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Tuesday, June 16, 2009

आनन्दमय जीवन by शिवानन्द (29)

विवेकशील पुरुष परिवार एवं पड़ोस के महत्त्व को जानता है तथा वह पारिवारिक एवं समीपवर्ती जन के हितों की उपेक्षा नहीं करता। मनुष्य परिवार और पड़ोस को असन्तुष्ट करके तथा उनसे टकराकर अपनी शान्ति खौ बैठता है। परिवार और पड़ोस के साथ प्रेम, क्षमा, सहनशीलता, सहायता और सहयोग का व्यवहार करने पर मनुष्य के चारों ओर सुमधुर वातावरण उत्पन्न हो जाता है। जो व्यक्ति परिवार और पड़ोस को परेशान करता है, वह स्वयं भी परेशान हो जाता है तथा उसे आत्म-निरीक्षण द्वारा स्वयं में परिवर्तन लाने का प्रयत्न करना चाहिए। स्वयं को सुधारना समाज को सुधारने का प्रथम पग होता है। दूसरों की अकारण आलोचना और निन्दा करना तथा अपने व्यवहार में अहंभआव का प्रदर्शन करना मनुष्य को दूसरों को साथ मिलने नहीं देता तथा उनके दूर कर देता है। वास्तव में यदि दृष्टि दूसरों की बुराई पर होगी तो बुराई के ढेर दिखाई देंगे, किन्तु यदि भलाई पर दृष्टि होगी तो भलाई का सागर उमड़ता मिलेगा। यद्यपि परस्पर सम्बन्धों में उचित दूरी रखना तथा मर्यादा का पालन करना आवश्यक होता है, तथापि दूसरों की भावनाओं को समझकर दूसरों को उचित महत्व देना सम्बन्धों में माधुर्य का समावेश करता है।
परिवार और पड़ोस के साथ मधुर सम्बन्ध रखकर ही मनुष्य जीवन की यात्रा को भली प्रकार सम्पन्न कर सकता है। हम दूसरों को सहयोग दजेकर उनसे सहयोग लेते हैं। मन मं निःस्वार्थ प्रेम एवं सद्भभाव होने पर परस्पर सहयोग का आदान-प्रदान सुगम हो जाता है। हमारे प्रेमपूर्ण एवं पवित्र मन की तरंगें दूसरों के मन को छूकर समान प्रतिक्रिया उत्पन्न कर देती हैं। हम किसी के पास आत्मीयता के भाव से (उसे अपना ही मानकर) जाएँगे तो उस पर हमारी आत्मीयता का प्रभाव पड़ेगा। अपने स्वार्थ एवं शोषण-वृत्ति के कारण हमें दूसरे लोग पराए प्रतीत होते हैं। हमारी स्वार्थ और शोषण-वृत्ति ही दूसरों के मन में हमारे प्रति घृणा उत्पन्न कर देती है। हम जो कुछ देते हैं, वही पाते हैं। कूप में ध्वनि करने पर उसके अनुसार ही प्रतिध्वनि होती है। हम न तो किसी दूसरे पर इतना भार बन जाएँ कि वह हमसे कतराने वगे तथा दूसरों से इतना भी न कट जाएँ कि हम आवश्यकता होने पर भी उनसे कुछ कह न पाऐँ और अपना काम ही बिगाड़ लें। व्यवहार में मर्यादा का पालन होने पर परस्पर टकराहट की सम्भावना नहीं रहती। अपने कर्तव्य-पालन तथा दूसरों के अधिकार की रक्षा करने से मनुष्य सम्मान प्राप्त कर लेता है।
इसके अतिरिक्त हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि मात्र उत्तम भावना होना ही पर्याप्त नहीं है। उत्तम भावना के साथ उत्तम व्यवहार होने पर ही हम दूसरों के मन को जीतकर उन्हें बना सकते हैं।
