किसी जमाने की बात है। एक आदमी था। उसका नाम था सूर्यनारायण। वह स्वयं तो देवलोक में रहता था, किंतु उसकी मां और स्त्री इसी लोक में रहती थीं। सूर्यनारापयण सवा मन कंचन इन दोनों को देता था और सवा मन सारी प्रजा को। प्रजा चैन से दिन काट रही थी, किंतु मां-बहू के दिन बड़ी मुश्किल से गुजर रहे थे। दोनों दिनोंदिन सूखती जा रही थीं।
एक दिन बहू ने अपनी सास से कहा, “सासूजी, और लोग तो आराम से रहते हैं, पर हम भूखों मरे जा रहे हैं। अपने बेटे से जाकर कहो न, वे कुछ करें।”
बुढ़िया को बहू की बात जंच गई। वह लाठी टेकती-टेकती देवलोक पहुंची। सूर्यनारायण दरबार में बैठे हुए थे। द्वारपाल ने जाकर उन्हें खबर दी, “महाराज! आपकी माताजी आई हैं।”
सूर्यनारायण ने पूछा “कैसे हाल हैं ?”
द्वारपाल ने कहा, “महाराज ! हाल तो कुछ अच्छे नहीं हैं। फटे-पुराने, मैले-कुचैले कपड़े पहने हैं। साथ में न कोई नौकर है, न चाकर।”
सूर्यनारायण ने हुक्म दिया, “आओ, बाग में ठहरा दो।”
ऐसा ही किया गया। सूर्यनारायण काम-काज से निबटकर मां के पास गये, पूछा, “कहो मां, कैसे आईं?”
बुढ़िया बोली, “बेटा, तू सारे जग को पालता है। मगर हम भूखों मरती है !”
सूर्यनारायण को बड़ा अचरज हुआ। उसने पूछा, “क्यों मां ! भूखों क्यों मरती हो ? जितनी कंचन तुम को देता हूं, उतना बाकी की दुनिया का देता हूं। दुनिया तो उतने कंचन में चैन कर रही है। तुम उसका आखिर करती क्या हो?”
बुढ़िया बाली, “बेटा ! हम कंचन को हांडी में उबाल लेती हैं। फिर वह उबला हुआ पानी पी लेती हैं।˝
सूर्यनारायण हंसते हुए बाला, “मेरी भोली मां ! कंचन कहीं उबालकर पीने की चीज है ! इसे तुम बाजार में बेचकर बदले में अपनी मनचाही चीजें ले आया करो। तुम्हारा सारा द:ख दूर हो जायगा।˝
बुढ़िया खुश होती हुई वापस लौटी। इस बीच बहू शहद की मक्खी बकर देवलोक में आ गई थी। उसने मां-बेटे की सारी बातचीत सुन ली थी। चर्चा खत्म होने पर वह बुढ़िया से पहले ही घर पहुंच गई और सूर्यनारायण ने जैसा कहा था, कंचन को बाजार में बेचकर घी-शक्कर, आटा-दाल सब ले आई। बुढ़िया जब लाठी टेकती-टेकती वापस आयी तो बहू ने भोली बनकर पूछा, ‘सासू जी ! क्या कहा उन्होंने ?”
सास घर के बदले रंग-ढंग देखकर बोली, “जो कुछ कहा था, वह तो तूने पहले ही कर डाला।˝
सास-बहू के दिन आराम से कटने लगे। इनके घर में इतनी बरकत हो गयी कि दानों से लक्ष्मी समेटी नहीं जाती थी। दोनों घबरा गईं। एक दिन बहू ने सास से कहा, “सासूजी, तुम्हारे बेटे ने पहले तो दिया नहीं, अब दिया तो इतना कि संभाला ही नहीं जाता, उनके पास फिर जाओ, वे ही कुछ तरकीब बतायेंगे।˝
बुढ़िया बहू के कहने से फिर चली। इस बार बुढ़िया ने नौकर-चाकर, लाव-लश्कर साथ ले लिया। पालकी में बैठकर ठाठ से चली। बहू शहद की मक्खी बनकर पहले ही वहां पहुंच गई।
बुढ़िया के पहंचने पर द्वारपाल ने सूर्यनारायण को खबर दी, “महाराज ! आपकी मां आई हैं।˝
सूर्यनारायण ने पूछा, “कैसे हाल आई हैं?”
