मानव-जीवन बहुआयामी है तथा उत्तम पुरुष के लिए कहीं कार्य-क्षेत्र का अभाव नहीं है। मनुष्य अपने भौतिक स्वार्थ से ऊपर उठकर अपने व्यक्तित्व और परिस्थितियों के अनुरूप किसी भी दिशा में लक्ष्य निर्धारित करके उसकी पूर्ति के लिए कर्मरत रह सकता है। मनुष्य की शक्तियाँ अपरिसीम हैं तथा कार्य-क्षेत्र भी विस्तृत और विशाल है। उदारपूर्ति के लिए आजीविका का साधन होना आवश्यक है किन्तु मात्र पेट भरना और परिवार का पालन करना विवेकशील मनुष्य को कभी गहन सन्तोष एवं तृप्ति नहीं दे सकता। केवल अपनी दैहिक आवश्यकताओं के लिए तो पशु जीते हैं। मनुष्य वह है जो ऐसा कुछ करके दिखाए जिससे संसार की भलाई हो तथा उसे स्वयं को गहन-आत्म-सन्तोष प्राप्त हो। वास्तव में ऐसी महत्त्वकांक्षा कभी सदोष नहीं हो सकती। दूसरों के कल्याण और अपने कल्याण में कोई भेद नहीं होता। जो कर्म दूसरों के लिए कल्याणकारक है, वह अपने लिए हानिकारक अथवा दुःखदायक नहीं हो सकता। मनुष्य ज्यों-ज्यों किसी उत्तम मार्ग पर आगे बढता है तथा कुछ उपलब्धि होने लगती है, त्यों-त्यों उसमें आत्मविश्वास बढ़ता जाता है विवेकशील पुरुष सफलता का अभिमान नहीं करता। महान् होकर भी अभिमान के कारण मनुष्य का पतन हो जाता है।
विवेकशील पुरुष दृढ़ रहकर भी विनम्र रहता है तथा पूर्वाग्रह एवं दुराग्रह से मुक्त रहकर दूसरों से सीखने के लिए सदैव तैयार रहता है। व्यक्तित्व सबल होकर भी विनम्य होना चाहिए। वास्तव में हम न केवल दूसरों के गुणों और सफलताओं से सीखते हैं, बल्कि दूसरों के दोषों और विफलताओं से भी सीखते हैं। विवेकशील मनुष्य जीवन के अन्त तक सत्य के ग्रहण और असत्य के त्याग से अपने जीवन को सँवारने में लगा रहता है।
विवेकशील पुरुष अपनी वाहवाही के लिए सस्ती लोकप्रियता के कुचक्र में कभी नहीं फँसता तथा कहीं झूठी "हाँ" "हाँ" नहीं करता। वह निकृष्ट अथवा संदिग्ध मामलों में कभी सहयोग नहीं देता। जो व्यक्ति केवल सबको प्रसन्न करने की दृष्टि से सदा ही सब कुछ करने के लिए तैयार रहता है, वह दुर्बल होता है तथा जीवन में कभी सफल नहीं होता। मनुष्य को अनुचित कार्य में सहयोग नहीं देना चाहिए। सोचने, कहने और करने में भी एकरूपता होने से चारित्रिक विकास होता है। कर्म की उतकृष्टता की कसौटी यह है कि यदि कोई अन्य व्यक्ति मेरे साथ ऐसा ही करता हो तो क्या वह मुझे उचित प्रतीत होगा तथा क्या ऐसा करनेवाला अन्य व्यक्ति मेरे लिए सम्मान का पात्र होगा। उचित और अनुचित तथा देश,काल और परिस्थिति के अनुसार किसी कर्म की उपदेयता पर विचार करना, उसके व्यावहारिक पक्ष पर भी विचार करना तथा अपनी विचारधारा, सामर्थ्य ौर क्षमता के अनुसार कर्तव्य कर्म करना विवेक तथा समझदारी है।