परिवार में सबका अपना स्थान होता है तथा सभी का अपना महत्त्व होता है। कुछ कार्य ऐसे होते हैं जिन्हें बड़े सिद्ध नहीं कर सकते तथा छोटे सरलता से सिद्ध कर लेते हैं. घर के भीतर छोटा-सा दीपक अन्धकार को दूर कर देता है, सूर्य नहीं। जिस परिवार में बड़ों का सत्कार होता है और छोटों को प्यार मिलता है जहाँ सभी एक-दूसरों के हित में अपने स्वार्थ का त्याग करने और बलिदान करने में सहर्ष तत्पर रहते हैं तथा जहाँ सबके सुख में अपना कुश सन्नहित मानते हैं, वहाँ परिवार एक सशक्त एवं सुखद संगठन हो जाता है तथा वहाँ समृद्धि, सुख और शान्ति का साम्राज्य छा जाता है। परिवार में सभी प्रकार के लोग होते हैं, कुछ विशेष बुद्धिमान होते हैं, कुछ परिश्रमी, कुछ सात्त्विक तथा कुछ अल्पबुद्धि, कुछ आलसी, कुछ राजसिक अथवा तामसिक होते हैं, किन्तु सभी एकता के सूत्र में बँधे रहते हैं तथा किसी एक की संकट की घड़ी में सभी एकजुट होकर उसे पूर्ण सुरक्षा देते हैं। संगठित बड़ा परिवार सुखी परिवार। परिवार और पड़ोस के साथ मधुर सम्बन्ध रखने पर मनुष्य अपने को सुरक्षित अनुभव करता है।
कभी-कभी परिवार में किसी बाहय कुटिल व्यक्ति का प्रवेश तथा प्रभाव हो जाने से परस्पर सन्देह एवं अविश्वसनीयता का वातावरण उत्पन्न हो जाता है तथा उससे परिवार की एकता टूट जाती है। कुटिल व्यक्ति झूठे हितैषी बनकर चुगलखोरी द्वारा तोड़-फोड़ करने में एक विचित्र रस का अनुभव करते हैं। विवेकशील पुरुष सावधान रहकर कुटिल व्यक्तियों को दूर रखते हैं तथा उन्हें अपने पारिवारिक जीवन में प्रभावी नहीं होने देते। वास्तव में उत्तम पुरुषों की संगति और स्वाध्याय मनुष्य का भटकने से बचाकर महान् हित करते हैं तथा अधम मनुष्यों की संगति और निकृष्ट पुस्तकें मनुष्य को भटकाकर विनष्ट कर देती हैं। मनुष्य प्रायः सारे दोष कुसंगति से ही ग्रहण करता है।
परिवार जीवन-यापन की कला सीखने के लिए मनुष्य की सबसे उत्तम पाठशाला है। परिवार में रहकर व्यक्ति अनुशासन, संयम, मर्यादा, न्याय, प्रेम, सेवा, त्याग, क्षमा, सहनशीलता, धैर्य, साहस आदि मानवीय मूल्यों का पाठ सीखता है। परिवार में रहकर ही स्वाभाव को मधुर बनाने का पूर्ण अवसर होता है। स्वभाव मनुष्य को सुखी अथवा दुःखी तथा प्रिय अथवा उपेक्षित बनाने में विशेष उत्तरदायी होता है। चिन्तन, आत्मवलोकन, आत्मविश्लेषण तथा ध्यान आदि के अभ्यास से स्वभाव का उदात्तीकरण हो जाता है। ईर्ष्या-द्वेष मनुष्य के स्वभाव को कटु बना देते हैं। द्वेषी मनुष्य दूसरों को दुखी देखकर सुख का अनुभव करता है किन्तु यह नहीं समझता कि द्वेषाग्नि उसके मन को विषाक्त बनाकर उसे भी उद्धिग्न एवं अशान्त कर देती है। द्वेषी व्यक्ति को सबसे ही शिकायत रहती है तथा वह अशान्ति का प्रसार करता रहता है।
कभी-कभी कोई व्यक्ति किसी बात को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर अपनी हठ पर अड़ जाता है तथा वह न केवल दूसरों को विरोधी बना लेता है बल्कि अपना काम भी बिगाड़ लेता है। जो मनुष्य अहंकारवश अपनी बात रखने के लिए हठ करता है तथा हठ के दुष्परिणाम पर विचार नहीं करता, वह शिक्षित एवं उच्चपदासीन होकर भी अविवेकी ही है।
