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Thursday, February 19, 2015

आनन्दमय जीवन by शिवानन्द (4)


गहन मानसिक शान्ति प्राप्त करने के लिए ‘ध्यान’ प्रक्रिया का अभ्यास ही श्रेष्ठ है। संसार में प्रगतिशील देशों के सभी ह्रदय-रोग विशेषज्ञ एकमत हैं कि नित्य-प्रति दो बार ध्यान का अभ्यास करना मनुष्य को न कवल मानसिक तनाव से मुक्त करके मस्तिष्क को शान्त एंव सशक्त बनाता है तथा ह्रदय को रोग-मुक्त एंव स्वस्थ कर देता है बल्कि जीवन में एक अनिर्वचनीय रसमयता का संचार भी कर देता है तथा मनुष्य का जीवन उंमग और उल्साह से भर जाता है। ध्यान का अभ्यास करनेवाला मनुष्य अपनी सभी समस्याओं का समाधान करने मे सक्षम हो जाता है। वह कभी उतेजित एंव उद्विग्न नहीं होता तथा कठिन परिस्थितियों के साथ घोर संघर्ष करने के लिए तैयार रहता है। वह दूसरों के साथ व्यवहार करने में झुंझलाता नहीं है तथा ककठिन दायित्व से भी नहीं घबराता है। वह स्वयं को कभी अकेला और असहाय नहीं करता तथा उत्साहपूर्ण रहता है।
विकास क्रम के अन्तर्गत मानव-बुद्धि का प्रादुर्भाव एंव विकास एक जटिल प्रक्रिया से हुआ है। मानव का मस्तिष्क पशुओं की मस्तिष्क की अपेक्षा अधिक बड़ा होता है तिा उसका ढ़ांचा भी भिन्न है। शक्ति होना है। मानव-मस्तिष्क का नेत्रों से विशेष सम्बन्ध होता है तथा उसके क्रियाकलापों का प्रभाव ह्रदय पर तत्काल होता है। भव्य प्राकृतिक दृश्यों, सन्तों एंव प्रियजन का दर्शन, चिन्तन तथा ध्यान मस्तिष्क एंव ह्रदय की संजीवनी होता है।
हमारे देश में ध्यान की अगणित पद्धतियां प्रचलित हैं तथा सभी उपयोगी हैं किन्तु कुछ पद्धतियां अत्यन्त सुगम और सरल हैं सभी का उद्देश्य अपने भीतर जागरण, आत्म-विश्वास एंव दृढ़ता की स्थिति उत्पन्न करना है। यद्यपि ध्यान-प्रक्रिया सीखने के लिए एक कुशल शिक्षक की सहायता लेना लाभकारी हाता तथापि मनुष्य स्वयं भी अभ्यास के द्वारा ध्यान की एक उतम अवस्था प्राप्त कर सकता है। ध्यान-प्रक्रिया का अभ्यास मानव-मस्तिष्क की परमौषधि है तथा इसके परिणाम कल्पनातीत हैं। ध्यान के अभ्यास से मनुष्य की जिजीविषा (जीने की इच्छा जो संकल्प-शक्ति अथवा इच्छा-शक्ति के साथ जुड़ी होती है) का सम्बन्ध अपने भीतर गहरे स्तर पर ऊर्जा क अक्षय एंव अजस्त्र स्त्रोत से हो जाता है जो मनुष्य के सर्वागीण विकास एंव आनन्द का एकमात्र रहस्य हैं। किसी आध्यात्मिक गुरु का समाश्रय प्राप्त करना तो घोर आतप में महान् वट वृक्ष की सुशीतल छाया में बैठने के सदृश होता है। ‘ध्यान’ के महत्व को सभी महान् धर्मों ने अपने-अपने ढंग से स्वीाकर किया है। सारे संसार में ध्यान की अगणित पद्धनियों का प्रचलन होने से ध्यान काक महत्व निर्विवाद है। बौद्ध ग्रन्थों में ध्यान की विपश्यना पद्धति का विस्तृत विवरण है तथा उसके कुशल प्रशिक्षक उसके प्रचार में जुटे हुए हैं। जैन सन्तों द्वारा प्रचारित प्रेक्षाध्यान पद्धति भी अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुई है। यह सुखद आश्चर्य है कि आस्तिक धर्माचार्यों की भांति ही अनेक घोर नास्तिक विद्वान भी अपने-अपने ढंग से ध्यान की उपादेयता को स्वीकार करके उसका उपदेश कर रहे हैं।
ध्यान का अभ्यास मनुष्य के शारीरिक एंव मानसिक स्वास्थ्य के लिए निद्रा की भाति अन्यन्त महत्वपूर्ण एंव आवश्यक है। प्रगाढ निद्रा के सदृश ध्यान के द्वारा मनुष्य सब कुछ भूलकर तथा विचारशून्य होकर विश्राम का लाभ उठाता है। किन्तु वास्तव में ध्यान का अर्थ रिक्तता अथवा शून्यता नहीं है तथा उसका उद्देश्य गहन विश्राम प्राप्त करना भी नहीं है बल्कि मन की बाहर की ओर दौड़ने की क्रिया को विपरित दिशा में लाकर उसे भीतर ही दिव्य चैतन्यामृत अथवा विचारों के आनन्दमय मूल स्त्रोत से जोड़ना है। मनुष्य का मन अवचेतन स्तर से भी परे शुद्ध चेतना के सागर का संस्पर्श करके जीवन की भव्यता के दर्शन से संतृप्त हो जाता है। ध्यान चित की एकाग्रता भी नहीं है बल्कि बौद्धिक ज्ञत्श्र से परे उसका गहन आन्तरिक चेतना से जुड़ जाना है। ध्यान-प्रक्रिया में मन कुछ समय के लिए सम, स्थिर और सुशान्त हो जाता है जिसकी उपमा वायुरहित स्थान में सम, स्थिर और प्रशान्त से दी गई है। ध्यान-प्रक्रिया में मनुष्य आन्तरिक करता है।

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