मनुष्य के सभी गुण पुरुषार्थ-गुण केबिना अधूरे हैं । अनेक मनुष्य संगटग्रस्त होकर ईश्वर, भाग्य और संसार को दोष देते रहते हैं किन्तु संकट-निवारण के लिए उपाय सोचकर पुरुषार्थ नहीं करते। संसार में पुरुषार्थ का कोई विकल्प नहीं है। कुछ लोग भगवान् और भाग्य के भरोसे निठल्ले बैठ जाते और संकट की दलदल में फँसते चले जाते हैं। विषम परिस्थितियों एवं कठिनाइयों के साथ संघर्ष करने से मनुष्य का आत्मविश्वास दृढ हो जाता है तथा सन्तोष प्राप्त होता है। कठिनाई और संकट की चुनौती स्वीकार करके,जुझारू इच्छा-शक्ति से उसका डटकर मुकाबवा करने पर मनुष्य न केवल उस पर विजय पा लेता है बल्कि जीवन की दौड़ में आगे बढ़ना सीख लेता है। सभी महापुरुषों की सफलता के पीछे संघर्ष का एक इतिहास होता है किन्तु मनुष्य को लक्ष्य पर पूरा ध्यान रखकर कर्म करते हुए भी कर्मफल की चिन्ता नहीं करनी चाहिए। वीर सैनिक के लिए रण-क्षेत्र में जाकर विजय हेतु लड़ना पर्याप्त है क्योंकि जीत और हार उसके हाथ में नहीं होते। मनुष्य कर्म करने का अधिकारी है तथा फल उसके अधीन नहीं होता। विद्यार्थी को परीक्षा मे उत्तीर्ण होने के लिए परिश्रम करना चाहिए किन्तु वह फल के लिए उत्तरदायी नहीं हो सकता। भविष्य में और अधिक प्रयत्न करने का संकल्प लेना तो सर्वथा उचित है किन्तु फल में सन्तोष न मानकर व्याकुल होना अविवेक है। कुछ लोगों का मत है कि असन्तोष दैवी होता है, क्योंकि प्रायः सन्तुष्ट व्यक्ति परिश्रम करना छोड़ देते हैं तथा असन्तुष्ट व्यक्ति परिश्रम मे जुटे रहते हैं किन्तु यह तथ्यात्मक नहीं है। वास्तव में मनुष्य को कर्म करने की प्ररेणा अपनी कर्तव्य-भावना से लेनी चाहिए, न कि असन्तोष से। असन्तोष से व्याकुलता उत्पन्न होती है तथा आत्मविश्वास क्षीण होता है। मनुष्य को कर्म करने की प्रेरणा अपने भीतर से लेनी चाहिए तथा लक्ष्य निर्धारित करके उसके लिए पुरषार्थ भी करना चाहिए किन्तु फल से अतिहर्षित अथवा अतिखिन्न होना विवेकपूर्ण नहीं होता। केवल फल पर ही ध्यान देनेवाले अनेक लोग कठिनाई का बहाना लेकर कर्म ही नहीं करते अथवा कर्म को प्रारम्भ करके मध्य में ही छोड़ देते हैं किन्तु कर्म की प्रेरणा अपने भीतर से लेनेवाले लोग कर्म में डटे ही रहते हैं।
अनेक लोग कर्म को बोझ मानकर अपनी स्वास्थ्य-हानि के लिए कर्म को दोष देते हैं। वास्तव मे मनुष्य को फल की चिन्ता, भय और विश्राम का अभाव थकाते हैं। रुचि लेकर कर्म करने से कर्म रसमय हो जाता है और सुख एवं स्वास्थ्य प्रदान करता है। जीवन में विविध क्षेत्रों के कर्तव्य मनुष्य को घेर लेते हैं किन्तु मनुष्य को आवश्यकता के अनुसार प्राथमिकता देकर कर्म को निपटना चाहिए तथा सभी क्षेत्रों के प्रति जागरूक रहना चाहिए।