किसी विषम परिस्थिति में कठोर पग उठाने से पूर्व उसके परिणाम पर धैर्यपूर्वक विचार करना मनुष्य को महान् संकट से बचा देता है। जोश में आकर तथा उतावला होकर सहसा कुछ भी कह देने या करनेवाले मूर्खजन बाद में हाथ मलते हुए पछताते रह जाते हैं। जोश में होश परिणाम को सोचकर ही उचित पग उठाते हैं। विचार न करनेवाला मनुष्य पशु ही है।
भूल होना तो स्वाभाविक किन्तु उससरे मुक्त होने का प्रयास न करना अविवेक है। भूल को स्वीकार करने से आत्म-सुधार की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है तथा जीवन का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। यदि अफनी भूल से किसी को कष्ट पहुँचा हो तो उससे क्षमा माँग लेने से कटुता समाप्त हो जाती है और सद्भाव उत्पन्न हो जाता है। भूल स्वीकार कर लेने से मन निर्मल हो जाता है।
परिवार-विघटन के अनेक कारण होते हैं। कुछ व्यक्ति उन्मुक्त यौन के नाम पर यौनाचार में अतिलिप्त हो जाते हैं तथा कुछ अन्य प्रगतिवाद की आड़ में नाना प्रकार की मादक वस्तुओं का सेवन करने लगते हैं। स्वच्छन्द यौन तथा मदिरा-पान आदि दुर्व्यसनों ने अनेक परिवार-इकाइयों का विघटन एवं विनाश कर दिया। प्रगतिशील देश स्वच्छन्द यौन के दुष्परिणामों से पीडित होकर परम्परागत मानवीय मूल्यों की रक्षा का उपाय कर रहे हैं। हाँ, अनावश्यक संदेह और अविश्वास करना तथा प्रतिबन्ध जीवन में कोई महत्त्वपूर्ण उपलब्धि नहीं कर सकता तथा उच्चतर सुख से वंचित रह जाता है। भटके हुए लोग कुलकलंक होकर परिवार के लिए अभिशाप बन जाते हैं। परिवार में परस्त प्रेम और त्याग की भावना होने पर तथा परिवार का हित सर्वोंपरि होने पर मनुष्य कुपन्थ में भटकने से बच जाता है।
विवेकशील व्यक्ति प्रेमपूर्ण होता है तथा विनाशकारी व्यसनों से दूर रहता है। प्रेम मन को निर्मल कर देता है तथा मनुष्य को सेवाकार्य में प्रवृत्त कर देता है। पारिवारिक जीवन मनुष्य को उदार होना सिखाता है किन्तु यदि कोई व्यक्ति स्वार्थ, संकीर्णता और दुराग्रह से ग्रस्त होकर परिवार मे दिन-रात कलह करके वातावरण को विषाक्त करता हो तो परिवार में दिन-रात कलह का वातावरण को विषाक्त करता हो तो परिवार के हित में उसका परिवार से पृथक होना समुचित होता है। अविवेकी लोग अपने बन्धु-बान्धव को भी वैरी बना लेते हैं। लोकोक्ति है—राड़ से बाड़ भली । गृह में शान्ति होने पर ही परिवार की उन्नति और समृद्धि हो सकती है।
परिवार में वृद्ध जन अनेक बार विचार और अनुभव में परिपक्व होकर भी पुरानी पीढ़ी और नयी पाढी के अन्तराल को समझने के कारण नयी पीढी को बुरा कहकर कोसने लगतचे हैं तथा सामंजस्य स्थापित न होने के कारण परिवार के लिए तथा अपने लिए कष्टकारक हो जाते हैं। कभी-कभी वे यह भी भूल जाते हैं कि वृद्धावस्था में उनका सुख पर्याप्त सीमा तक सन्तान एवं परिवार पर निर्भर होता है तथा वे बच्चों एवं परिवार के साथ मिलकर रहने पर ही अपना सम्मान सुरक्षित रख सकते हैं। अनेक बार वृद्ध जन में सम्मान पान की लालसा उनके कष्ट का कारण बन जाती है। कभी-कभी तो माता-पिता परस्पर लड़कर परिवार में एक विचित्र स्थिति उत्पन्न कर देते हैं और कोई समझदार बच्चा साहस करके कह भी देता है, "गुस्सा नहीं करना चाहिए, सारे घर पर असर पड़ता है। चाहे ठीक बात पर ही गुस्सा किया, जिस पर गुस्सा किया, जिनके सामने किया, सब पर असर पड़ता है।" ऐसे अवसर पर बड़े आदमी को छोटों के विवेक-सम्मत सुझाव को शिरोधार्यकर उसका धन्यवाद करना चाहिए।
