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Tuesday, June 16, 2009

आनन्दमय जीवन by शिवानन्द (41)

मनुष्य स्वभाव से सुख चाहता है किंतु विवेकहीनता के कारण दुःख की अँधियारी गलियों में भटक जाता है। चिंतन मनुष्य के मन को जाग्रत् कर देता है, ध्यान मन को उत्तेजना से मुक्त करके शान्त, सम और सुस्थिर कर देता है तथा आनन्द-भाव मनुष्य को स्वतःस्फूर्त अक्षय उमंग से भर देता है जो किसी बाह्य आलम्बन पर निर्भर नहीं होता। आनन्द-भाव के स्फूर्त होने पर मन भय, चिन्ता, तनाव, घृणा, क्रोध, अवसाद और शोक से सर्वथा मुक्त होकर, ऊर्जस्विता और ओज तथा अदम्य साहस और उत्साह से भर जाता है। आनन्द-भाव मनुष्य की चेतना को निर्मल एवं दिव्य बना देता है। आनन्द-भाव की अनुभूति होने पर मनुष्य जीवन और जगत् के रहस्य को जान लेता है।
जीवन का प्रत्येक दिन एक उत्सव है। दिव्यता के पथ पर चलते हुए मनुष्य नितान्त निर्भय एवं अन्तःस्फूर्त सहज उल्लास से भरकर सृष्टि के कण-कण में सत्यं शिवं सुन्दरम् का दर्शन करने लगता है तथा अपने भीतर ही पूर्णता की अनुभूति करके कृतार्थ हो जाता है। सत्य और प्रेम की प्रस्थापना होने से तथा साहस और उत्साह का समावेश होने से जीवन उमंग से भर जाता है। इस शब्दातीत उमंग के पृष्ठ में होती है सत्य और प्रेम, अभय और उत्साह विवेक और कर्म तथा चिन्तन और ध्यान की साधना की गाथा। उमंगभरा अथवा आनन्दमय जीवन ही जीवन है, वह सबके लिए सुलभ है तथा उसे पाने के लिए अभी देर नहीं हुई है। जब जागे तभी सवेरा। जागरण होते ही स्वर्णिम प्रभात की दिव्यता का दर्शन हमें गहन तृप्ति देकर कृतकृत्य कर देगा। जागो, उठो और आगे बढ़ो।
आत्म-उदबोधन
मैंने जीवन के मह्त्व को समझ लिया है। जीवन सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ निधि है। जीवन में अनन्त सौन्दर्य है। जीवन एक अनूठा वरदान है। जीवन को सम्मान देना, जीवन की संरक्षा करना, जीवन का सबसे बड़ा मूल्य है तथा सर्वोच्च धर्म है।
जीवन मेरे सामने जिस रूप में भी आएगा, मैं उसका स्वागत करूँगा, अपे कर्तव्य एवं दायित्व का निर्वाह करूँगा तथा पलायन नहीं करूँगा। जीवन अपने लिए तथा समाज के लिए बहुत कुछ महत्त्वपूर्ण करने का एक अवसर है। मैं जीवन को सँवारने में अपनी शक्ति का पूरा सदुपयोग करूँगा। संसार को सुधारने की प्रक्रिया का प्रारम्भ स्वयं के सुधारने से हरी होता है।
सत्य और प्रेम ही जीवन को सार्थक बना सकते हैं तथा सत्य और प्रेम ही धरती को स्वर्ग बना सकते हैं। मैं अपने जीवन में यथासंभव सत्य और प्रेम की प्रस्थापना करूँगा तथा मतान्धता, संकीर्णता और विद्वेष को निर्मूल कर दूँगा।
मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है। मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है। कर्म सफलता का द्वार खोल देता है। मनुष्य अपने सुख-दु:ख के लिए स्वयं ही उतरदायी है। हम जैसा चिन्तन करते हैं, वैसा ही हमारा मन बनता है तथा वैसे ही हम हो जाते हैं। हम जैसा कर्म करते हैं वैसा ही हमारा भविष्य बन जाता है। हम अपने विचार और कर्म से भविष्य का निर्माण करते हैं।
मैं अतीत के बन्धन से मुक्त हो रहा हूं। मनुष्य बन्धन-मुक्त होकर ही जीवन के सौंदर्य का मुक्त-दर्शन कर सकता है तथा जीवन में आगे बढ़ सकता है। मैंने वर्तमान में जीना सीख लिया है। केवल वर्तमान ही सत्य है। भूतकाल का तो अस्तित्व ही नहीं है, वह स्पप्नमात्र है। भविष्य का अभी निर्माण हा रहा है तथा उसकी चिन्ता करना अविवेक है। भूतकाल की भूलों पर पछताव करते ही रहना, भूतकाल के दु:खों का स्मरण करके अपने भीतर घुलते ही रहना तथा भविष्य की चिन्ता होना पुनर्जन्म एंव नवजीवन का प्रारम्भ है। प्रकाश की ओर उन्मुख होने पर भी अतीत के अन्धकार का स्मरण करते रहना अविवेक है। अतीत के बन्धन से मुक्त होने का अर्थ है अतीत को अस्तित्वहीन और मिथ्या मानकर उससे भावात्म्क् सम्बन्ध न मानना तथा उसके गतिरोधक कुप्रभाव से मुक्त रहना।
