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Thursday, February 19, 2015

आनन्दमय जीवन by शिवानन्द (5)


ध्यान का प्रथम चरण मौन है। ध्यान के परिप्रेक्ष्य् में मौन का अर्थ केवल वाणी का मौन ही नहीं है बल्कि बाहर से मन को हटाकर भीतर अपने विचारों और भावों का तटस्थ दर्शन करना भी है। आधुनिक युग में खाद्य-पदार्थों के प्रदूषण के अतिरिक्त वायु प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण मानव के लिए अभिशाप बन गए हैं। सड़कों पर कार आदि वाहनों के हार्न तथा स्थान-स्थान पर ध्वनि विस्तार (लाउडस्पीकर) का प्रयोग वातावरण को अनावश्यक शोर से भर देता है। मनोवैज्ञानिक ध्वनि प्रदूषण के बढते हुए खतरों से हमें सावधान कर रहे हैं। ध्वनि विस्तारकों के अति प्रयोग के कारण अनेक धर्रमस्थल भी अशान्ति स्थल हो गए हैं। वैज्ञानिक हमें ध्वनि प्रदूषण के दुष्परिणामों के प्रति सचेत कर रहे हैं। तीव्र रक्त धमनियों को कठोर और संकरा बना देती है तथा स्नायविक विकार उत्पन्न करती है। ध्वनि प्रदूषण का कुप्रभाव यकृत और पाचन क्रिया पर भी पड़ता है। तीव्र धवनि शोर से कार्यक्षमता तथा एकाग्रता भी नष्ट होती है। बाह्यय शोर अथवा शान्ति का मन की अवस्था पर गहन प्रभाव होता है। मानसिक शान्ति की कामना करनेवाल व्यक्ति को प्राय: कुछ समय तक एकान्त में मौन होकर बैठना चाहिए। अनेक महापुरुष सप्ताह में एक दिन मौन का अभ्यास करते हैं। मन पर नियंत्रण रखने के लिए मौन का अभ्यास करना अत्यन्त आवश्यक है।
ध्यान की सहज, सरल और सुगम विधि यह है कि मनुष्य को प्रात: तथा सांय एक शान्त स्थान पर शरीर को ढीला करके संविधाजनक मुद्रा में बीस-पच्चीस मिनिट तक सुखद आसन पर नेत्र मूंदकर सीधा बैठना चाहिए। पैरों को मोड़कर सीधा बैठने से शुद्ध रक्त का प्रवाह मस्तिष्क की ओर अधिक हो जाता है। मन को अन्तर्मुखी करने के लिए नेत्रों का मूंदना आवश्यक होता होता है क्योंकि नेत्रों के खुले रहने से मन बाह्यय जगत् की ओर सहज ही दौड़ता है तथा अन्तर्मुखी नहीं हो सकता है। नेत्र मूंदे हुए ही पहिले मन में यह कामना करनी चाहिए कि प्रत्येक अंग शिथिल हो सकता है। तत्पश्चात् अपने भीतर ही मन को केन्द्रित करके ॐ (अथवा किसी लघु मंत्र) का समान गति से धीरे-धीरे मानसिक उच्चारण करते हुए भीतर ही उसे सुनने का प्रत्यत्न करना चाहिए। ॐ के उच्चारण में लय होना अन्यन्त महत्वपूर्ण होता है। मस्तिष्क के लिए लयपूर्ण मन्द ध्वनि स्वास्थ्यप्रद एंव शान्तिप्रद होती है। ध्यान के समय जब कभी मन उच्चारण (जपत्र् से हटकर विचार में लग जाए, उसे पुन: मानसिक उच्चारण एंव श्रवण में ही लगा देना चाहिए। प्रारम्भ में अनेक बार मन को इधर-उधर दौड़ने से वापिस लाकर ॐ के उच्चारण एंव श्रवण में लगाना होता है, किन्तु धैर्यपूर्वक इसका अभ्यास करते रहने पर कालान्तर में उच्चारण और श्रवण सहज एंव निर्बाध हो जाता है।