द्वारपाल ने कहा, “महाराज ! बड़े ठाठ-बाठ से। नौकर-चाकर, लाव-लश्कर सभी साथ हैं।˝
सूर्यनारायण ने कहा, “महल में ठहरा दो।˝
बुढ़िया को महल में ठहरा दिया गया।
काम-काज से निबटकर सूर्यनारायण महल में आया। मां से पूछा, “कहो मां ! अभी भी पूरा नहीं पड़ता ?˝
मां बोली, “नहीं बेटा ! अब तो तूने इतना दे दिया कि उसे संभालना मुश्किल हो गया है। हम तंग आ गईं हैं। अब हमें बता कि हम उस धन का क्या करें?”
सूर्यनारायण ने हंसते हुए कहा, “मेरी भोली मां ! यह तो बड़ी आसान बात है। खाते-खरचते जो बचे, उससे धर्म-पुण्य करो, कुंए-बावड़ी खुदवाओ। परोपकार के ऐसे बहुत-से काम हैं।˝
शहद की मक्खी बनी बहू पहले ही मौहूद थी। उसने सब सुन लिया और फौरन घर लौटकर सदाव्रत बिठा दिया। कुआ, बावड़ी, धर्मशाला आदि का काम शुरू कर दिया। बुढ़िया जब लौटी तो उसने भोली बनकर पूछा, “उन्होंने क्या कहा, सासूजी?”
बुढ़िया ने घर के बदले रंग-ढंग देखकर कहा, “बहू जो कुछ उसने कहा था, वह तो तूने पहले ही कर डाला।˝
इसी तरह कई दिन बीत गये। एक दिन सूर्यनाराया को अपने घर की सुधि आई। उसने सोचा कि चलें, देखें तो सही कि दोनों के क्या हाल-चाल हैं। इधर मां कई दिनों से आई नहीं। यह सोच सूर्यनारायण साधु का रूप धर कर आया। आते ही इनके दावाजे पर आवाज लगाई, “अलख निरंजन। आवाज सुनते ही बुढ़िया मुटठी में आटा लेकर साधु को देने आई। साधु ने कहा, “माई ! मैं आटा नहीं लेता। मैं तो आज तेरे यहां ही भोजन करूंगा। तेरी इच्छा हो तो भोजन करा दे, नहीं तो मैं शाप देता हूं।˝
शाप का नाम सुनते ही बुढ़िया ने गिड़गिड़ाकर कहा, “नहीं-नहीं, बाबा ! शाप मत दो। मैं भोजन कराऊंगी।”
साधु नेकहा, “माई, हमारी एक शर्त ओर सुन लो। हम तुम्हारी बहू के हाथ का ही भोजन करेंगे।”
बहू ने छत्तीस तरह के पकवान, बत्तीस तरह की चटनी बनाइ। बुढ़िया साधु को बुलाने गई। साधु ने कहा, “माई ! हम तो उसी पाट पर बैठेंगे, जिस पर तेरा बेटा बैठता था; उसी थाली में खायेंगे, जिसमें तेरा बेटा खाता था। जबतक हम भोजन करेंगे तब तक तेरी बहू को पंखा झलना पड़ेगा। तेरी इच्छा हो तो बोल, नहीं तो मैं शाप देता हूं।”
बुढ़िया शाप के नाम से कांपने लगी। उसने कहा, “ठहरो ! मैं बहू से पूछ लूं।”
बहू से सास ने पूछा तो वह बोली, “मैं कया जानूं? जैस तुम कहो, वैसा करने को तैयार हूं।”
बुढ़िया बोली, “बेटी ! बड़ा अड़ियल साधु है। पर अब क्या करें ?”