परिवार में माता-पिता का सन्तान के साथ पूर्ण सामंजस्य होना परिवार की समृद्धि एवं शान्ति के लिए अन्यन्त आवश्यक होता है। छोटों को पग-पग पर रोकने-टोकने से, बात-बात में उपदेश, आदेश और निर्देश देने से तथा उनकी आलोचना, निन्दा और भर्त्सना करने से उनकी क्षमता, स्वावलम्बन-वृत्ति और उनका आत्मविश्वास आहत हो जाते हैं। छोटों पर अपनी बात लादने अथवा अपना मत थोपने से उनकी विचारशक्ति कुण्ठित होती है। परस्पर स्नेहपूर्ण संवाद द्वारा समझना और समझना तथा परस्पर सहमति और साझेदारी होना परिवार के वातावरण को स्निग्ध बना देता है। वास्तव में बच्चों का भी स्वतंत्र अस्तित्व होता है तथा उचित अवसर पर उनकी सराहना करना महत्त्वपूर्ण होता है। समुचित प्रशंसा आत्माविश्वास को जगा देती है। बड़ों को चाहिए कि वे छोटों को प्रेम और सम्मान दें, उनमें आशा और विश्वास जगाएँ तथा उनमें प्रश् पूछने, काम को सँभालने और आगे बढ़ने का साहस भर दें। उन्हें बात-बात में आदेश देने के बजाए युक्तिपूर्वक प्रेमपूर्ण सुझाव दें जिससे उनका स्वतंत्र व्यक्तित्व विकसीत हो सके। माता-पिता का कर्तव्य है कि वे बच्चों को कठिन परिस्थिति में दृढ रहना तथा धैर्यपूर्वक संघर्ष करना सिखाने में न चूकें। संकटमय परिस्थिति जीवन में चुनौती बनकर आती है किन्तु उसे साहसपूर्वक स्वीकार करके जूझने पर वह आत्मविश्वास बढाने और कीर्ति देने का सुनहला अवसर हो जाता है।


परिवार में बड़ों का कर्तव्य है कि वे छोटों को सफलता-विफलता, लाभ-हानि तथा जय-पराजय से ऊपर उठकर कर्म की प्रेरणा दें। लक्ष्य को स्पष्ट निर्धारित करके उसकी पूर्ति के लिए योजनापूर्वक प्रयत्न करना नितान्त समुचित है किन्तु फल की लालसा अनेक बार कामना और उपलब्धि में अन्तराल होने पर घोर निराशा उत्पन्न कर देती है। लक्ष्य के लिए पुरुषार्थ करते हुए संघर्ष का महत्त्व तथा उसका अफना एक स्थान होता है। यात्रा और लक्ष्य, सफर और मंजिल अथवा संघर्ष और उपलब्धि का अपना-अपना पृथक् महत्त्व होता है। वीर सैनिक कहता है-हमने वीरता से युद्ध किया, हम खूब लड़े। पराक्रम वीरतापूर्वक युद्ध करने में निहित होता है, फल तो ईश्वराधीन होता है। परीक्षा में उत्तीर्ण अथवा अनुत्तीर्ण होने की चिन्ता का त्याग करके परिश्रम करना पर्याप्त होना चाहिए। परीक्षा में वांछित फल ने मिलने पर बच्चों को डाटना उनके साहस को तोड़ देता है। अनुत्तीर्ण अथवा साधारण उत्तीर्ण होने पर उन्हें भविष्य में और अधिक प्रयत्न करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। वास्तव में संघर्ष का महत्त्व लक्ष्य-प्राप्ति से भी कहीं अधिक होता है। बच्चों के हृदय में इस भावना को भर देना चाहिए कि वे संकटकाल में कभी न घबराएँ और साहसपूर्वक उसका सामना करें। आदेश, निर्देश देने और आलोचना करने के बजाए प्रेमपूर्ण सुझाव देना अधिक लाभकारी होता है।