प्राय: सभी की शिकायत होती है कि ध्यान के अभ्यास में मन इधर-उधर भागता रहता है तथा स्थिर नहीं होता। वास्तव में ध्यान (मेडीटशन) हमारे अवधान (एटेनशन) की मात्र एकाग्रता (कान्सेंट्रेशन) ही नहीं होता। नेत्र मूंदकर ध्यान में बैठने पर मन, चेतन स्तर पर चचंल रहते हुए भी, अवचेतन स्तर शान्ति की दिशा में अग्रसर हो जाता है। ध्यान के समय जो भी भाव अथवा विचार उभर कर आता है, उसके संबंध में उतेजना का क्षय होने लगता है तथा अनासक्ति का उदय हो जाता है। ध्यान के समय बार-बार मंत्र पर लौटते हुए सूक्ष्म स्तर पर जाते हुए मंत्र और विचार दोनों लुप्त होने लगते हैं। मन की उछलकूद बन्द होने पर मन निश्चल हो जाता है तथा मानों वह बैठने लगता है। स्तब्ध्ता की अवस्था में शरीर भी मन के साथ ही तनावरहित और ढीला होने लगता है ताा परम विश्राम की अवस्था में भीतर शान्ति का मीठा आभास होने लगता है।
पर्याप्त काल तक नित्य-प्रति ध्यान का नियमित अभ्यास करने से चेतन स्तर पर मन को दिव्य शान्ति का अनुभव होने लगता है। ध्यान के काल मे ऐसे अमृतमय क्षण आते हैं ॐ के उच्चारण और श्रवण का सहसा लोप हो जाने पर मनुष्य का निर्विचार मन अनिर्वचनीय आनन्द के सागर में निमग्न हो जाने पर मनुष्य को चैतन्य सता के अमृतमय संस्पर्श की गहन आनन्दनुभूति के अतिरिक्त अन्य कोई बोध नहीं होता। अमृतमय क्षणों का यह अनुभव मनुष्य को कुण्ठा, निराशा, आक्रोश एंव उतेजना से उन्मुक्त कर देता है तथा मन में सात्विक ओज का संचार हो जाता है। परिणामत: मनुष्य जीवन की संकरी डगर पर डगमगाता नहीं है और साहसपूर्ण सीधा चल सकता है। ध्यान के अभ्यास से कालान्तर में मन को दूषित करनेवाले काम, ईष्या, द्वेष्, घृणा, क्रोध, लोभ, मोह, निराशा, चिन्ता, भ्य इत्यादि विकारों का शमन होने पर मनुष्य सन्तुलित, सम और शान्त हो जाता है तथा चित की एकाग्रता-शक्ति बढ़ जाती है। पुरानी भूलों तथा शोक, हानि और अपमान की दु:खद घटनाओं के क्लेशप्रद संस्कार निष्प्रभाव हो जाते हैं तथा मनुष्य उनका स्मरण होने पर उद्विग्न नहीं होता। उतेजना और भय शान्त हो जाते हैं तथा क्रोध की अग्नि भी शान्त हो जाती है।
ध्यान का अभ्यास करने से मनुष्य को अगणित लाभ होते हैं। ध्यान के अभ्यास द्वारा हाइपोथेलमस ग्रंथि के सक्रिय हो जाने से नाडियों की उतेजना शान्त हो जाती हे तथा पीयूष ग्रंथि (पिट्युटरी ग्रंथि) के सक्रिय हो जाने से नाडियों की कार्यक्षमता बढ जाती है जिससे अनेक रोग दूर हो जाते हैं। ध्यान का अभ्यास मनुष्यकी षबराहट, अकेलानप, भविष्य का भय, चिड़चिड़ापन, व्याकुलता और तनाव को दूर देता है तथा मन शान्त, सम और सन्तुलित हो जाता है। ध्यान का तत्काल फल यह होता है कि मनुष्य देर तक ताजगी का ऐसे ही अनुभव करता है जैसे जल में ड़बकी लगाने से देर तक शीतलता का अनुभव होता है। प्रात: काल ध्यान करने से मानों दिनभर के क्रियाकलापों के लिए तैयार हो जाता है। यथासंभव ध्यान का अभ्यास खालीपेट करना चाहिए। ध्यान का अभ्यास करने पर मनुष्य में आत्म-सुधार एंव आत्म-निर्माण के लिए आन्तरिक उत्साह उत्पन्न हो जाता है।