कर्म जीवन का महान् स्तम्भ है। मनुष्य के लिए कोई बहाना टटोलकर निष्क्रिय हो जाना और कर्म से दूर हटना सब प्रकार से घातक होता है। विवेकपूर्ण मनुष्य अपनी समस्त समस्याओं का उपाय खोजकर कर्म करता है तथा अपनी कठिनाइयों को सुलझा लेता है। पुरुषार्थ छोड़कर मनुष्य न केवल अपनी समस्याओं को अधिक जटिल बना लेता है, बल्कि अपने मन को अशान्ति और व्याकुलता से भर लेता है तथा आत्मविश्वास को क्षीण कर लेता है।
जीवन की कोई भी समस्या जटिल नहीं होती। प्रायः साधारण समस्याएँ भी हमें अत्यधिक जटिल और भयावह प्रतीत होती हैं क्योंकि हम धैर्यपूर्वक उन्हें पूरी तरह जानने और समझने का प्रयत्न नहीं करते। किसी भी समस्या के मूल तक पहुँचने तथा उसे समझने पर ही उसके उपाय सोचे जा सकते हैं। संकट का स्वरुप निकट से देखने पर भयावह नहीं रहता। वास्तव में प्रत्येक समस्या पूरी तरह से न देखने और न समझने के कारण ही जटिल और भयावह प्रतीत होती है। इसके अतिरिक्त हमारा भय ही समस्या को भयावह बना देता है। हमारा डर ही संसार को डरावना बना देता है।
यह एक तथ्य है कि हम अपनी समस्याओं से भयभीत होकर स्वयं ही उन्हें और अधिक उलझा देते हैं। हमें किसी सुलझे हुए आत्मीय व्यक्ति के साथ विचार-विमर्श करके तथा स्वयं सोच-विचार करके समस्याओं को सुलझाने का प्रयत्न करना चाहिए। अतएव आवश्यकता है वैज्ञानिकों की भाँति साहसपूर्वक खोजबीन, जाँच-पड़ताल, विश्लेषण और चिन्तन-मनन से समस्याओं को जड़ तक समझकर धैर्यपूर्वक उपाय करने की।
समस्याओं के स्वरूप, आकार और प्रकार पर चिन्तन करने से तथा उनके समाधान के लिए संघर्ष करने से धीरे-धीरे मनोबल ऊँचा होने लगता है, आत्मविश्वास जाग जाता है तथा अपने भीतर प्रसन्नता बन्धनों एवं रूढ़ियों आदि के कारण आक्रोश, प्रतिशोध और निराशा के तूफान से घिरकर कुछ व्यक्ति, अधिकतः तरुण और तरुणियाँ, जीवन से ही ऊब जाते हैं तथा समस्याओं की अँधियारी गुफा से बाहर निकलने के लिए उन्हें अपने जीवन का अन्त करने के अतिरिक्त अन्य कोई रास्ता नहीं सूझता। किन्तु यह तो कायरता का रास्ता होता है। वास्तव में ऐसी छटपटाहट, बेचैनी और बेसब्री की घड़ियाँ कभी टिकाऊ नहीं होतीं तथा चलती बदलिया की तरह कुछ देर में खुद ही निकल जाती हैं। यदि थोड़ी-सी समझदारी से उन्हें पार कर लें और एक बार समस्याओं को सुलझाने के लिए कुछ ठोस कदम उठाने का साहस कर लें तो उन्हें भी संसार में रहकर कुछ कर दिखाने का अवसर मिल जाए और वे पारिवारिक जन एवं मित्रगण को भी शोक में डूबने से बचा लें। कायरता को छोड़कर हिम्मत अपनाने से, छटपटाने के बजाए वज्र संकल्प लेने से और बेबस होने के बजाए कुछ कर दिखाने से, जीवन वीरता की गाथा हो जाता है। मंत्र है-"जागो उठो और बढ़ो, जीवन को उमंग से भर लो। जिन्दगी हिम्मत का सौदा है, हिम्म करो।"