परिवार में प्रेमपूर्ण प्रशंसा का आदान-प्रदान प्रसन्नता का वातावरण उत्पन्न कर देता है तथा व्यवहार की रूक्षता विक्षोभ एवं आक्रोश उत्पन्न कर देती है। मुस्कराकर मृदु और मधुर वाणी बोलने से सब ओर सुख उपजता है। दूसरों को सुख देनेवाली मीठी वाणी बोलना भगवान् की पूजा है। भूल होने पर खेद प्रकट करना, उपकार होने पर धन्यावाद देना तथा मुस्कराकर अभिवादन करना एवं शुभकामना करना न केवल शिष्टाचार है, बल्कि चारों ओर सुख की वर्षा कर देता है। वाणी का प्रभाव अत्यन्त गहन होता है। विवेकशील पुरुष सदैव वाणी में संयत रहता है तथा सँभलकर और सोच-विचारकर अपना मत प्रकट करता है। कुछ लोग भलाई के कार्य करके भी कर्कश वाणी बोलकर न केवल किए हुए कार्य को मिटा देते हैं, बल्कि अकारण ही शत्रुता मोल ले लेते हैं। जिन शब्दों से दूसरों की भावनाओं को ठेस पहुँचती हो, दूसरों को आत्म-सम्मान को चोट लगती हो अथवा दूसरों को आत्मविश्वास को आघात होता हो, उन्हें कदापि नहीं कहना चाहिए। विवेकशील पुरुष परस्पर हास-परिहास और विनोद में भी मर्यादा का स्मरण रखते हैं तथा दूसरों को शूल की भाँति चुभनेवाले शब्द कदापि नहीं कहते। विवेकशील पुरुष समन्वयवादी होता है तथा परिवार में मतभेद होने पर बीच का रास्ता निकालकर कलह को शान्त कर देता है। सरल, विनम्र, मृदभाषी और शालीन व्यक्ति सर्वत्र सम्मान प्राप्त कर लेता है तथा दूसरों पर उसका प्रभाव अत्यन्त गहन होता है। किसी विषय पर चर्चा करते समय जब कुछ व्यक्ति अपनी बात को बड़ा करने के लिए हठ करने लगें तथा एक-दूसरे को नीचा दिखाने लगें, तब कटुता उत्पन्न होने से पूर्व ही उस चर्चा को बन्द करके अन्य विषय पर चर्चा प्रारम्भ कर देनी चाहिए। परिवार में ज्ञानवर्द्धन चर्चा भी यदाकदा अवश्य होनी चाहिए।
यद्यपि समुचित अवसर पर सहज भाव से प्रशंसात्मक शब्द कहना सभी को प्रसन्नता देता है, बच्चों के व्यक्तित्व-निर्माण में प्रशंसा की विशेष आवश्यकता होती है। प्रशंसा करने के उचित अवसर पर बड़ों को उदासीन नहीं रहना चाहिए। शब्दों में कृपण होना अशिष्टता होती है। बच्चे को प्रेरणा देने के लिए उसकी किसी दूसरे बच्चे से तुलना करना वास्तव मे उसे नीचा दिखाकर हतोत्साह करना होता है. हतोत्साह करनेवाले शब्दों से उत्तमता की प्रेरणा देना अविविक है। "आप जितने बड़े हो रहे हैं, उतने ही बुद्धि में गिरते जा रहे हैं। आप निकम्मे हो गए हैं तथा जीवन में कुछ नहीं कर सकते।" पुरानी अप्रिय घटनाओं को कहकर ताने मारने से मन में कटुता आती है तथा परस्पर दूरी हो जाती है। अपरिपक्व होने के कारण बच्चे अपनी बात कहे नहीं पाते किन्तु उनमें भी विचार होते हैं। बात-बात में डाटने और दण्ड देने की धमकी देने से बच्चों में भीतर तीव्र प्रतिक्रिया होती है किन्तु अपने आक्रोश को प्रकट न करने के कारण उनका मन कुण्ठित हो जाता है। विवेकशील