मौन ध्यान का आवश्यक तथा महत्वपूर्ण पूरक है जिसका अभ्यास ध्यान से पूर्व अथवा कभी-कभी स्वतंत्र रुप से एकान्त में सीधा बैठकर तथा नेत्र मूंदकर कुछ मिनिटों तक करना मन को सन्तुलित, सम और शान्त करने के लिए अत्यन्त सहायक होता है। मौन का एक उद्देश्य अपने विचारों और उद्वेगों का तटस्थ होकर देखना है तथा कभी-कभी आत्मनिरीक्षण द्वारा अपने विचारों, उद्वेगों को समझकर उन्हें दिशा भी देना है। विचारों और उद्वेगों के समाधान द्वारा ही मन का नियन्त्रण भी विचारों से ही हो सकता है। अतएंव मन को सन्तुलित, सम, शान्त तथा सशक्त करने के लिए एकान्त में विचारों को सुलझाना ही युक्तियुक्त है। मनुष्य अपने विचार, स्वभाव, गुण, दोष, सामर्थ्य, क्षमता आदि को भली प्रकार जानकर ही अपने व्यक्तित्व में आवश्यक परिवर्तन ला सकता है। अपने-आप जानना सारे संसार को जान लेने की अपेक्षा आवश्यक एंव उपयोगी है।
अपने मन को नियन्त्रित कर लेना मनुष्य की एक महान् उपलब्धि होती है। मन को नियन्त्रित एंव एकाग्र करने का गुण जीवन के समस्त क्षेत्रों में सफलता प्राप्त करने का सशक्त मन्त्र है। मन क्या है ? वास्तव मे विचारों का निरन्तर प्रवाह ही मन है। प्राय: विचारों का जन्म ज्ञानेन्द्रियों (नेत्र, नासिका, कर्ण, जिह्वा और त्वचा) के साथ संसार के बाह्यय पदाथों का संस्पर्श होने पर मस्तिष्क में होता है। इसके अतिरिक्त मस्तिष्क के अवचेतन स्तर से बुलबुलों अथवा लहरों के स्पर्श नए-नण् विचार उठकर भी चेतन स्तर पर आते रहते है।

आनन्दमय जीवन by शिवानन्द (4)


गहन मानसिक शान्ति प्राप्त करने के लिए ‘ध्यान’ प्रक्रिया का अभ्यास ही श्रेष्ठ है। संसार में प्रगतिशील देशों के सभी ह्रदय-रोग विशेषज्ञ एकमत हैं कि नित्य-प्रति दो बार ध्यान का अभ्यास करना मनुष्य को न कवल मानसिक तनाव से मुक्त करके मस्तिष्क को शान्त एंव सशक्त बनाता है तथा ह्रदय को रोग-मुक्त एंव स्वस्थ कर देता है बल्कि जीवन में एक अनिर्वचनीय रसमयता का संचार भी कर देता है तथा मनुष्य का जीवन उंमग और उल्साह से भर जाता है। ध्यान का अभ्यास करनेवाला मनुष्य अपनी सभी समस्याओं का समाधान करने मे सक्षम हो जाता है। वह कभी उतेजित एंव उद्विग्न नहीं होता तथा कठिन परिस्थितियों के साथ घोर संघर्ष करने के लिए तैयार रहता है। वह दूसरों के साथ व्यवहार करने में झुंझलाता नहीं है तथा ककठिन दायित्व से भी नहीं घबराता है। वह स्वयं को कभी अकेला और असहाय नहीं करता तथा उत्साहपूर्ण रहता है।
