परिवर्तन प्रकृति का नियम है। विश्व के कण-कण में प्रतिक्षण निरन्तर परिवर्तन होता रहता है तथा सर्वत्र उत्पति, विकास और विनाश का क्रम अबाध गति से चलता रहता है। मनुष्य के शरीर मे भीतर तो निरन्तर परिर्वतन होता ही रहता है, बाह्यय जगत् में भी परिस्थितियों में परिवर्तन चलता रहता है। यद्यपि परिवर्तन होना प्रकृति का एक अपरिहार्य नियम है, मनुष्य को उतम परिवर्तन में भी मानसिक दबाव का अनुभव होता है। मनुष्य नए अच्छे पद पर, नए अच्छे मकान मे जाते समय अथवा असाधारण सत्कार पाकर प्रसन्न होते हुए भी मानसिक दबाव का अनुभव करता है तथा परिस्थिति के दु:खद परिवर्तन (विफलता, आर्थिक हानि, अपमान, प्रियजन की मृत्यु इत्यादि) होने पर तो भयानक मानसिक दबाव का सामना करता है।
प्राय: असाधारण मानसिक दबाव के कारण होते हैं : अपने विभाग मे उच्चस्थ अधिकारी का रुष्ट हो जाना, मुकदमा होना, अकसमात् धन-हानि होना, अपने पुत्र, पुत्री, मित्र आदि किसी प्रियजन का वियोग होना, किसी घनिष्ठ व्यक्ति की मृत्यु होना, अपने प्रति किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति के व्यवहार मे रुक्षता अथवा कटुता हो जाना, जीविका का साधन न होना, सेवा-निवृति होना, नौकरी छूट जाना, बेसहारा हो जाना, रोगग्रस्त् हो जाना, अपने परिवार में पति-पत्नी, भाई-बहन, भाई-भाई, पिता-पुत्र आदि में परस्पर मनमुटाव महो जाना, प्रेम-प्रसंग का सहसा टूट जाना, आशा भंग होना, विश्वासघात होना, विफलता होना, भविष्य अंधकारमय दीखना, उपेक्षा अथवा अपमान होना, कोईबड़ी भूल अथवा त्रुटि होना इत्यादि। विवेक द्वारा इनका समाधान करना बुद्धि की पराजय है।
आधुनिक युग में निरन्तर अति व्यस्त रहनेवाला मनुष्य परिश्रम और विश्राम का सही सन्तुलन स्थापित न करने के कारण ह्रदयाघात को सहज ही आंमत्रित कर लेता है। परिश्रम करना मनुष्य के स्वास्थ्य, सुख और शान्ति के लिए आवश्यक होता है किन्तु थककर भी परिश्रम करने रहना अपने साथ अन्याय एंव अत्याचार करना है। मनुष्य को थकान होने पर तुरन्तकाम करना बन्द करके शिशिलन, कार्य-परिवर्तन अथवा मनोरंजन द्वारा विश्राम कर लेना चाहिए। कभी-कभी निर्धारित समय के भीतर ही कार्य को निपटाना होता है किन्तु ऐसी स्थिति में भी बीच-बीच में शिशिलन द्वारा विश्राम कर लेना अत्यन्त आशवश्यक होता है। अथक परिश्रम द्वारा पदोन्नति अथवा समृद्धि-प्राप्ति की जल्दबाजी में अगणित युवक ह्रदयघात के शिकार हो जाते हैं। क्षमता से अधिक कार्यभार वहन करते रहना घातक सिद्ध होता है। पशु-पक्षी भी शिशिलन एंव विश्राम करना जानते है। कुते और बिल्ली लम्बी-सी अगंड़ाई लेकर फैलते और सिकुड़ते हुए, गधे मिट्टी में लेटका बार-बार करवट लेते हुए तथा बन्दर नेत्र मूंदकर बैठे हुए मानो मनुष्य को शिशिलन की शिक्षा देते हैं।
कार्य को निपटाते समय बीच-बीच में पांच-सात-मिनट के लिए अल्प निद्रा (झपकी) का अभ्यास होना अत्यन्त लाभकारी होता है। शिशिलन के अभ्यास से मानसिक दबाव, रक्तचाप-वृद्धि इत्यादि से तो मुक्ति मिलती ही है, मनुष्य की कार्य-दक्षता भी बढ़ती है। विश्राम खोयी हुई ऊर्जा को वापिस लाकर मनुष्य का तुरन्त ताजा बना देता है। मनुष्य यह अभ्यास कर सकता है कि जब भी उसे आवश्यकता हो, वह शिशिलन द्वारा लघु-विश्राम करके अपने मस्तिष्क को सचेतन बनाकर शरीर पर पूर्ण नियन्त्रण कर ले। लघु विश्राम की अनेक विधि हैं तथा मनुष्य किसी भी उपयुक्त विधि का अभ्यास कर सकता है। उदाहरणार्थ हम थकान का संकेत होने पर अल्प काल के लिए कात रोककर बैठे हुए ही शरीर को पर्याप्त विश्राम दे सकते हैं। लघु-विश्राम का दूसरा प्रकार यह हो सकता है कि हम कुर्सी अथवा सोफा पर ही सुखद मुद्रा में पीछे सहारा लेते हुए बैठे जायें, नेत्र बन्दकर किसी सुन्दर प्राकृतिक दृश्य की कल्पना द्वारा अपने मन तथा सारे देह में शान्ति-संचार का अनुभव करें और आठ-दस मिनिट बाद धीरे-धीरे नेत्र खोल लें। थकान का अनुभव होते ही किसी भी समय हम ऐसे लघु-विश्राम द्वारा देह में ऊर्जा का संचार तथा मन में शान्ति का अनुभव कर सकते हैं।
नित्य-प्रति शिशिलन प्रक्रिया का प्रात: तथा सांय अभ्यास करने से मनुष्य मानसिक दबाव एंव तनाव से मुक्त रह सकता है।
1. दैनिक अभ्यास के लिए मनुष्य को एक नीरव एंव शान्त स्थान पर नेत्र बन्दकर विश्राम की मुद्रा में बैठना चाहिए तथा लगभग पन्द्रह मिनिट तक प्रत्येक लम्बे श्वास के साथ, श्वास पर ध्यान रखते हुए, एक से दस तक गिनना चाहिए।
2. अथवा नेत्र मूंदकर लेटे पैर से सिर तक सब अंगों को मन से देखते हुए शिशिल करके लगभग पन्द्रह मिनिट तक किसी सुन्दर दृश्य की अथवा किसी महान् सन्त के शान्त स्परुप की कल्पना करनी चाहिए और शान्ति का अनुभव करते हुए, कभी-कभी मन में ही स्वयं से कहना चाहिए, "मैं चिन्ता विमुक्त हो गया हूं, मुझे गहन शान्ति मिल गई है, मैंने शान्ति प्राप्त करेन की विधि जान ली है। "ऐसा करते समय अल्प निद्रा आ सकती है जो मनुष्य को बहुत ताजगी दे सकती है।
3. अथवा पन्द्रह-बीस मिनिट तक शव की भांति निस्स्पन्द लेटकर मन को विचारों से रिक्त करके चारों ओर प्रकाश देखने की कल्पना करते रहना चाहिए तथा यदि अल्प निद्रा आ जाए तो उसका स्वागत करना चाहिए। अल्प निद्रा के उपरान्त धीरे-धीरे नेत्र खोलते हुए और ताजगी का अनुभव करते हुए मनुष्य को कुछ उतम आशाजनक कल्पना करती चाहिए।
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