साहस के मूल में मनुष्य की इच्छाशक्ति होती है। मनुष्य अपनी इच्छा-शक्ति से ही जीवन की समस्याओं के साथ संघर्ष करता है तथा मनुष्य की सफलता के पृष्ठ में इच्छा-शक्ति की आवश्यकता होती है। जीवन के किसी भी क्षेत्र में कुछ उपलब्धि करने के लिए इच्छा-शक्ति की आवश्यकता होती है। इच्छा-शक्ति को अभ्यास से बढ़ा सकता है। कभी-कभी सुरुचिपूर्ण भोजन की इच्छा होने पर भी तथा उसके सामने आने पर भी जान-बूझकर उसका त्याग कर देने से, जाड़ा-गरमी को यथाशक्ति सहन करने से, विचारपूर्वक उपवास करने से, दान दने से , कुछ देर तक निश्चल बैठकर ध्यान अथवा मंत्रजप करने से इच्छा-शक्ति बढती है और आत्मविश्वास दृढ होता है। जीवन से भागो मत। जीवन को एक मधुर संगीत बना लो। जागो, उठो और आगे बढ़ो।
विवेकशील मनुष्य अपने समय और शक्ति का सदुपयोग करके जीवन को गरिमामय बना लेता है। मनुष्य आलस्य अथवा अविवेक के कारण समय एवं शक्ति का उपयोग न करके अथवा निकृष्ट प्रलोभन के कारण उनका दुरुपयोग करके स्वयं अपने विनाश को निमन्त्रण देता है। समय और शक्ति का निरर्थक क्षय करना जीवन को नष्ट करना है। मनुष्य समय और शक्ति के सदुपयोग द्वारा ही जीवन को कृतार्थ कर सकता है। देहबल, बुद्धिबल, ज्ञानबल, धनबल इत्यादि का सदुपयोग करके ही मनुष्य जीवन को आनन्दमय बना सकता है। सदुपयोग करने पर ही बुद्धिबल एवं ज्ञानबल का महत्त्व है। सदुपयोग करने पर ही धनबल का महत्त्व है अन्यथा कंकर और पत्थर के सदृश्य निरर्थक है। लोक-कल्याण में आत्म-कल्याण भी सन्निहित होता है तथा लोक-कल्याण के लिए अपने समय और शक्ति का सदुपयोग करने से मानव-जीवन का धन्य हो जाता है।
मनुष्य को अपने व्यक्तित्व की एक नये देश की भाँति गहरी खोज करके अपनी क्षमताओं को पहचानना चाहिए तथा अपने भीतर बैठे हुए व्यापारी, वैज्ञानिक, दार्शनिक, चिन्तक, अध्यात्म-साधक, समाज-सुधारक, राजनीतिक, खिलाड़ी, सैनिक, चिकित्सक, कलाकार, गायक, कवि, वक्ता, लेखक इत्यादि को जगाकर उसी दिशा में आगे ले जाते हुए भी, हमें जीवन को एकांगी नहीं बनाना चाहिए तथा जीवन के विविध आयामों में समन्वय स्थापित करना चाहिए। जीवन के आयाम अनन्त होते हैं तथा जीवन की समग्रता ही जीवन को पूर्णता देती है।
समय और शक्ति का सदुपयोग तथा व्यक्तित्व का विकास करने के लिए उपयोगी एवं रचनात्मक कार्यों में व्यस्त रहना अत्यन्त आवश्यक है। खाली दिमाग शैतान का घर होता है।