पहाड़ की चोटी पर, खेतों की मेड़ों पर, एक पीला फूल होता है। लोग उसे ‘फयूंली’ कहते हैं।
कहीं एक घना जंगल था। उस जंगल में एक ताल था और उस ताल के पास नरी-जैसी एक वन-कन्या रहती थी। उसका नाम था फयूंली।
कोसों तक वहां आदमी का नाम न था। वह अकेली थी, बस उसके पास वनके जीव-जन्तु और पक्षी रहते थे। वे उसके भाई-बहन थे-बस प्यार से पाले-पोसे हुए। यही उसका कुटुम्ब था। वह उन सबकी अपनी-जैसी थी। हिरनी उसके गीतों में अपने को भूल जाती थी। फूल उसे घेरकर हंसते थे, हरी-भरी दूब उसके पैरों के नीचे बिछ जाती और भोर के पंछी उसे जगाने को चहचहा उठते थे। वहउनसबकी प्यारी थी।
वह बहुत खुश थी। सुन्दर भी थी। उसके चेहरे पर चांद उतर आया था। उसके गालों में गुलाब खिले थे। उसके बालों पर घटाएं घिरी थीं। ताल के पानी की तरह उसकी जवानी भरती जा रही थी। उस रूप को न किसी ने आंखों से देखा था, न हाथों से छुआ था।
उस धरती पर कभी आदमी की काली छाया न पड़ी थी। पाप के हाथों ने कभी फूलों की पवित्रता को मैला न किया था। इसीलिए जिन्दगी में कहीं लोभ न था, शोक न था। सब ओर शांति और पवित्रता थी। फयूंली निडर होरक वनों में घूमती, कुंजों में पेड़ों के नये पत्ते बिछाकर लेटती, लेटकर पंछियों के सुर में अपना सुर मिलाती, फिर फूलों की माला बनाती और नदियों की कल-कल के साथ नाचने लगती। थी तो अकेली, पर उसकी जिन्दगी अकेली न थी।
एक दिन वह यों ही बैठी थी। पास ही झरझर करता एक पहाड़ी झरना बह रहा था वहां एक बड़े पत्थर का सहारा लिए वह जलमें पैर डाले एक हिरन के बच्चे को दुलार रही थी। आंखें पानी की उठती तरंगों पर लगी थीं, पर मन न जाने किस मनसूबे पर चांदनी-सा मुस्करा रहा था। तभी किसी के आने की आहट हुई। हिरनका बच्चा डर से चौंका। फयूली नेमुड़कर देखा तो एक राजकुमार खड़ा था। कमलके फल जैसा कोमल और हिमालय की बरफ जैसा गोरा। फयूंली ने आज तक किसी आदमी को नहीं देखा था। उसे देखकर वह चांद-सी शरमा गई, फूल-सी कुम्हला गई। राजकुमार प्यासा था। मन उसका पानी में था, पर फयूली को देखते ही वह पानी पीला भूल गया। फयूंली अलग सरक गयी। राजकुमार ने अंजुलि बनायी और पानी पीने लगा। पानी पिया तो फयूंली ने राजकुमार से पूछा, “शिकार करने आये हो ?”
राजकुमार ने कहा, “हां।”
फयूंली बोली, “तो आप चले जाइये। यह मेरा आश्रम है। यहां सब जीव-जन्तु मेरे भाई-बहन हैं। यहां कोई किसी को नहीं मारता। सब एक-दूसरे को प्यार से गले लगाते हैं।”
राजकुमार हंसा। बोला, “मैं भी नहीं मारूंगा। यहां खेल-खेल में चला आया था। खैर, न शिकार मिला, न अब शिकार करने की इच्छा है। इतनी दूर भटक गया हूं कि.....”