बहुत कुछ खोने के बाद भी, पुन: प्रारम्भ कर देने के लिए बहुत कुछ शेष बचा है। यदि चेतना शेष है तथा आशा और उत्साह की संजीवनी शेष है तो कटा हुआ जीवन-वृक्ष फिर से फूटकर उग आएगा। उतम पुरुष विपति आने पर विनष्ट नहीं होते तथा अपनी प्रबल-शक्ति से नवचेतना एंव नवजीवन का संचार कर लेते है। विवेकशील पुरुष गिर जाने पर गेंद की भांति प्रत्येक बार उठ जाते हैं तथा मूर्ख जन मिट्टी के ढेले की भांति गिरकर पड़े रह जाते हैं।
मैंने समझ लिया है कि भय एक मिथ्या कल्पना है। हमने किसी अबोध अवस्था में स्वये ही भय की काली चादर को ओढ़ा है। हम स्वयं ही उसे क्षणभर में अभी उताकर फेंक सकते हैं। प्राय: सभी किसी न किसी भय से ग्रस्त होते है किन्तु यह समझ पाते कि भय मात्र दूर कर सकते हैं। ज्ञान की अग्नि अज्ञान और मन के पुराने संस्कारों को भस्म कर देती है तथा विवेक काक प्रकाश भय के अंधकार को नष्ट कर देता है। भय चिन्ता और शोक मानव की नियति नहीं हैं। विवेक, साहस और धैर्य हमारे श्रेष्ठ मित्र हैं।
आनन्दमय रहना मनुष्य का नैसर्गिक स्वभाव है। आनन्दमय होना हमारा जन्मजात अधिकार है। अपने भीतर निरन्तर आनन्द-भाव को जगाकर अभ्यास द्वारा सीख लिया है। हम व्यर्थ ही स्वयं को दु:ख देते हैं। किसी भी परिस्थिति से घबरा जाना अविवेक है। हमें घबराकर नहीं, समझदारी से काम लेना चाहिए। हमें डरकर नहीं, हिम्मत से काम लेना चाहिए। घबराहट, डर और जल्दबाजी से काम बिगड़ जाते हैं और हमारा स्वरुप धूमिल हो जाता है। हमें किसी भी परिस्थिति में हार न मानकर तथा निराशा छोड़कर, आशापूर्वक आगे बढना चाहिए।
मैंने अपने जीवन का महत्व समझ लिया है। मैं संसार का एक महत्वपूर्ण व्यक्ति हूं। मैं पहले की अपेक्षा अब कहीं अधिक सम, स्थिर और शान्त हूं। मेरी इच्छा-शक्ति दृढ हो गई है। मैं निन्दा और आलोचना से उतेजित नहीं होता। मैं अपनी तुलना किसी भी अन्य से नहीं करता। मैं दूसरों के समान होकर भी उनसे बहुत भिन्न हूं। मैंने साहस और उत्साह से आगे बढना सीख लिया है, मैं निरन्तर आगे बढ रहा हूं।
मैंने अपने लक्ष्य को निधार्रित कर लिया है तथा अपना रास्ता भी खोज लिया है। मैंने लक्ष्य की ओर बढते रहने का संकल्प लिया है। मैं अपनी समस्याओं का समाधान विवेक तथा धैर्य से स्वयं कर लूंगा। मेरे भीतर अदभुत ईश्वरीय-शक्ति का अनन्त भण्डार छिपा पड़ा है, जिसे मैंने देख लिया है। मेरी दुर्गति नहीं को सकती। मेरे मन में जीवन की ऊचांइयों को छूने के अरमान हैं। मुझे लग्नपूर्वक महत्वपूर्ण एंव उपयोगी कार्य में व्यस्त रहकर, अपने जीवन में बहुत कुछ प्राप्त करना है। मेरा भविष्य उज्ज्वल हैं। मेरा मन उंमग से भरा हुआ है।
मैंने समझ लिया है कि मनुष्य दूसरों को शान्ति और सुख देकर ही शान्ति और सुख प्राप्त कर सकता है। दूसरों की शान्ति और सुख छीनकर, मनुष्य अपने ही शान्ति और सुख को खो देता है। मनुष्य को धन और सम्पति सुख नहीं देते, बल्कि अपने विचार और आचरण सुख देते हैं। भोग से त्याग की ओर, स्वार्थ से परमार्थ की ओर, शोषण से सेवा की ओर, संकीर्णता से उदारता की ओर, असत्य से सत्य की ओर, धृणा से प्रेम की ओर, कठोरता से करुणा की ओर तथा लघुता से विशालता की ओर बढना, व्यापक होकर बिन्दु से सिन्धु हो जाना है तथा कृतार्थ हो जाना है।
सत्य और प्रेम की प्रस्थापना होने पर तथा अपने भीतर ईश्वरीय सता के साथ जुड़ जाने पर, मनुष्य अविचल शान्ति, अकल्पनीय शक्ति और अखण्ड को प्राप्त कर लेता है।
वे वन्दनीय हैं, वे महात्मा हैं, वे धन्य हैं तथा उनका यश इस संसार में स्थिर है जिन्होंने प्रकाश-दीप बनकर लोक को आलोकित किया।

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