जिन्दगी के मुसाफिर के लिए जिसे एक लम्बी मंजिल तय करनी है और अभी बहुत कुछ देखना, समझना और करना है, खोने या खराब करने के लिए वक्त कहाँ हैं? इस जीवन के पूर्व क्या था अथवा इस जीवन के पश्चात् क्या होगा, यह मात्र मान्यता का विवादस्पद विषय है किन्तु वर्तमान जीवन तो सर्वथा सत्य है। काल के विगत होने पर करोड़ों-अरबों रुपयों से भी जीवन का एक क्षण वापिस नहीं लौट सकता। रिक्त समय में भी कोई ज्ञानवर्धक पुस्तक पढना चाहिए, अथवा कोई स्वस्थ मनोरंजन करना चाहिए अथवा विश्राम करना चाहिए। नासमझ लोग तनाव से मुक्ति पाने के लिए रिक्त समय में धूम्रपान, मदिरा-पान सेवन इत्यादि दुर्व्यसनों में फँसकर अपनी दुर्गति कर लेते हैं तथा परिवार एवं समाज के लिए अभिशाप बन जाते हैं। मनुष्य रिक्त समय का सदुपयोग अपनी रुचि के अनुसार स्वाध्याय, साहित्य, संगीत, कला, हास-परिहास, मनोरंजन, एकान्त सेवन, मौन साधना, मंत्रजप, भजन-कीर्तन, तीर्थयात्रा, पर्यटन, प्राकृतिक-सौन्दर्य-दर्शन, समाज सेवा अथवा विश्राम इत्यादि द्वारा कर सकता है। कभी-कभी महत्त्वकंक्षासूचक दिवास्वप्न देखना भी अत्यन्त सुखदायक एवं स्फूर्तिदायक होता है। हमें यह भली प्रकार जान लेना चाहिए। कि दुःखी और परेशान रहना हमारी मजबूरी नहीं है, बल्कि एक नासमझी है जिसे हम उपयोगी कार्यों में निरन्तर व्यस्त रह कर सरलता से दूर कर सकते हैं। निश्चय ही मनुष्य समय और शक्तियों के सदुपयोग से जीवन को गरिमामय बना चाहता है।
मनुष्य को वाणी के सदुपयोग पर विशेष ध्यान देना चाहिए। मनुष्य वाणी से दूसरों की अपार सहायता अथवा हानि कर सकता है तथा दूसरों को सुख अथवा दुःख दे सकता है। वास्तव में मनुष्य प्रायः शब्द के मह्त्त्व तथा अमित प्रभाव को नहीं समझते। हमें यह जानना चाहिए कि वाणी का प्रयोग कहाँ, कितना और किस प्रकार करना आवश्यक है। अधिक बोलने से शक्ति का क्षय होता है। थोड़े शब्दों द्वारा अधिक अभिव्यक्ति कर देना एक महत्त्वपूर्ण गुण है। मनुष्य वाणी के सदुपयोग से शत्रुओं को मित्र तथा दुरुपयोग से मित्रों का शत्रु बनाकर अपना ही हित अथवा अनहित कर लेता है। कोकिला किसीको क्या देती है किन्तु वह मधुर ध्वनि से मनुष्यों का चित्त हरण कर लेती है तथा काक किसी का क्या लेता है। किन्तु वह कर्कश ध्वनि से घृणा उत्पन्न कर देता है। वाणी में भद्रता, सौम्यता, शालीनता और शीतलता होनी चाहिए। अनेक बार विनोद (हँसी-मजाक) में भी कहे हुए कटु एवं व्यंग्यात्मक शब्द शत्रुता उत्पन्न कर देते हैं। मनुष्य को हास-परिहास में भी सावधान रहकर मर्यादा का पालन करना चाहिए तथा कोई असहनीय शब्द कभी नहीं कहना चाहिए। कम बोलना, धीरे बोलना, प्रसन्न मुद्रा में मुस्कराकर बोलना तथा आत्मीयता से ओत-प्रोत होकर बोलना जादू का –सा प्रभाव करता है। कटु वाणी सुनने पर भी अनुत्तेजित रहकर मधुर एवं शीतल वाणी बोलना एक तप है। परस्पर विचार-विमर्श करते हुए भी हमें सावधान रहना चाहिए कि किसी शब्द अथवा कथन-शैली से कटुता उत्पन्न न हो तथा यदि किसी कारण कटुता झलकने लगे तो तुरन्त वार्तालाप में युक्तिपूर्वक विषयान्तर कर देना चाहिए। हम किसी सिद्धान्त पर दृढ रहकर भी मधुरभाषी रह सकते हैं।