इतना कहकर राजकुमार चुप हो गया। फिर कुछ समय के लिए कोई कोई किसी से नहीं बोला। फयूंली ने आंखों की कोर से उसे फिर एक बार देखा। वह सोच न पाई कि आगे उससे क्या कहे, क्या पूछे, पर न जाने वह क्यों उसे अच्छा लगा।
यों ही उसके मुख से निकल पड़ा, “आप थके हैं। आराम कर लीजिये।”
राजकुमार एक पत्थर के ऊपर बैठ गया। संध्या हाने लगी थी। आसमान लाल हुआ। वन में लौटते हुए पश-पक्षियों का कोलाहल गूंज उठा। देखते-ही-देखते फयूली के सामने कंद-मूल और जंगली फलों का ढेर लग गया। यह रोज की ही बात थी। रोज ही तो वन के पशु-पक्षी-उसके वे भाई-बहन-उसके लिए फल-फूल लेकर आते थे। वह उन सबकी रानी जो थी।
राजकुमार ने यह देखा तो बाला, “वनदेवी, तुम धन्य हो! कितना सुख है यहां ! कितना अपनापन है ! काश, मैं यहां रह पाता !”
फयूंली ने टोका, “बड़ों के मुंह से छोटी बातें शोभा नहीं देतीं। तुम यहां रहकर क्या करोगे ? राजकुमार को वनों से कया लेना-देना। उन्हें तो अपनेमहल चाहिए, बड़े-बड़े शहर चाहिए, जहां उन्हें राज करना होता है।”
राजकुमारने कहा, “जंगल में ही मंगल है, तुम भी तो राज ही कर रही हो यहां।”
फयूंली मुस्करा उठी। बोली, “नहीं।”
अंधेरा हो चुका था। फयूंली ने राजकुमार का फूलों से अभिनन्दन किया ओर फिर वह अपनी गुफा में चली गई। राजकुमार भी पेड़ के नीचे लेट गया।
सांझ का अस्त होता सूरज फिर सुबह को पहाड़ की चोटी पर आ झांका। राजकुमार जागा तो उसे घर का ख्याल आया। वह उदास हा उठा। फयूंली उसके प्राणों में खिलनेको आकुल हो उठी। अब उसका जाने का जी नहीं कर रहा था। सुबह कलेवा लेकर फयूंली आई तो राजकुमार मन की बात न रोक सका, बाला, “एक बात कहना चाहता हूं। सुनोगी ?”
फयूंली ने पूछा, “क्या ?”
राजकुमार कुछ झिझका, पर हिम्मत करके बोला, “मेरे साथ चलोगी ? मैं तुम्हें राजरानी बनाकर पूजूंगा।”
फयूंली ने कहा, “नहीं, रानी बनकर मैं क्या करूंगी।”
राजकुमार ने कहा, “मैं तुम्हें प्यार करता हूं। तुम्हारे बिना जी नहीं कसता।”
फयूंली ने जवाब दिया, “पर वहां यह वन, ये पेड़, ये फूल, ये नदियां और ये पक्षी नहीं होंगे।”
राजकुमार ने कहा, “वहां इससे भी अच्छी-अच्छी चीजें हैं। मेरे राजमहल में हर तरह से सुख से रहोगी। यहां वन में क्या रखा है !”
