पुराने जमाने में एक खलीफा था, जो हातिम से भी बढ़कर उदार और दानी था। उसने अपनी दानशीलता तथा परोपकार के कारण निर्धनता याचना का अंत कर दिया था। पूरब से पच्छिम तक इसकी दानशीलता की चर्चा फैल गयी।
एक दिन अरब की स्त्री ने अपने पति से कहा, ‘‘गरबी के कारण हम हर तरह के कष्ट सहन कर रहे हैं। सारा संसार सुखी है, लेकिन हमीं दुखी हैं। खाने के लिए रोटी तक मयस्सर नहीं। आजकल हमारा भोजन गम है या आंसू। दिन की धूप हमारे वस्त्र हैं, रात सोने का बिस्तर हैं, और चांदनी लिहाफ है। चन्द्रमा के गोल चक्कर को चपाती समझकर हमारा हाथ आसमान की तरफ उठ जाता है। हमारी भूख और कंगाली से फकीरों को भी शर्म आती है और अपने-पराये सभी दूर भागते हैं।’’
पति ने जवाब दिया, ‘‘कबतक ये शिकायतें किये जायेगी? हमारी उम्र ही क्या ऐसी ज्यादा रह गयी है! बहुत बड़ा हिस्सा बीत चुका है। बुद्धिमान आदमी की निगाह में अमीर और गरीब में कोई फर्क नहीं है। ये दोनों दशाएं तो पानी की लहरें हैं। आयीं और चली गयीं। नदी की तरेंग हल्की हो या तेज, जब किसी समय भी इनको स्थिरता नहीं तो फिर इसक जिक्र ही क्या? जो आराम से जीवन बिताता है, वह बड़े दु:खों से मरता है। तू तो मेरी स्त्री है। स्त्री को अपने पति के विचारो से सहमत होना चाहिए, जिससे एकता से सब काम ठीक चलते रहें। मैं तो सन्तोष कियो बैठा हूं। तू ईर्ष्या के कारण क्यों जली जा रही है?’’
पुरुष बड़ी हमदर्दी से इस तरह के उपदेश अपनी औरत को देता रहा। स्त्री ने झुंझलाकर डांटा, ‘‘निर्लज्ज! मैं अब तेरी बातों में नही आऊंगी। खाली नसीहत की बातें न कर। तूने कब से सन्तोष करना सीखा है? तूने तो केवल सन्तोष का नाम ही नाम सुना है, जिससे जब मैं रोटी-कपड़े की शिकायत करुं तो तू अशिष्टता और गुस्ताखी का नाम लेकर मेरा मुंह बन्द कर सके। तेरी नसीहत ने मुझे निरुत्तर नहीं किया। हां, ईश्वर की दुहाई सुनने से मैं चुप हो गयी। लेकिन अफसोस है तुझपर कि तूने ईश्चर के नाम को चिड़ीमार का फंदा बना लिया। मैंने तो अपना मन ईश्वर को सौंपा दिया है, ताकि मेरे घावों की जलन से तेरा शरीर अछूता न बचे या तुझको भी मेरी तरह बन्दी (स्त्री) बना दे।’’ स्त्री ने अपने पति पर इसी तरह के अनेक ताने कसे। मर्द औरत के ताने चुपचाप सुनता रहा।
मर्द ने कहा, ‘‘तू मेरी स्त्री है या बिजका? लड़ाई-झगड़े और दर्वचनों को छोड़। इन्हें नहीं छोड़ती तो मुझे ही छोड़। मेरे कच्चे फोड़ों पर डंक न मार। अगर तू जीभ बन्द करे तो ठीक, नहीं तो याद रख, में अभी घरबार छोड़ दूंगा। तंग जूता पहनने से नंगे पैर फिरना अच्छा है। हर समय के घरेलू झगड़ों से यात्रा के कष्ट सहना बेहतर है।’’
स्त्री ने जब देखा कि उसका पति नाराज हो गया है तो झट रोने लगी। फिर गिड़गिड़ाकर कहने लगी, ‘‘मैं सिर्फ पत्नी ही नहीं बल्कि पांव की धूल हूं। मैंने तुम्हें ऐसा नहीं समझा था, बल्कि मुझे तो तुमसे और ही आशा थी। मेरे शरीर के तुम्हीं मालिक हो और तुम्हीं मेरे शासक हो। यदि मैंने धैर्य और सन्तोष को छोड़ा तो यह अपने लिए नहीं, बल्कि तुम्हारे लिए। तुम मेरी सब मुसीबतों और बीमारियों की दवा करते हो, इसलिए मैं तुम्हारी दुर्दशा को नहीं देख सकती। तुम्हारे शरीर की सौगन्ध, यह शिकायत अपने लिए नहीं, बल्कि यह सब रोना-धोना तुम्हारे लिए है। तुम मुझे छोड़ने का जिक्र करते हो, यह ठीक नहीं हैं।’’
