्न-भिन्न होते हैं. अनेक बार मनुष्य व्यर्थ ही अपने किसी पुराने रोग के पुनः उत्पन्न हो जाने का बय करने लगात है। कभी-कभी अचेतन मन कुण्ठाओं को निकाल देने के लिए उन्हें चेतना-स्तर पर ऊपर उभार देता है तथा मनुष्य को समझदारी से काम लेना चाहिए तथा घबराना नहीं चाहिए। वास्तव में काल्पनिक भय और निरर्थक आशंका किसी न किसी मात्रा में सभी को सताते हैं तथा समान्य दोष होते हैं किन्तु मनुष्य अपने भय और आशंका को विशेष और विषम मानकर तथा उन पर अनावश्यक ध्यान देकर स्वयं ही उन्हें कष्टदायी बना देता है।
अनुभवों से परिपक्व व्यक्ति विवेक द्वारा अस्थायी अवसाद के क्षणओं को किसी उपयोगी एवं रुचिकर कार्य, स्वाध्याय अथवा मनोरंजन में व्यस्त होकर धैर्यपूर्वक पार कर लेता है। अपनी क्षमता और उपलब्धियों का एहसास करना भी आत्मविश्वास को जगाने में सहायता करता है। मनुष्य विगत जीवन में अपनी बुद्धिमत्ता को प्रमाणित करने वाली उपलब्धियों एव कार्यकलाप का स्मरण करके तथा विषम परिस्थितियों में भी सन्तुलन बनाए रखकर उनका समाधान करने के अनुभवों का स्मरण करके आत्मविश्वास को पुष्ट कर सकता है और भयभीत न होने का वज्र संकल्प ले सकता है। किन्तु वास्तव में एकान्त स्थल में निस्स्पन्द बैठकर नित्य-प्रति तीस-पैंतीस मिनिट तटस्थ चिंतन एवं आत्म-अवलोकन करने से मन की गहरी परतों से भय और शोक के पुराने संस्कारों से मुक्त हो जाता है। ध्यान की साधना इसमें विशेष सहायक होती है।
परिपक्व व्यक्ति बात-बात पर चिढता नहीं है। तुच्छ बातों पर उत्तेजित होना अपरिपक्वता का लक्षण है। परिपक्व एवं विवेकशील व्यक्ति प्रायः सम और शान्त रहता है। वह आवश्यकता होने पर दृढ हो जाता है किंतु कर्कश और कठोर कदापि नहीं होता। वह कटु वाणी के आघात से दूसरों के मन को पीडा अथवा संत्रास देने में सुख का अनुभव नहीं करता। विवेकशील व्यक्ति संवेदनशीलता से परिपूर्ण होता है तथा समाज में चारों ओर दुःख और पीड़ा को अनदेखा करके विलसिता में रत नहीं होता तथा उसके जीवन में सादगी अनायास ही आ जाती है।
वृद्धावस्था अभिशाप नहीं होती तथा वह परिपक्वावस्था होती है। वृद्ध लोग अपने अनुभवों के प्रकाश में युवकों का मार्गदर्शन कर सकते हैं तथा उत्तम जीवन के प्रेरक हो सकते हैं। यह बिलकुल आवश्यक नहीं है कि वृद्दावस्था आने पर सूचना को संसाधित करने की मस्तिष्क की क्षमता क्षीण हो जाए। वृद्ध होने पर भी मनुष्य स्वस्थ एवं सुप्रसन्न रहकरर सरलता से मस्तिष्क के कोशिका-क्षय की पूर्ति कर लेता है। वास्तव में मस्तिष्क की कोशिकाएँ अपनी क्षति को स्वयं पूरा कर लेती हैं। यद्यपि वृद्धावस्था में रटने की शक्ति कम हो जाती है, समझने की शक्ति तीव्र हो जाती है। अगणित वृद्धा लोग सुप्रसन्न रहना सीखकर जीवन के अन्त सुखी और उपयोगी जीवन व्यतीत करते हैं।
A Memoir of the Very Rev. Theobald Mathew; With an Account of the Rise and
Progress of Temperance in Ireland (Birmingham)
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A Memoir of the Very Rev. Theobald Mathew; With an Account of the Rise and
Progress of Temperance in Ireland (with Morris's "The Evil Effects of
Drunkennes...
11 hours ago
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