विकास क्रम के अन्तर्गत मानव-बुद्धि का प्रादुर्भाव एंव विकास एक जटिल प्रक्रिया से हुआ है। मानव का मस्तिष्क पशुओं की मस्तिष्क की अपेक्षा अधिक बड़ा होता है तिा उसका ढ़ांचा भी भिन्न है। शक्ति होना है। मानव-मस्तिष्क का नेत्रों से विशेष सम्बन्ध होता है तथा उसके क्रियाकलापों का प्रभाव ह्रदय पर तत्काल होता है। भव्य प्राकृतिक दृश्यों, सन्तों एंव प्रियजन का दर्शन, चिन्तन तथा ध्यान मस्तिष्क एंव ह्रदय की संजीवनी होता है।
हमारे देश में ध्यान की अगणित पद्धतियां प्रचलित हैं तथा सभी उपयोगी हैं किन्तु कुछ पद्धतियां अत्यन्त सुगम और सरल हैं सभी का उद्देश्य अपने भीतर जागरण, आत्म-विश्वास एंव दृढ़ता की स्थिति उत्पन्न करना है। यद्यपि ध्यान-प्रक्रिया सीखने के लिए एक कुशल शिक्षक की सहायता लेना लाभकारी हाता तथापि मनुष्य स्वयं भी अभ्यास के द्वारा ध्यान की एक उतम अवस्था प्राप्त कर सकता है। ध्यान-प्रक्रिया का अभ्यास मानव-मस्तिष्क की परमौषधि है तथा इसके परिणाम कल्पनातीत हैं। ध्यान के अभ्यास से मनुष्य की जिजीविषा (जीने की इच्छा जो संकल्प-शक्ति अथवा इच्छा-शक्ति के साथ जुड़ी होती है) का सम्बन्ध अपने भीतर गहरे स्तर पर ऊर्जा क अक्षय एंव अजस्त्र स्त्रोत से हो जाता है जो मनुष्य के सर्वागीण विकास एंव आनन्द का एकमात्र रहस्य हैं। किसी आध्यात्मिक गुरु का समाश्रय प्राप्त करना तो घोर आतप में महान् वट वृक्ष की सुशीतल छाया में बैठने के सदृश होता है। ‘ध्यान’ के महत्व को सभी महान् धर्मों ने अपने-अपने ढंग से स्वीाकर किया है। सारे संसार में ध्यान की अगणित पद्धनियों का प्रचलन होने से ध्यान काक महत्व निर्विवाद है। बौद्ध ग्रन्थों में ध्यान की विपश्यना पद्धति का विस्तृत विवरण है तथा उसके कुशल प्रशिक्षक उसके प्रचार में जुटे हुए हैं। जैन सन्तों द्वारा प्रचारित प्रेक्षाध्यान पद्धति भी अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुई है। यह सुखद आश्चर्य है कि आस्तिक धर्माचार्यों की भांति ही अनेक घोर नास्तिक विद्वान भी अपने-अपने ढंग से ध्यान की उपादेयता को स्वीकार करके उसका उपदेश कर रहे हैं।
ध्यान का अभ्यास मनुष्य के शारीरिक एंव मानसिक स्वास्थ्य के लिए निद्रा की भाति अन्यन्त महत्वपूर्ण एंव आवश्यक है। प्रगाढ निद्रा के सदृश ध्यान के द्वारा मनुष्य सब कुछ भूलकर तथा विचारशून्य होकर विश्राम का लाभ उठाता है। किन्तु वास्तव में ध्यान का अर्थ रिक्तता अथवा शून्यता नहीं है तथा उसका उद्देश्य गहन विश्राम प्राप्त करना भी नहीं है बल्कि मन की बाहर की ओर दौड़ने की क्रिया को विपरित दिशा में लाकर उसे भीतर ही दिव्य चैतन्यामृत अथवा विचारों के आनन्दमय मूल स्त्रोत से जोड़ना है। मनुष्य का मन अवचेतन स्तर से भी परे शुद्ध चेतना के सागर का संस्पर्श करके जीवन की भव्यता के दर्शन से संतृप्त हो जाता है। ध्यान चित की एकाग्रता भी नहीं है बल्कि बौद्धिक ज्ञत्श्र से परे उसका गहन आन्तरिक चेतना से जुड़ जाना है। ध्यान-प्रक्रिया में मन कुछ समय के लिए सम, स्थिर और सुशान्त हो जाता है जिसकी उपमा वायुरहित स्थान में सम, स्थिर और प्रशान्त से दी गई है। ध्यान-प्रक्रिया में मनुष्य आन्तरिक करता है।