इस तरह की बातें कहती रही और फिर रोते-रोते औंधे मुंह गिर पड़ी। इस वर्षा से एक बिजली चमकी और मर्द के दिल पर इसकी एक चिनगारी झड़ी। वह अपने शब्दों पर पछतावा करने लगा, जैसे मरते समय कोतवाल अपने पिछले अत्याचारों और पापों को याद कर रोता है। मन में कहने लगा, जब मैं इसका स्वामी हूं तो मैंने इसको कष्ट क्यों दिया? फिर उससे बोला, ‘‘मैं अपनी इन बातों के लिए लज्जित हूं। मैं अपराधी हूं। मुझे क्षमा कर। अब मैं तेरा विरोध नहीं करुगा। जो कुछ तू कहेगी, उसके अनुसार काम करुंगा।’’
औरत ने कहा, ‘‘तुम यह प्रतिज्ञा सच्चे दिल से कर रहे हो या चालाकी से मेरे दिल का भेद ले रहे हो?’’
वह बोला, ‘‘उस ईश्वर की सौगन्ध, जो सबके दिलों का भेद जानेवाले हैं, जिसने आदम के समान पवित्र नबी को पैदा किया। अगर मेरे ये शब्द केवल तेरा भेद लेने के लिए हैं तो तू इनकी भी एक बार परीक्षा करके देख ले।’’
औरत ने कहा, ‘‘देख, सूरज चमक रहा है और संसार इससे जगमगा रहा है। खुदा के खलीफा का नायाब जिसके प्रताप से शहर बगदाद इंद्रपुरी बना हुआ है, अगर तू उस बादशाह से मिले तो खुद भी बादशाह हो जायेगा, क्योंकि भाग्यवानों की मित्रता पारस के समान है, बल्कि पारस भी इसके सामने छोटा है। हजरत रसूल की निगाह अबू बकर पर पड़ी तो वह उनकी जरा-सी कृपा से इस महान पद को पहुंच गये।’’
मर्द ने कहा, ‘‘भला, बादशाह तक मेरी पहुंच कैस हो सकती है? बिना किसी जरिये के वहां तक कैसे पहुंच सकता हूं?’’
औरत ने कहा, ‘‘हमारी मशक में बरसाती पानी भरा रक्खा है। तुम्हारे पास यही सम्पत्ति है। इस पानी की मशक को उठाकर ले जाओ और इसी उपहार के साथ बादशाह की सेवा में हाजिर हो जाओ और प्रार्थना करो कि हमारी जमा-पूंजी इसके सिवा कुछ है नहीं। रेगिस्तान में इससे उत्तम जल प्राप्त होना असम्भव है। चाहे उसके खजाने में मोती और हीरे भरे हुए हैं, लेकिन ऐसे बढ़िया जल का वहां मिलना भी दुश्वार है।’’
मर्द ने कहा, ‘‘अच्छी बात है। मशक का मुंह बन्द कर। देखें, तो यह सौगात हमें क्या फायदा पहुंचाती है? तू इसे नमदे में सी दे, जिससे सुरक्षित रहे और बादशाह हमारी इस भेंट से रोज़ खोले। ऐसा पानी संसार भर में कहीं नहीं। पानी क्या, यह तो निथरी हुई शराब है।’’
उसने पानी की मशक उठायी और चल दिया। सफर में दिन को रात और रात को दिन कर दिया। उसको यात्रा के कष्टों के समय भी मशक की हिफाजत का ही ख्याल रहता था।
इधर औरत ने खुदा से दुआ मांगनी शुरु की कि ऐ परवरदिगार, रक्षा कर, ऐ खदा! हिफाजत कर।
स्त्री की प्रार्थना तथा अपने परिश्रम और प्रयत्न से वह अरब हर विपत्ति से बचता हुआ राजी-खुशी राजधानी तक पानी की मशक को ले पहुंचा। वहां जाकर देखा, बड़ा सुन्दर महल बना हुआ है और सामने याचकों का जमघट लागा हुआ है। हर तरफ के दरवाजों से लोग अपनी प्रार्थना लेकर जाते हैं और सफल मनोरथ लौटते हैं।
जब यह अरब महल के द्वारा तक पहुंचा ता चोबदार आये। उन्होंने इसके साथ बड़ा अच्छा व्यवहार किया। चोबदारों ने पूछा, ‘‘ऐ भद्र पुरुष! तू कहां से आ रहा है? कष्ट और विपत्तियों के कारण तेरी क्या दशा हो गयी है?’’
