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Tuesday, June 16, 2009

आनन्दमय जीवन by शिवानन्द (12)

मनुष्य प्रत्येक क्षण अपने विचार एवं कर्म से अपने भविष्य का निर्माण स्व्यं करता रहता है। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है। वास्तव में मनुष्य के भविष्य का निर्माण निरन्तर होता हा रहता है तथा मनुष्य अपने विचार एवं कर्म द्वारा जाने-अनजाने आगे बढता या पीछे हटता अथवा ऊँचे उठता या नीचे गिरता रहता है। मनुष्य अपने चिन्तन एवं कर्म के सम्बन्ध में निरन्तर सजग रहकर अपने दोषों और दुर्बलताओं एवं कुण्ठाओं और अतृप्त इच्छाओं पर विजय पाते हुए तथा अपने मानसिक दबावों का शमन करते हुए आत्मविजयी, आत्मविश्वासी और आत्मसुखी हो सकता है। मनुष्य का प्रत्येक उत्तम विचार और प्रत्येक उत्तम कर्म उसके व्यक्तितत्व में परिष्कार करता रहता है तथा मनुष्य कालान्तर में वह नहीं रहता जो वह कुछ वर्ष पूर्व था। निरन्तर चलते हुए छोटी-सी चींटी मीलों तक चली जाती है तथा खड़ा हुआ जेट विमान भी एक पाग आगे नहीं बढता। यह आत्म-चिकित्सा है। अब जागा हुआ मनुष्य पहले का सोया हुआ मनुष्य नहीं रहा। मनुष्य को स्वस्थ परिवर्तन का अनुभव स्वयं हो जाता है कि पहले जैसे कष्ट पुनः हो सकेगा। उत्तम चिकित्सा होने पर रोग की पुनरावृत्ति कभी नहीं होती तथा केवल स्मृति शेष रह जाती है। विवेकशील व्यक्ति पुराने कष्टों का स्मरण नहीं करता तथा स्वतः एं प्रयत्न द्वारा अपने भविष्य को उज्जवल एवं आनन्दमय बना सकता है।
मानव-जीवन का अन्तरंग पक्ष है चिन्तन, विचार और स्वभाव तथा उनका बहिरंग पक्ष है वचन और व्यवहार। चिन्तन और विचार से स्वाभाव के दोषों को दूर किया जा सकता है तथा प्रेम, परोपकार, उदारता, क्षमा आदि सद्गुणों की प्रस्थापना हो सकती है। स्वभाव का अर्थ है पुरानी आदतों का समुच्च। स्वभाव के दोष मनुष्य के चिन्तन एवं विचार को आदतों का समुच्चय। स्वभाव के दोष मनुष्य के चिन्तन एवं विचार को ग्रस्त करके सत्य-संगदर्न के मार्ग को अवरुद्ध कर देते हैं, किन्तु चिन्तन एवं विचार से ही संकल्प-बल के सहारे स्वभाव को दोष-मुक्त भी किया जा सकता है। स्वभाव पर विवेक का अंकुश लगाकर उस पर नियंत्रण करना समस्त प्रगति के लिए आवश्यक है।

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