आनन्दमय जीवन by शिवानन्द (3)


परिवर्तन प्रकृति का नियम है। विश्व के कण-कण में प्रतिक्षण निरन्तर परिवर्तन होता रहता है तथा सर्वत्र उत्पति, विकास और विनाश का क्रम अबाध गति से चलता रहता है। मनुष्य के शरीर मे भीतर तो निरन्तर परिर्वतन होता ही रहता है, बाह्यय जगत् में भी परिस्थितियों में परिवर्तन चलता रहता है। यद्यपि परिवर्तन होना प्रकृति का एक अपरिहार्य नियम है, मनुष्य को उतम परिवर्तन में भी मानसिक दबाव का अनुभव होता है। मनुष्य नए अच्छे पद पर, नए अच्छे मकान मे जाते समय अथवा असाधारण सत्कार पाकर प्रसन्न होते हुए भी मानसिक दबाव का अनुभव करता है तथा परिस्थिति के दु:खद परिवर्तन (विफलता, आर्थिक हानि, अपमान, प्रियजन की मृत्यु इत्यादि) होने पर तो भयानक मानसिक दबाव का सामना करता है।
प्राय: असाधारण मानसिक दबाव के कारण होते हैं : अपने विभाग मे उच्चस्थ अधिकारी का रुष्ट हो जाना, मुकदमा होना, अकसमात् धन-हानि होना, अपने पुत्र, पुत्री, मित्र आदि किसी प्रियजन का वियोग होना, किसी घनिष्ठ व्यक्ति की मृत्यु होना, अपने प्रति किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति के व्यवहार मे रुक्षता अथवा कटुता हो जाना, जीविका का साधन न होना, सेवा-निवृति होना, नौकरी छूट जाना, बेसहारा हो जाना, रोगग्रस्त् हो जाना, अपने परिवार में पति-पत्नी, भाई-बहन, भाई-भाई, पिता-पुत्र आदि में परस्पर मनमुटाव महो जाना, प्रेम-प्रसंग का सहसा टूट जाना, आशा भंग होना, विश्वासघात होना, विफलता होना, भविष्य अंधकारमय दीखना, उपेक्षा अथवा अपमान होना, कोईबड़ी भूल अथवा त्रुटि होना इत्यादि। विवेक द्वारा इनका समाधान करना बुद्धि की पराजय है।
आधुनिक युग में निरन्तर अति व्यस्त रहनेवाला मनुष्य परिश्रम और विश्राम का सही सन्तुलन स्थापित न करने के कारण ह्रदयाघात को सहज ही आंमत्रित कर लेता है। परिश्रम करना मनुष्य के स्वास्थ्य, सुख और शान्ति के लिए आवश्यक होता है किन्तु थककर भी परिश्रम करने रहना अपने साथ अन्याय एंव अत्याचार करना है। मनुष्य को थकान होने पर तुरन्तकाम करना बन्द करके शिशिलन, कार्य-परिवर्तन अथवा मनोरंजन द्वारा विश्राम कर लेना चाहिए। कभी-कभी निर्धारित समय के भीतर ही कार्य को निपटाना होता है किन्तु ऐसी स्थिति में भी बीच-बीच में शिशिलन द्वारा विश्राम कर लेना अत्यन्त आशवश्यक होता है। अथक परिश्रम द्वारा पदोन्नति अथवा समृद्धि-प्राप्ति की जल्दबाजी में अगणित युवक ह्रदयघात के शिकार हो जाते हैं। क्षमता से अधिक कार्यभार वहन करते रहना घातक सिद्ध होता है। पशु-पक्षी भी शिशिलन एंव विश्राम करना जानते है। कुते और बिल्ली लम्बी-सी अगंड़ाई लेकर फैलते और सिकुड़ते हुए, गधे मिट्टी में लेटका बार-बार करवट लेते हुए तथा बन्दर नेत्र मूंदकर बैठे हुए मानो मनुष्य को शिशिलन की शिक्षा देते हैं।