उसने कहा, ‘‘यदि तुम मेरा सत्कार करो तो मैं भद्र पुरुष हूं और मुंह फेर लो तो बिल्कुल छोटा हूं। ऐ अमीरो! तुम्हारे चेहरों पर एश्चर्य टपक रहा है। तुम्हारे चेहरों का रंग शुद्ध सोने से भी अधिक उजला है। मैं मुसाफिर हूं। रेगिस्तान से बादशाह की सेवा में भिखारी बनकर हाजिर हुआ हूं। बादशाह के गुणों की सुगन्धित रेगिस्तान तक पहुंच चुकी है। रेत के बेजान कणों तक में जान आ गयी है। यहां तक तो मै अशर्फियों के
लोभ से आया था, परन्तु जब यहां पहुंचा तो इसके दर्शनों के लिए उत्कण्ठित हो गया।’’ फिर पानी की मशक देकर कहा, ‘‘इस नजराने को सुलतान की सेवा में पहुंचाओ और निवेदन करो कि मेरी यह तुच्छ भेंट किसी मतलब के लिए नहीं है। यह भी अर्ज करना कि यह मीठा पानी सौंधी मिट्टी के घड़े का है, जिसमें बरसाती पानी इकट्ठा किया गया था।’’
चोबदारों को पानी की प्रशंसा सुनकर हंसी आने लगी। लेकिन उन्होंने प्राणों की तरह मशक को उठा लिया, क्योंकि बुद्धिमान बादशाह के सदगुण सभी राज-कर्मचारियों में आ गये थे।
जब खलीफा ने देखा और इसका हाल सुना तो मशक को अशर्फियों से भर दिया। इतने बहुमल्य उपहार दिये कि वह अरब भूख-प्यास भूल गया। फिर एक चोबदार को दयालु बादशाह ने संकेत किया, ‘‘यह अशर्फी-भरी मशक अरब के हाथ में दे दी जाये और लौटते समय इसे दजला नदी के रास्ते रवाना किया जाये। वह बड़े लम्बे रास्ते से यहां तक पहुंचा है। और दजला का मार्ग उसके घर से बहुत पास है। नाव में बैठेगा तो सारी पिछली थकान भूल जायेगा।’’
चोबदारों ने ऐसा ही किया। उसको अशर्फियां से भरी हुई मशक दे दी और दजला पर ले गये। जब वह अरब नौका में सवार हुआ और दजला नदी को देखा तो लज्जा के कारण उसका सिर झुक गया, फिर सिर झुक गया, फिर सिर झुकाकर कहने लगा कि दाता की देन भी निराली है और इससे भी बढ़कर ताज्जुब की बात यह है कि उसने मेरे कड़वे पानी तक को कबूल कर लिया।
A Memoir of the Very Rev. Theobald Mathew; With an Account of the Rise and
Progress of Temperance in Ireland (Birmingham)
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A Memoir of the Very Rev. Theobald Mathew; With an Account of the Rise and
Progress of Temperance in Ireland (with Morris's "The Evil Effects of
Drunkennes...
11 hours ago
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