माता-पिता बच्चों को पूरी छुट देकर भी उन पर पूरी निगाह रखते हैं और आवश्यकता होने पर युक्तिपूर्वक सुझाव दे देते हैं। बड़ों को यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि बच्चे अपनी बौद्धिक क्षमता, रुचि और स्वाभाविक गुणों के अनुरूप ही विकसित हो सकते हैं तथा उन्हें बरबस डाक्टर, इंजीनियर इत्यादि नहीं बनाया जा सकता। वास्तव में बड़ों का कर्तव्य है कि वे बच्चों को उनकी बौद्धिक क्षमता, रुचि एवं संभावनाओं के अनुरूप विकसित होने में सहयोग दें। किसीको क्षमता और स्वभाव के प्रतिकूल चलने के लिए विवश करना उसके प्रति अन्याय करना है।
पारिवारिक वातावरण व्यक्तित्व का निर्माण करने में विशेष उत्तरदायी होता है। कोई व्यक्ति जन्म से ही दीन-हीन अथवा कुण्ठित नहीं होता। वास्तव में विषम परिस्थिति को व्यक्तित्व-निर्माण में बाधक कहना भी उचित नहीं है तथा समाज का दुर्व्यवहार, विशेषतः पारिवारिक जन का दुर्व्यवहार, ही युवकों को दुर्बलों, विद्रोही अथवा अपरादी बनाता है। परिवार ही व्यक्ति को सज्जन अथवा शैतान, साहसी अथवा कायर, न्यायप्रिय अथवा अन्यायी, दानी अथवा कृपण, कृपालु अथवा कठोर, शूर अथवा क्रूर, उदार अथवा अनुदार, पोषक अथवा शोषक तथा समाजप्रेमी अथवा समाजद्रोही बनाता है। परिवार में उपेक्षा होने पर अथवा तिरस्कार पाकर बच्चा अपने को उपेक्षित अथवा तिरस्कृत मान लेता है तथा वह अपने को अरक्षित एवं असहाय समझने लगता है। सच्चे प्रेम का व्यवहार ही व्यक्ति में व्यक्ति में सुरक्षा का भाव जगाकर "आत्मविश्वास" की प्रतिष्ठित करता है। यह बड़ों का कर्तव्य है कि वे बच्चों को पाशविक दण्ड न दें तथा अपने व्यवहार से उनके मन में यह विश्वास उत्पन्न कर दें कि उनकी ताडना उनके हित में ही जाती है। अवसर के अनुसार कभी-कभी सप्रयोजन कठोरता दिखाना तो उचित होता है, किन्तु घृर्णापूर्ण दुर्व्यवहार करने के दुष्परिणाम होते हैं। घृणा और विद्वेष सर्वथा त्याज्य हैं। बड़ों का व्यवहार ऐसा होना चाहिए कि किसी के मन में यह भाव न खटक सके कि परिवार में उनके गुणों एवं कार्य की कोई कद्र नहीं होती तथा उसे उसके प्रेम का जवाब नहीं मिलवाता। कभी-कभी बच्चों में माता-पिता के सम्पूर्ण प्रेम को एकाधिकार के रूप में पाने के लिए स्पर्धा हो जान के कारण परस्पर ईर्ष्या-द्वेष उत्पन्न हो जाता है। विवेकशील माता-पिता को बच्चों की भावना का आदर करते हुए भी उन्हें परस्पर प्रेम से रहना सिखाना चाहिए। इसके अतिरिक्त कभी-कभी बड़े और छोटे बच्चे के पक्ष में बड़े बच्चे को दण्डित कर देते हैं तथा न्याय नहीं करते जिससे उनमें परस्पर द्वेष उत्पन्न हो जाता है तथा वह बढता ही रहता है। विवेकशील माता-पिता युक्तिपूर्वक उन्हें अपने व्यवहार से परस्पर प्रेम करना और न्याय का आदर करना सिखाते हैं। विवेकशील माता-पिता भूल में भी अपनी सन्तान से घृणा नहीं करते तथा अपार सहनशीलता भूल में भी अपनी सन्तान से घृणा नहीं करते तथा अपार सहनशीलता का परिचय देते हैं। परिवार अथवा समाज में दो व्यक्तियों पर परस्पर निरोध होने पर सेतु बनकर एकता स्थापित करना ही कल्याणकारी होता है।
