प्रायः जिज्ञासा होती है कि हमारे जीवन का प्रयोजन क्या है। अपनी अस्मिता को पहचानकर तथा अपने चिन्तन के अनुरूप कतिपय उद्देश्यों का निर्धारण करके अथवा कुछ स्वप्न संजोकर, उनकी पूर्ति के लिए समर्पित होकर कर्म करने से जीवन में रस की निष्पत्ति हो जाती है और जीवन उमंग से भर जाता है। अपने प्राप्तन्य की ओर आगे बढ़ते रहना, निरन्तर चलते ही रहना, गतिमय रहना, जीवन को भरपूर जीना, मानो जीवन का प्रयोजन समझना है। जीवन के विविध क्षेत्रों मे अपने दायित्वों को समझकर उनका निर्वाह करने से तथा कर्म-सम्पादन में जीवन के उच्च स्तरों को छूने से मनुष्य अपने जीवन को रसमय एवं सार्थक बना लेता है। जीवन के प्रयोजन को न समझने के कारण ही मनुष्य संसार को बुरा कहकर जन-समाज को कोसता है। मनुष्य ज्यों-ज्यों जीवन के उद्देश्यों की पूर्ति करता है, उसे संसार आकर्षक, सुन्दर और सुखद प्रतीत होने लगता है। वास्तव में दोष-सृष्टि का नहीं है, हमारे चिन्तन का है।
वस्तुतः प्रेम-रस ही जीवन-रस है। मनुष्य प्रेम के तत्त्व को समझकर तथा उसे अपने आचरण में उतारकर, अपने संकीर्ण स्व का विस्तार कर लेता है। मनुष्य प्रेम द्वारा व्यापक होकर अनन्त हो जाता है तथा शक्ति एवं शान्ति का अनन्त भण्डार हो जाता है। यह बिडम्बना है कि प्रेम-तत्त्व की विशद व्याख्या करते हैं, प्रवचन करते हैं तथा उसकी महिमा का गान करते हैं किन्तु उसे पहचानकर अपने जीवन मे नहीं उतारते हैं। प्रेमरस का मन को निर्मल, सशक्त और शान्त कर देता है। प्रेम-रस जीवन को सार्थक कर देता है। प्रेमभाव जगत् का देदीप्यमान रत्न है। प्रेम आत्मा का धर्म है। प्रेम का अर्थ है परोपकार, सेवा, सहनशीलता, क्षमा त्याग और समर्पण। प्रेम जीवन के उद्देश्य को पूर्ण करना है। प्रेम-तत्त्व को जानने से अनन्त का बोध होता है तथा प्रेममय होने से मनुष्य अनन्त हो जाता है। वास्तव में प्रेम अद्वैत है। तू और मैं दो नहीं है, एक है। सर्वत्र मैं ही मैं हूँ अथवा सर्वत्र तू ही तू है। प्राणिमात्र के साथ आत्मसात् होना भगवद्भाव की पराकाष्ठा है, भगवदाकार अथवा भगवदरूप हो जाना जीवन की परमोच्च अवस्था है।
प्रेम अपार करुणा के रूप में अभिव्यक्त होता है तथा प्रेम का सारतत्त्व करुणा है। करुणा गहन संवेदनशील होती है जिसकी कोई सीमा नहीं होती। करुणा की गति निर्बाध एवं अप्रतिहत होती है। केवल मात्र अपने निकटवर्ती जन के प्रति ही करुणाभाव होना संकीर्ण मोह होता है। करुणा के द्वारा संकीर्ण आत्मीयता एवं ममत्व का परिष्कार एवं विस्तार हो जाता है। करुणा में व्यापकता होता है। करुणा वर्ण, जाति, भाषा और भौगोलिक अथवा राजनीतिक सीमाओं के बन्धन तोड़कर महासागर की प्रचण्ड ऊर्मि बढ़ती हुई फैलती चली जाती है। सत्य तो यह है कि अमृतमयी करुणा संकीर्ण स्व को पार करके प्राणिमात्र को अपने भीतर समेट लेती है।
करुणार्द्र व्यक्ति सच्चा मानव अथवा सन्त होता है। करुणार्द्रता मानव को स्वार्थ, शोषण, घृणा और हिंसा से मुक्त करके हृदय को निर्मल कर देती है। करुणार्द्र मानव सर्वथा अभय होता है. वह पूर्ण अहिंसक होता है तथा उसके सम्पर्क में आनेवाला हिंसक प्राणी भी उसके प्रभाव से सहज ही हिंसा-भाव का त्याग कर देता है। प्रेमपूर्ण एवं करुणार्द्र मानव की करुणा मोहजनित भावुकता से सर्वथा भिन्न होती है तथा वह अपने सात्विक प्रभाव से दूसरों के विचार और चरित्र का रूपान्तरण करने में समर्थ होता है। नितान्तनिर्मलस्वान्तः करुणार्द्र पुरुष मानवशिरोमणि होता है। यह जीवनमात्र के कष्ट का हरण करने वाला तथा समस्त जीवन का त्राता एवं सुखदाता हो जाता है। जीवन-वेलि को प्रेम-रसामृत से सींचकर उसे पुष्पित और पल्लवित करना जीवन का प्रधान उद्देश्य एवं प्रयोजन है। लघु बिन्दु से अपार सिन्धु हो जाना मानो-जीवन की सार्थकता है.
A Critical and Exegetical Commentary on the Epistles to the Ephesians and
to the Colossians (Abbott)
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A Critical and Exegetical Commentary on the Epistles to the Ephesians and
to the Colossians (International Critical Commentary volume; New York: C.
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2 days ago
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