प्रत्येक व्यक्ति को अपने लिए स्वतंत्र चिन्तन करना सीखना चाहिए जिससे कि वह अपने भीतर यह देखने की शक्ति को विकसित कर ले कि जगत् क्या है, जीवन क्या है, सत्य, शिव और सुन्दर क्या है, उसके लिए उचित क्या है, न्यायसंगत क्या है तथा उसे क्या करना चाहिए। मनुष्य का प्रथम एवं प्रमुख कर्तव्य है कि वह स्वयं को शिक्षा दे कि वह पग-पग पर सत्य को पहचान सके और उसे ग्रहण कर आत्मसात् करने का साहस कर सके। मनुष्य स्वयं से प्रश्न पूछकर तता तर्क द्वारा सत्य के अनुसंधान में गतिशील रहकर सत्य-बोध की दिशा में प्रगति कर सकता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जीवन-यात्रा को सरल, सुगम और प्रशस्त बनाने के लिए चिन्तन, तर्क और अनुभव के आधार पर अपने भीतर अपना एक प्रकाशदीप प्रज्वलित करना चाहिए। अपने से बातें करें, अपने गहरे स्तरों पर जीवन का संगीत सुनें। अपने से पूछें, अपने को मित्र, बन्धु और गुरु बनाएँ। मनुष्य स्वयं ही अपना, मित्र, बन्धु और गुरु है। स्वयं को जगाएं, स्वयं को जानें। सृष्टि का रहस्य क्या है, जीवन का प्रयोजन क्या है, इसे कैसे पूरा किया जा सकता है आदि महाप्रश्नों के उत्तर हमारे भीतर ही हैं तथा हम उन्हें जानने के लिए अपने भीतर जिज्ञासा की हलचल उत्पन्न करके स्वयं को दिशा दिखाएँ और परिवर्तित करते रहें। हम अपने भीतर निरन्तर सजग रहकर जीवन और जगत् के रहस्य का उद्घघाटन करें। बोध-यात्रा की मंजिल भीतर ही है। सत्यं शिवं सुन्दरम् का दर्शन तथा पूर्णता की अनुमति भीतर ही है। जगत् और जीव के तादात्म्य की चेतना एवं बाहर और भीतर की एकरसता की अनुभूति ही जागरण है, ज्ञान की इतिश्री है, साधना का साध्य है तथा स्वर्ग की प्राप्ति है। अपने मन में शांति, स्थिरता और समता की अनुभूति करना अपने भीतर स्वर्ग को प्रतिष्ठित करना है। स्वर्ग की अनुभूति अपने भीतर ही होती है।
प्रकृति ने विकास के क्रम में बुद्धमण्डित मनुष्य को अवतीर्ण करके उसे अपने रहस्य का उद्घाटन करने तथा पूर्णत्व को प्राप्त होने पर अवसर दे दिया। मानव-जीवन एक अवसर है—सत्य को जानने-समझने और प्राप्त करने का। सचेतन मनुष्य अनन्त ब्रह्माण्ड की पूर्ण इकाई है जो वियोज्य प्रतीत होकर भी उसका अवियोज्य अंग है। मनुष्य अपनी बौद्धिक शक्ति एवं चेतना के विकास से न केवल जगत् और जीवन के समस्त रहस्य को जान सकता है, बल्कि अपने भीतर उनकी सर्जनात्मकता। मानव-जीवन के इस उद्देश्य को समझकर, इसकी पूर्ति की दिशा में स्वयं सतत सक्रिय रहकर अन्य जन को प्रेरिकत करनेवाले वर पुरुष मानव-जाति के गौरव होते हैं।
