चिन्तन की दिशा क्या होनी चाहिए? चिन्तन का प्रमुख उद्देश्य सत्य की खोज होना चाहिए। जीवन की प्रत्येक दिशा में हमें स्वयं सत्य की खोज करनी चाहिए तथा यह निश्चय करने का प्रत्यन करना चाहिए कि सत्य क्या है और उचित क्या है तथा मिथ्या क्या है और अनुचित क्या है। हमारी कथनी और करनी में कितना सत्य होगा, यह महत्वपूर्ण है किन्तु सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तो सत्य को जानना और स्वीकार करना है। पवित्र ग्रन्थों में क्या उल्लेख है, विद्वानों ने क्या कहा है, अथवा पुस्तकों में क्या लिखा है उसे आदर देना चाहिए किन्तु उसे ज्यों-का-त्यों स्वीकार करके ग्रहण कर लेना हमारे आन्तरिक विकास को रोक देगा तथा हम उसे कदापि अपना नहीं कह सकते। अपने चिन्तन और अनुभव की कसौटी पर खरा सिद्ध होने पर ही हम उसे अपना कह सकते । अपने चिन्तन और अनुभव की कसौटी पर खरा सिद्ध होने पर ही हम उसे अपना कह सकते हैं। यह आवश्यक नहीं है कि हम किसी पवित्र ग्रन्थ, पुस्तक अथवा विद्वान् के समग्र कथन को स्वीकार कर लें। हम उसका तिरस्कार न करें किन्तु केवल उतना ही अंश ग्रहण करें जितने से हमारी बौद्धिक सहमति होती रहै।
हमारी बुद्धि की निष्क्रियता होने पर थोपे हुए 'ज्ञान' की मौन स्वीकृति का आधार स्थिर और दृढ़ नहीं हो सकता। ज्ञान के ग्रहण में बौद्धिक सचेष्टता एवं सक्रियता होना मानवीय प्रतिष्ठा के अनुरूप है। समस्त प्रतिपादित ज्ञान, भूले ही वह महान् ग्रन्थों मे सन्निहित हो अथवा महापुरुषों द्वारा कथित हो, सत्य होना आवश्यक नहीं है। यदि किसी महापुरुष ने सत्य का संदर्शन किया है तो वह आदरणीय है किन्तु सत्य किसीका एकाधिकार नहीं हो सकता तता सत्य के निर्णय एवं संदर्शन का मार्ग सभी के लिए समान रूप से खुला हुआ है। पवित्रता की आड़ मे सत्य को आलोचना से परे छिपाकर रखनेवाले अन्धानुयायी मानवता के घोर शत्रु होते हैं। सत्य-ग्रहण के सम्बन्ध में भी हम स्वावलम्बी हों। सत्य ही मनुष्यत्व का निर्माण करता है। सत्य श्रेष्ठ प्रकाश होता है जो मनुष्य के विवेक को आलोकित करके उसका जागरण कर देता है।
सत्य का संदर्शन मनुष्यको अकल्पनीय तृप्ति करता है। सत्य का ग्रहण मनुष्य को स्थायी शक्ति प्रदान करता है तथा कभी निर्बल नहीं कर सकता है, भले ही वह प्रारम्भ मे आश्चर्यचकित करके प्रकम्पित कर दे। सत्य मनुष्य को नया उत्साह और नया जीवन प्रदान कर देता है। सत्य श्रेष्ठ प्रकाश है जो मनुष्य को भटकने से बचाता है। बुद्धिमान् मनुष्य को सत्य को ग्रहण और असत्य के त्याग के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए। असत्य भ्रमात्मक होता है तथा मीठे विष की भाँति घातक सिद्ध होता है। सत्य जीवन्त होता है तथा जीवन्तता प्रदान करता है और मिथ्या निष्प्राण होता है तथा मनुष्य को दुर्बल बनाकर भ्रम एवं भय से भर देता है। सत्य को सम्यक् प्रकार से स्वीकार करना ही सत्य के ग्रहण का समारम्भ है। सत्य का विवेकपूर्वक ग्रहण सत्य की गरिमा को प्रतिष्ठित करता है। सत्य को सम्यक् प्रकार से स्वीकार करना ही सत्य के ग्रहण का समारम्भ है। सत्य का विवेकपूर्वक ग्रहण सत्य की गरिमा को प्रतिष्ठित करता है। सत्य का ग्रहण होने पर असत्य मनुष्य के जीवन से इसी प्रकार छूटने लगता है जैसे वसन्त ऋतु मे नई कोपल आने पर पुराने पत्ते सूखकर स्वयं झड़ने लगते हैं। दुराग्रह और अन्धानुकरण सत्य की प्राप्ति में अवरोधक होते हैं। तथा सत्य का अनुसंधाता सदैव ग्रहणशील और विनम्र होता है।
किसी पवित्र ग्रन्थ, किसी प्रख्यात पुस्तक अथवा किसी महापुरुष द्वारा प्रदत्त ज्ञान-सामग्री को विचार एवं अनुभव की कसौटी पर कसने के हेतु सत्य के अन्वेषक के लिए विस्तृत स्वाध्याय एवं चिन्तन करना आवश्यक होता है। मनुष्य गहन स्वाध्याय एवं विचार-मन्थन द्वारा ज्ञान-सामग्री का तुलनात्म अध्ययन करके ही सत्य का अनुसंधान कर सकता है। सत्य कल्याणकारी होता है तथा सत्य का ग्रहण मानव के जीवन को उदात्त बना देता है।