कार्य को निपटाते समय बीच-बीच में पांच-सात-मिनट के लिए अल्प निद्रा (झपकी) का अभ्यास होना अत्यन्त लाभकारी होता है। शिशिलन के अभ्यास से मानसिक दबाव, रक्तचाप-वृद्धि इत्यादि से तो मुक्ति मिलती ही है, मनुष्य की कार्य-दक्षता भी बढ़ती है। विश्राम खोयी हुई ऊर्जा को वापिस लाकर मनुष्य का तुरन्त ताजा बना देता है। मनुष्य यह अभ्यास कर सकता है कि जब भी उसे आवश्यकता हो, वह शिशिलन द्वारा लघु-विश्राम करके अपने मस्तिष्क को सचेतन बनाकर शरीर पर पूर्ण नियन्त्रण कर ले। लघु विश्राम की अनेक विधि हैं तथा मनुष्य किसी भी उपयुक्त विधि का अभ्यास कर सकता है। उदाहरणार्थ हम थकान का संकेत होने पर अल्प काल के लिए कात रोककर बैठे हुए ही शरीर को पर्याप्त विश्राम दे सकते हैं। लघु-विश्राम का दूसरा प्रकार यह हो सकता है कि हम कुर्सी अथवा सोफा पर ही सुखद मुद्रा में पीछे सहारा लेते हुए बैठे जायें, नेत्र बन्दकर किसी सुन्दर प्राकृतिक दृश्य की कल्पना द्वारा अपने मन तथा सारे देह में शान्ति-संचार का अनुभव करें और आठ-दस मिनिट बाद धीरे-धीरे नेत्र खोल लें। थकान का अनुभव होते ही किसी भी समय हम ऐसे लघु-विश्राम द्वारा देह में ऊर्जा का संचार तथा मन में शान्ति का अनुभव कर सकते हैं।
नित्य-प्रति शिशिलन प्रक्रिया का प्रात: तथा सांय अभ्यास करने से मनुष्य मानसिक दबाव एंव तनाव से मुक्त रह सकता है।

1. दैनिक अभ्यास के लिए मनुष्य को एक नीरव एंव शान्त स्थान पर नेत्र बन्दकर विश्राम की मुद्रा में बैठना चाहिए तथा लगभग पन्द्रह मिनिट तक प्रत्येक लम्बे श्वास के साथ, श्वास पर ध्यान रखते हुए, एक से दस तक गिनना चाहिए।
2. अथवा नेत्र मूंदकर लेटे पैर से सिर तक सब अंगों को मन से देखते हुए शिशिल करके लगभग पन्द्रह मिनिट तक किसी सुन्दर दृश्य की अथवा किसी महान् सन्त के शान्त स्परुप की कल्पना करनी चाहिए और शान्ति का अनुभव करते हुए, कभी-कभी मन में ही स्वयं से कहना चाहिए, "मैं चिन्ता विमुक्त हो गया हूं, मुझे गहन शान्ति मिल गई है, मैंने शान्ति प्राप्त करेन की विधि जान ली है। "ऐसा करते समय अल्प निद्रा आ सकती है जो मनुष्य को बहुत ताजगी दे सकती है।
3. अथवा पन्द्रह-बीस मिनिट तक शव की भांति निस्स्पन्द लेटकर मन को विचारों से रिक्त करके चारों ओर प्रकाश देखने की कल्पना करते रहना चाहिए तथा यदि अल्प निद्रा आ जाए तो उसका स्वागत करना चाहिए। अल्प निद्रा के उपरान्त धीरे-धीरे नेत्र खोलते हुए और ताजगी का अनुभव करते हुए मनुष्य को कुछ उतम आशाजनक कल्पना करती चाहिए।