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Thursday, June 25, 2009

सूप से कानवाला राजा

एक राजा था। एक दिन वह शिकार खेलने निकला। शिकार का पीछा करते-करते वह बहुत दूर निकल गया, पर शिकार हाथ लगा नहीं। शाम हो आई। भूख भी जोर की लगी। राजा रास्ता भूल गया था, इसलिए वापस अपने महल नहीं जा सकता था। भूख की बात सोचता-सोचता वह एक बरगद के नीचे जा बैठा। जहां बैठे-बैठे उसकी निगाह चिड़ा-चिड़ी के एक जोड़े पर पड़ी। उसे जोर की भूख लगी थी, इसलिए उसने चिड़ा-चिड़ी को मारकर खा जाने की बात सोची। बेचारे चिड़ा-चिड़ी चुपचाप अपने घोंसले में बैठे थे। राजा ने उन्हें पकड़ा, उनकी गरदन मरोड़ी, और उन्हें भूनकर खा गया। इससे राजा को बहुत पाप लगा, और तुरन्त राजा के कान सूप की तरह बड़े हो गये।
राजा गहरे सोच में पड़ गया। अब क्या किया जाय? वह रात ही में चुपचाप अपने राजमहल में पहुंच गया, और दीवान को बुलाकर सारी बात कह दी। फिर कहा, "सुनिए दीवानजी। आप यह बात किसी से कहिए मत। और किसी को यहां इस सातवीं मंज़िल पर आने भी मत दीजिए।"
दीवान बोला, "जी, ऐसा ही होगा।"
दीवान ने किसी से कुछ कहा नहीं। इसी बीच जब राजा की हजामत बनाने का दिन आया, तो राजा ने कहा, "सिर्फ नाई को ऊपर आने दीजिए।"
अकेला नाई सातवीं मंज़िल पर पहुंचा। नाई तो राजा के सूप-जैसे कान देखकर गहरे सोच में पड़ गया।
राजा ने कहा, "सुनो, धन्ना! अगर मेरे कान की बात तुमने किसी से कही, तो मैं तुमको कोल्हू में डालकर तुम्हारा तेल निकलवा लूंगा। समझ लो कि मैं तुमको जिन्दा नहीं छोड़ूंगा।"
नाई ने हाथ जोड़कर कहा, "जी, महाराज! भला, मैं क्यों किसी को कहने लगा!"
लेकिन नाई के पेट में बात कैसे पचती! वह इधर जाता और उधर जाता, और सोचता कि बात कहूं, तो किससे कहूं? आखिर वह शौच के लिए निकला। बात तो उसके पेट में उछल-कूद मचा रही थी—मुंह से बाहर निकलने को बेताब हो रही थी। आखिर नाई ने जंगल के रास्ते में पड़ी एक लकड़ी से कहा:
राजा के कान सूप-से, राजा के काम सूप-से।
लकड़ी ने बात सुन ली। वह बोली:
राजा के कान सूप से, राजा के कान सूप-से।
उसी समय वहां एक बढ़ई पहुंचा। लकड़ी को इस तरह बोलते देखकर बढ़ई गहरे सोच में पड़ गया। उसने विचार किया कि क्यों न मैं इस लकड़ी के बाजे बनाऊं और उन्हें अपने राजा को भेंट करूं? राजा तो खुश हो जायगा। बढ़ई ने उस लकड़ी से एक तबला बनाया, एक सारंगी बनाई और एक ढोलक बनाई। जब वह इन नए को लेकर राजमहल में पहुंचा, तो राजा ने कहलवाया--"महल के निचले भाग में बैठकर ही अपने बाजे बजाओ।"
बढ़ई ने बाजे निकालकर बाहर रखे। तभी तबला बजने लगा:
राजा के कान सूप-से, राजा के कान सूप-से।
इस बीच अपनी बारीके आवाज में सारंगी बजने लगी:
तुझको किसने कहा? तुझको किसने कहा।
तुरन्त ढोलक आगे बढ़ी और ढप-ढक करके बोलने लगी:
धन्ना नाई ने कहा, धन्ना नाई ने कहा।
राजा सबकुछ समझ गया। उसने बढ़ई को इनाम देकर रवाना किया और उसके बनाए सब बाजे रख लिए, जिससे किसी को इस भेद का पता न चले।
बाद में राजा ने धन्ना नाई को बुलाया और पूछा, "क्यों रे,धन्ना! सच-सच कह, तूने बात किसको कही थी?
नाई बोला, "महाराज, बात तो किसी से नहीं कही, पर मेरे पेट में बहुत किलबिलाती रही, इसलिए मैंने एक लकड़ी को कह दी थी।"
राजा ने नाई को राजमहल से निकलवा दिया और पछताने लगा कि उसने एक नाई को इस बात की जानकारी क्यों होने दी।

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