विविध धर्मों का उद्धेषित उद्देश्य जीवन को उदात्त बनाना अथवा जनकल्याण करना है किन्तु सत्य का अन्वेषक धर्म को भी विचारहीन होकर स्वीकार नहीं करता तथा वह धर्म को भी विचारहीन होकर स्वीकार नहीं करता तथा वह धर्म को भी विचारहीन होकर स्वीकार नहीं करता तथा वह धर्म के उन अंशों को ही स्वीकार करता है जो सत्य एवं अनुभव की कसौटी पर खरे उतरते हैं। वस्तुतः धर्मां का उदय भी सत्य के अन्वेष्ण एवं पोषण के लिए ही हुआ तथा कोई सत्य-विरोधी तत्त्व कदापि मान्य नहीं हो सकता है। सत्य की उपासना मानव का परम धर्म से परे कुछ नहीं है।
धर्म की आड़ में धर्मान्धता, संकीर्णता, घृणा, विद्वेष, अन्याय, अत्याचार, शोषण, उत्पीड़न, कट्टरता और हिंसा के ताण्डेव ने तथा भीषण युद्धों ने धर्मां के वर्तमान स्वरूप की उपादेयता पर एक विशाल प्रश्नचिह्न लगा दिया है। वास्तव में सभी धर्मों का सर्वमान्य मूल तत्त्व एक ही है-ईश्वर का चिनतन करना तथा उससे प्रेरित होकर मानवमात्र का ही नहीं, बल्कि जीवनमात्र का कल्याण करना , प्रेम, परोपकार और सेवा मे रत रहना। किन्तु आध्यात्मिक साम्प्रदायिकता के दायरे खींचना, अपने धर्म एवं सम्प्रदाय को श्रेष्ठ एवं विशेष मानकर उनकी पहचान के लिए अलगाव एवं बँटवारे की दीवारें खड़ी करना, बहशी मारकाट के द्वारा इंसानियत के स्थान पर हैवानियत को लादना, अन्य मतावलम्बियों को आतंकित करना निश्चय ही धर्म की विकृति है। जब धर्मगुरु आध्यात्मिकता तथा प्रेम, परोपकार और सेवा को छोड़कर, राजनीति के क्षेत्र में घुसकर तथा सत्ता की राजनीति में फँसकर घृणा और हिंसा का पाठ सिखाते हैं, वे धर्म को खतरे मे दिखाकर और श्रद्धालु अनुयायियों को भटकाकर जन-समाज का अहित करते हैं। धर्म सम्प्रदाय नहीं होता तथा सम्प्रदावाद में फँसकर धर्म विकृत हो जाता है। धर्म मनुष्य को सत्य की साधना में लगाता है तथा आचरण में प्रकट होता है।
अनेक धर्मगुरु धर्मस्थलों को शैतानी के अड्डे बनाकर तथा धर्म के अर्थ का अनर्थ करके अपने अनुयायियों को धर्म के उद्देश्य से भटका देते हैं। जिस धर्म, ग्रन्थ, गुरु और सन्त का उपदेश सत्य का प्रेरक न हो, सत्य पर टिका हुआ न हो तथा संकीर्णता, स्वार्थ, अन्धविश्वास, भय, शोषण और उत्पीडन को प्रोत्साहित करता हो, वह त्याज्य है। जो उपदेश सारे समाज के हित में नहीं है तथा और संकीर्णता, अलगाव, और तोड़फोड़ को प्रोत्साहित करता है, वह व्यक्ति के हित में भी नहीं हो सकता। धर्म व्यक्ति को आन्तरिक आनन्द देता है तथा स्वार्थ से परमार्थ की ओर प्रवृत्त करके समाज को जोड़ता है। धर्म मनुष्य को पशु-स्तर से ऊँचे उठाकर करके समाज को जोड़ता है। धर्म मनुष्य को पशु-स्तर से ऊँचे उठाकर आध्यात्मिक स्तर तक अथवा अंधकार से आलोक तक ले जाता है। धर्म कोटि-कोटि दीन, दुखी, निराश, शोकनिमग्न, वृद्ध, रुग्ण और असहाय लोगों के जीवन का सहारा बनकर, सन्तोष, शान्ति संबल, साहस और धैर्य प्रदान करता है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन के कुछ अन्तराल(गैप) होते हैं जिनका समाधान केवल धर्म द्वारा ही होता है।
धर्म व्यक्तित्व को टूटने और बिखरने से बचा देता है तथा मानव-कल्याण का महान् साधन होता है। धर्म मनुष्य का श्रेष्ठ मित्र है किन्तु सत्य का उपासक धर्म के विषय में भी सावधान रहता है, समझ-समझ-कर धर्मानुसरण करता है तथा धर्म के विकृत स्वरूप को विवेकपूर्वक त्याग देता है।
धर्म के क्षेत्र में श्रद्धा का विशेष महत्त्व है। श्रद्धा का अर्थ है सत्य एवं सत्यनिष्ठ पुरुषों के प्रति आदरभाव होना। श्रद्धा मनुष्य को सत्य के अपनाने के लिए ग्रहणशील बना देती है, किन्तु विकृत होने पर अन्धविश्वास और आडम्बर का रूप लेकर व्यक्ति तथा समाज के पतनकारक हो जाती है। मनुष्य को विवेक द्वारा सत्य और असत्य तथा उचित और अनुचित का निर्णय पग-पग पर रखना चाहिए। तथा अपने भीतर निरन्तर जागरण की अवस्था बनाए रखना चाहिए। जब धर्म बौद्धिकता एवं विचार-शक्ति को कुण्ठित करने लगात है, वह भयाकन हो जाता है।
The Colonial Policy of Great Britain, Considered With Relation to Her North
American Provinces, and West India Posessions (British traveller)
-
The Colonial Policy of Great Britain, Considered With Relation to Her North
American Provinces, and West India Posessions (London: Printed for Baldwin,
Cra...
10 hours ago
No comments:
Post a Comment