उत्तम पुरुषों की सत्यनिष्ठ एवं प्रेमपूर्ण वाणी चेत्तना का मिलन होती है तथा उसका प्रभाव अपरिमित होता है। वाणी का उद्देश्य प्रसन्नता का वातावरण उत्पन्न करना, वक्ता और श्रोता को एक धरातल पर ला देना तथा हृदयों का जोड़ना होता है। वास्तव में वार्तालाप करना भी एक कला है। "आपका धन्यवाद,""मुझे खेद है," "क्षमा करें," "शुभ दिवस." "शुभ रात्रि" इत्यादि सद्भावनासूचक शब्दों का आदान-प्रदान परस्पर सम्बन्धों में मधुरता उत्पन्न करता है। किसी के उत्तम कार्य अथवा सहयोग के लिए प्रशंसात्मक शब्द कहने में कृपणता नहीं होनी चाहिए। किसी अन्य व्यक्ति की कृपापूर्ण उदारता के लिए कृतज्ञता प्रकाशन करना मनुष्य की उत्तमता का तथा कृतघ्न होना अधमता का उद्घोष करता है। मधुर वचन कहने मे भी कैसी दरिद्रता? किन्तु प्रशंसात्मक शब्द सरल और स्वाभाविक होने चाहिए। प्रशंसा मनुष्य को भला कार्य की पुनरावृत्ति करने के लिए (फीडबैक) प्रेरित करती है। प्रशंसा की भूख प्रायः महापुरुषों को भी सताती है तथा प्रशंसा सुनना सभी को सुख देता है। सद्भावनापूर्ण प्रशंसा करना एक गुण है तथा मिथ्या प्रशंसा अथवा चापलूसी करना पतनकारक दोष होता है। मर्यादित प्रशंसा औषधि की भाँति मानसिक ऊर्जा देती है तथा आत्मविश्वास बढ़ाती है। गुणों की प्रशंसा करना गुणों को प्रोत्साहित करना है। सहज एवं स्वाभाविक प्रशंसात्मक उद्गार मन को तृप्त कर देते हैं। प्रशंसा के द्वारा हम अन्य व्यक्ति के गुणों को न केवल स्वीकार करते हैं, बल्कि उनके प्रति आदर भी प्रकट करते हैं तथा अपनी उदारता का परिचय भी देते हैं। दूसरी ओर प्रशंसित व्यक्ति अपने गुणों एवं कार्यों की उत्तमता की पुष्टि से प्रोत्साहित होता है। विवेकशील व्यक्ति जानता है कि प्रशंसा गुणों की ही की गई है, अतः वह प्रशंसा सुनकर गर्वोन्मत्त नहीं होता, बल्कि अधिक ग्रहणशील और सतर्क हो जाता है। प्रशंसा अमृत है किन्तु मिथ्याभिमानी के लिए विष हो जाती है। समयानुसार उचित प्रशंसा का आदान-प्रदान करना सभ्य समाज का लक्षण है।
A Memoir of the Very Rev. Theobald Mathew; With an Account of the Rise and
Progress of Temperance in Ireland (Birmingham)
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A Memoir of the Very Rev. Theobald Mathew; With an Account of the Rise and
Progress of Temperance in Ireland (with Morris's "The Evil Effects of
Drunkennes...
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