आखिर सूर्यनारायण जिस पाट पर बैठता था, वह पाट बिछाया गया, उसकी खानें की थाली में भोजन परोसा गया। बहू सामने पंखा झलने बैठी। तब साधु महाराज ने भोजन किया।
बुढ़िया ने सोचा-चलो, अब महाराज से पीछा छूटा। मगर महाराज तो बड़े विचित्र निकले ! भोजन करने के बाद बोले, “माई ! हम तो यहीं सोयंगे और उस पलंग पर जिस पर तेरा बेटा सोता था। और देख, तेरी बहू को हमारे पैर दबाने होंगे। तेरी राजी हो तो बोल, नहीं तो मैं शाप देता हूं।”
बुढ़िया बड़ी घबराई। बहू से फिर सलाह लेने गई। बहू ने कह दिया, मैं क्या जानूं। तुम जानो।”
साधु ने देरी होती देखी तो कहा, “अच्छा माई, चल दिये।”
बुढ़िया हाथ जोड़कर बोली, “नहीं-नहीं, महाराज। आप जाइए मत। आप जैसा कहेंगे वैसा ही होगा। बड़ी मुश्किल से हमारे दिन बदले हैं। शाप मत दीजिए।”
सूर्यनारायण जिस पलंग पर सोता था; पलंग बिछाया गया। साधु महाराज ने शयन किया। बहू उनके पैर दबाने लगी। तभी छ: महीने की रात हो गई। सारी दुनिया त्राहि-त्राहि करने लगी।
अब बुढ़िया समझी कि यह तो मेरा ही बेटा है। उसने कहा, “बेटा ! कभी तो आया ही नहीं और आया तो यों अपने को छिपाकर क्यों आया ? जा, अपना काम-काज संभाल। दुनिया में हा-हाकार मचा हुआ है।”
सूर्यनारायण वापस देवलोक लौट गया। इधर सूर्यनारायण की पत्नी ने नौ महीने बाद एक सुन्दर तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। वह बालक दिनोंदिन बड़ा होने लगा।
एक दिन वह अपने दोस्तों के साथ गुल्ली-डंडा खेल रहा था। खेल-ही-खेल में उसने दूसरे लड़कों की तरह बाप की सौगंध खाई। उसके साथी उसे चिढ़ाने लगे, “तेरे बाप है कहां? तूने कभी उन्हें देखा है? तू बिना बाप का है?”
लड़का रोता-रोता अपनी दादी के पास आया, बोला, “मां ! मुझे बता कि मेरे पिताजी कहां है। ? ”
बुढ़िया ने सूर्यनारायण की ओर उंगली से संकेत कर कहा, “वे रहे बेटा। तरे पिता को तो सारी दुनिया जानती है।”
बालक ने मचलते हुए कहा, “नहीं मां ! सचमुच के पिता बता।”
बालक ने जिद ठान ली। बुढ़िया उसे लेकर देवलोक चली। नौकर-चाकर साथ में लेकर पालकी में सवार होकर वहां पहुंचे। महलमें ठहराये गए। सूर्यनारायण काम-काज से निबटकर महल में आये। बुढ़िया ने उनकी ओर संकेत कर कहा, “ये हैं तेरे पिता”
सूर्यनारायण ने बालक को गोदी में लेकर प्यार किया। बालक का रोना बंद हो गया।
उस दिन से वे सब चैन से रहने लगे। □
A Memoir of the Very Rev. Theobald Mathew; With an Account of the Rise and
Progress of Temperance in Ireland (Birmingham)
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A Memoir of the Very Rev. Theobald Mathew; With an Account of the Rise and
Progress of Temperance in Ireland (with Morris's "The Evil Effects of
Drunkennes...
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