फयूंली ने कहा, “आदमी ने अपने लिए एक बनावटी जिन्दगी बना रखी है। उसे मैं सुख नहीं मानती।”
राजकुमार इसका क्या जवाब देता ! फयूंली ने सोचा-इतनी सुंदरता, इतना प्यार, सचमुच मुझे आदमियों के बीच कहां मिलेगा ? आदमी एक-दूसरे को सुखी बनाने के लिए संगठित जरूर हुआ है, पर वही सहंगठन उसके दु:खों का कारण भी है। आज मैं अकेली हूं, पर मेरे दिल में डाह नहीं है, कसक नहीं है। पर वहां? वहां इतना खुलापन कहां होगा।
पर उसके भीतर बैठा कोई उससे कुछ और भीकह रहा था। आखिर नारी को सुहाग भी तो चाहिए। यौवन में लालसा हाती ही है।
वह एकदम कांप उठी; पर अंत में उसकी भावना उसे राजकुमार के साथ खींच ले ही गई।उसने राजकुमार की बात मान ली।
फिर क्या था ! वे दोनों उसी दिन चल पड़े। पशु-पक्षी आये। सबने उन्हें विदा दी। उनकी आंखों में आंसू थे।
राजकुमार उसे लेकर अपने राज्य में पहुंचा। दानों बेहद खुश थे। वह अब रानी थी। राजकुमार उसे प्रणों से ज्यादा प्यार करता था। वहां वन से भी ज्यादा सुख था। राजमहल में भला किस बात की कमी हो सकती थी ! खाने के लिए तरह-तरह के भोजन थे, सेवा के लिए दासियां ओर दिल बहलाने कि लिए नर्तकियां। यही नहीं, दिखाने के लिए ऐश्वर्य और जताने के लिए अधिकार था।
दिन बीतते गये। सुबह का सूरज शाम को ढलता रहा। कई दिनों तक उसके भाई-बहन उसे याद करते रहे। पर वही तो गई थी, बाकी जो जहां था, वहीं था। कुछ दिन बाद पंछी पहले की तरह बोलने लगे, फूल फूलने लगे।
पर एक दिन फयूंली को लगा, जैसे उसके जीवन की उमंग खो गई हो।
राजमहल में हीरे ओर मोतियों की चमक जरूर थी, पर न फूलों का-सा भोलापन ,था और न पंछियों की-सी पवित्रता थी। अब राजमहलकी दीवारें जैसे उसकी सांस घोटे दे रही थीं।उसे लगता, जैसे वह वनउसे पुकार रहा है। अब उसके पास उसके भाई-बहन कहां थे? आदमी थे, डाह थी, लोभ था, लालच था। पर वह तो निर्मल प्यार की भूखी थी।
फिर उस जीवन में उसके लिए कोई रस न रहा। वह उदास रहने लगी। उसे एकांत अच्छा लगने लगा। राजकुमार नेउसे खुश करने की लाख कोशिशें कीं, पर उसका कुम्हलाया मन हरा न हो सका। कुछ दिन में उसकी तबीयत खराब हो गई और वह बिस्तर पर जा पड़ी।
थोड़ी ही दिनों में उसका चमकता चेहरा पीला पड़ गया। वह मुरझा गई। किसी पौधे को एक जगह से उखाड़कर दूसरी जगह लगा देने की कोशिश बेकार गई। उसके जीने की अब कोई आशा न रही।
एक दिन उसने राजकुमार से कहा, “मैं अब नहीं जीऊंगी। मेरी एक आखिरी चाह है। पूरी करोगे?”
राजकुमार ने कहा, “जरूर।”
फयूंली ने लम्बी सांस लेते हुए कहा, “कभी अगर शिकार को जाओ तो मेरे वन के उन भाई-बहनों को मत मारना और जब मैं मर जाऊं तो मुझे पहाड़ की उसी चोटी पर गाड़ देना, जहां वे रहते हैं।”
इसके बाद, उसके प्राण पखेरू उड़ गये।
राजकुमार ने उसे उसी पहाड़ की चोटी पर गाड़कर उसकी आखिरी इच्छा पूरी की। वन के पशु-पक्षियों ने-उसके उन भाई-बहनों ने-सुना तो बड़े दु:खी हुए। हवा ने सिसकी भरी, फल गिर गये और लताएं कुम्हला उठीं। राजकुमार मन मसोसकर रह गया।
आदमी ही मरते हैं। धरती सदा अमर है। एक ओर पेड़ सूखता है, दूसरी ओर अंकुर फूटते हैं। इसी का नाम जिन्दगी है। कुछ दिन बाद फिर प्राणों की एक सिसकी सुनाई दी। पहाड़ की चोटी पर, जहां फयूंली गाड़ दी गई थी, वहां पर एक पौधा और उस पर एक सुन्दर-सा फूल उग आया और लोग उसे फयूंली कहने लगे।□
A Memoir of the Very Rev. Theobald Mathew; With an Account of the Rise and
Progress of Temperance in Ireland (Birmingham)
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A Memoir of the Very Rev. Theobald Mathew; With an Account of the Rise and
Progress of Temperance in Ireland (with Morris's "The Evil Effects of
Drunkennes...
12 hours ago
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