जो विचार, ज्ञान अथवा कर्म मानवीय चेतना के विकास में सहायक होता है, मनुष्य को बन्धनों से मुक्त करता है, अवसाद से आनन्द की ओर प्रवृत्ति करता है, अन्दकार से प्रकाश की ओर ले जाता है, अकरमण्यता को सर्जनात्मकता में परिणत कर देता है, वह अमृतमय है। कल्याणकारी विचार चेतन मस्तिष्क में दीर्घ समय तक सक्रिय रहने पर सशक्त हो जाता है तथा जीवन को दिशा दे सकता है। जो विचार, ज्ञान अथवा कर्म मनुष्य को रूढ़िवाद, भाग्यवाद, सम्प्रदायवाद, तर्कहीनता, दुराग्रह, असत्य एवं अतीत के बन्धनों में पकड़ लेता है, वह मृत्युमय है। चेतना की उन्मुक्तता एवं अनन्तता ही आनन्द है।
वास्तव में मनुष्य अपनी समस्याओं के जाल में फँसकर अपने भीतर प्रच्छन्न अक्षम आनन्द-स्रोत को अनदेखा कर देता है तथा उससे असम्बद्ध होकर अपनी स्वाभाविक आनन्द-वृत्ति को विस्मृत कर देता है। परिणामतः मनुष्य भय, चिन्ता, क्लेश तथा व्याकुलता से ग्रस्त हो जाता है। उन्मुक्त व्यक्ति सहज ही सत्य, प्रेम और करुणा में प्रतिष्ठित हो जाता है तथा पुण्य और पाप उसका स्पर्श नहीं करते।
जिजीविषा के मूल में अखण्ड आनन्द की वृत्ति है। आनन्द ही जीवन की सहज अभिव्यक्ति है एवं जीवन का पर्याय है। वास्तव में जीवन-संघर्ष का उद्देश्य भी आनन्दप्राप्ति होता है। अकर्मण्यता जडता है तथा दुःखरूप अवसाद है। संघर्ष से शान्ति और सुख निष्पन्न होते हैं। संघर्ष के बिना शान्ति और सुख की कल्पना नहीं हो सकती। वास्तव में संघर्ष के स्वरूप का उतना महत्त्व नहीं है जितना संघर्ष की दिशा का है। चिन्तन और कर्म का महत्त्व भी उनके स्वरूप पर इतना निर्भर नहीं है जितना उनकी दिशा का। विकासोन्मुखी सर्जनात्मक क्रिया व्यक्तित्व को प्रस्फुटित करके उसे सुंगधिमय बना देती है।
प्रश्न है क्या हम वास्तव में अपने संघर्ष, चिन्तन और कर्म के प्रति निष्ठावान् हैं? क्या हम अपने भीतर अपने प्रति सच्चे हैं? मार्ग पर चलने अथवा हट जाने का इतना महत्त्व नहीं है जितना मार्ग पर चलने के पुनः-पुनः प्रयत्न करने का है। जो व्यक्ति सजग होकर चिन्तन द्वारा अपने विचार और कर्म को विकासोन्मुखी करने में तथा बार-बार गिरकर भी उठ जाने और आगे बढ़ने में प्रत्यनशील है, वह जीवन के प्रयोजन को पूरा करता है तथा उसकी दुर्गति कभी नहीं हो सकती।
वास्तव में मनुष्य जैसा चिंतन करता है वैसा ही बन जाता है। चिंतन द्वारा मनुष्य जैसे-जैसे उन्मुक्त होता जाता है, वह वैसे-वैसे अपने भीतर एक प्रकाश, उत्थान और सहज प्रसन्नता का अनुभव करने लगता है तथा कहता है, "मैंने जीवन के महत्त्व और प्रयोजन को समझ लिया है, समस्त शक्तियों का सदुपयोग ही ओज और आनन्द का कारण है, मैं आशा और उत्साह से विकासोन्मुखी दिशा में आगे बढता ही रहूँगा।" चिन्तन और कर्म में व्यस्त रहना ही व्यक्ति और समाज के दुःख-निवारण का उपाय है। मानसिक जागरूकता तथा उत्साह होना जीवन का लक्षण है। निर्बन्ध होकर अपने भीतर स्पष्ट निर्देश लेकर, विवेकसम्मत कार्य करना ईश्वरीय ज्ञान से काम लेना है।