परिवार में सबके साथ मिलकर घर को साफ-सुथरा और सुसज्जित रखने से न केवल सौन्दर्य-भावना का विकास होता है, बल्कि परिवार में उल्लास का भी उदय होता है। यदि घर में प्रत्येक वस्तु अपने नियम स्थान पर हो तथा वस्तुएँ इधर-उधर फैली हगुई न हों तो घर आकर्षक प्रतीत होने लगता है। परिवार में अतिथि के आने पर उसे समुचित आदर देने से तथा उसके प्रति आवश्यक ध्यान देने से परिवार की प्रतिष्ठा होती है। परिवार में प्रार्थना, भोजन आदि के समय दिन में एक बार सबका एकत्रित होना तथा किसी के रोग आदि कष्ट के निवारण हेतु सहयोग देना परिवार समाज की महत्त्वपूर्ण इकाई है तथा इकाई की उन्नति एवं समृद्धि समाज की उन्नति एवं समृद्धि का सूत्र होता है।
परिवार में कभी-कभी यह क्लेशप्रद स्थिति भी उत्पन्न हो जाती है कि आधुनिकता के दंभ में पुत्र अपने माता-पिता को मूर्ख सिद्ध करते हुए उन्हें निर्लज्जता से झिड़क देते हैं तथा उनके विचारों और अनुभवों को तिरस्कारपूर्वक ठुकरा देने में गौरव समझते हैं। अनेक बार उनकी पत्नी भी पर्दे के पीछे से बाण चला देती है और माता-पिता के लिए जीवन दुर्वह हो जाता है। अपने घर में अपने ही बच्चों से घृणित एवं अपमानित होना संत्रास हो होता है। किंतु उत्तम माता-पिता तथा अन्य बड़े सहनशीलता, उदारता और क्षमा से अपने बड़प्पन का निर्वाह करते हैं। श्रेष्ठ पुरुष विष पीकर अमृत उगलते हैं।
प्रायः बच्चे यह भूल जाते हैं कि वे माता-पिता के ऋणी हैं तता वे उनकी सेवाओं का ऋण कदापि चुका नहीं सकते। माता-पिता तथा अन्य बड़ों के सच्चे आशीष में बहुत बल होता है तथा वे माता-पिता को क्लेश देकर सुखी नहीं हो सकते। वे उनके शुभाशीर्वाद से न केवल घोर संकट को सुगमता से पार कर सकते हैं बल्कि समृद्धि,सुयश, सुख और शान्ति भी प्राप्त कर सकते हैं। माता-पिता और गुरुजन केवल सम्मान चाहते हैं जो कि उनका अधिकार होता है। उनका आशीर्वाद कवच बनकर रक्षा कर सकता है। वे परिवार धन्य हैं जहाँ माता-पिता को सन्तान से आदर मिलता है तथा सन्तान को माता-पिता का संरक्षण प्राप्त होता है। माता-पिता संतान के लिए श्रेष्ठ वर देनेवाले पावन तीर्थ होते हैं। जिन लोगों को माता-पिता का सम्मान एवं सेवा करने से उनका सहज स्नेह सुलभ होता है, उनके मन में सुरक्षा एवं आत्मविश्वास की भावना दृढ हो जाती है। माता-पिता सन्तान के लिए प्रमुख प्रेरणास्रोत होते हैं तथा प्रत्येक व्यक्ति जाने-अनजाने स्वयं में माता-पिता की छवि देखने का प्रयत्न करता है यद्यपि प्रत्येक मनुष्य में अपने अत्यन्त भिन्न व्यक्तिगत गुण भी पर्याप्त मात्रा में होते हैं। मनुष्य को अपने माता-पिता का दोष-दर्शन नहीं करना चाहिए। माता-पिता के गुणों का श्रद्धापूर्वक स्मरण करने से मनुष्य अपने भीतर गुणों की प्रस्थापना कर लेता है। मनुष्य की प्रसन्नता के लिए परिवार और पड़ोस के साथ मधुर सम्बन्ध रखना आवश्यक होता है।

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