मनुष्य मूलतः एक विश्वव्यापिनी दिव्य सत्ता के साथ जुड़ा हुआ है। उस ईश्वरीय सत्ता से युक्त होकर मनुष्य शक्ति, सुख और शान्ति के अजस्र प्रवाह की अनुभूति कर लेता है तथा उससे वियुक्त होकर दीन और दुःखी हो जाता है। मनुष्य अपने भीतर अवस्थित अनन्त ईश्वरीय शक्ति को जगाकर क्षणभर में दुःख, भय, चिन्ता आदि से मुक्त हो सकता है। अन्तर्निहित ईश्वरीय शक्ति के अक्षय भण्डार को पहचानने तथा उसके साथ अविच्छेद्य नाता स्थापित करने से मनुष्य अपरिसीम शक्ति को अपने भीतर समाहित कर लेता है। मनुष्य अपनी भूलों के कारण भटक जाता है किन्तु ईशवरीय शक्ति तो सदैव उसकी सहायता और रक्षा करने के लिए तत्पर रहती है। अन्तरात्म-सम्मत विचार, वचन अथवा कर्म संसार की दृष्टि में भूल प्रमाणित होने पर भी दोषमय नहीं होता तथा विकास की ओर उन्मुख कर देता है। ईश्वरीय शक्ति में निस्सीमता होता है तथा उसीके प्रभाव के कारण मनुष्य प्रतिक्षण सीमाओं के बन्धन तोड़कर असीम होने की कामना करता है। वास्तव में मनुष्य की चरन उपलब्धि व्यापक होकर ईश्वर-भाव अथवा अनन्ता में विलीन हो जाना है।
मनुष्य सृष्टि से प्राप्त समस्त वस्तुओं और शक्तियों का उपयोग सृष्टि के विकास के लिए करके तथा सत्य एवं प्रेम की प्रतिष्ठा द्वारा सृष्टि के साथ आत्मसात् होकर कृतार्थ हो जाता है। सृष्टि के प्रति समर्पण-भाव होना तथा सत्य और प्रेम में प्रतिष्ठत होना आस्तिकता है और मनुष्य का सहज धर्म है। मनुष्य सब कुछ सृष्टि से प्राप्त करके अन्त में यहीं छोड़ जाता है किन्तु अविवेकी जन सृष्टि की वस्तुओं को लोभ से संचित करके उन पर एकाधिकार मान लेते हैं तथा अनावश्यक दुःख से घिर जाते हैं।
प्रत्येक व्यक्ति का जीवन जनसमाज से जुड़ा हुआ होने के कारण उससे प्रभावित होता है तथा परस्पर प्रेम एवं सहृदयता के अभाव में हम दूसरों के लिए कठिनाई और कष्ट को उत्पन्न करके अपना ही जीवन कठिन और कष्टमय बना लेते हैं। हम इस प्राकृतिक नियम को भूल जाते हैं कि दूसरों को सुख देकर ही हम सुख प्राप्त कर सकते हैं तथा कष्ट देकर अपने विकास के मार्ग को कंटकाकीर्ण बना लेते हैं। भोग से त्याग की ओर अथवा स्वार्थ से सेवा की ओर बढ़ना मानो विकासोन्मुख होकर आनन्द की ओर बढना है। आन्तरिक निष्ठा द्वारा परम सत्ता से सम्बद्ध होने पर मनुष्य निश्चय ही अपने भाग्य का निर्माण स्वयं करता है।
A Memoir of the Very Rev. Theobald Mathew; With an Account of the Rise and
Progress of Temperance in Ireland (Birmingham)
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A Memoir of the Very Rev. Theobald Mathew; With an Account of the Rise and
Progress of Temperance in Ireland (with Morris's "The Evil Effects of
Drunkennes...
12 hours ago
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