एक बुढ़िया थी। एक बार उसकी हथेली मे फोड़ा हुआ। जब फोड़ा फूटा, तो उसमें से एक गिलहरी निकली। बुढ़िया ने गिलहरी के लिए पेड़ पर एक झोली बांध दी और उसमें उसको सुला दिया। घर का काम करते-करते बुढ़िया कभी इधर जाती, कभी उधर जाती, और गिलहरी को झ़लाते-झुलाते लोर गाती:
हाथ के लूंगी हजार।
पैर के लूंगी पांस सौ।
नाक के लूंगी नौ सौ।
फिर भी अपनी गिलहरीबाई को धरम रीति से दूंगी।
सो जाओं, गिलहरीबाई, सो जाओं।
एक दिन पास के गांव का एक राजा शिकार के लिए निकला। बुढ़िया की कुटिया के पास से जाते-जाते उसने गिलहरीबाई की लोरी सुनी। राजा सोचने लगा—‘भला, यह गिलहरीबाई कैसी होगी? जब बुढ़िया इसके लिए इतने अधिक रूपए मांग रही है, तो जरूर ही गिलहरीबाई बहुत रूपवती होगी!’
राजा ने गिलहरीबाई से ब्याह करने का विचार। राजा बुढिया के पास गया, और उसने बुढ़िया से कहा, "मांजी, मांजी! आप यह क्या गा रही है? आपकी गिलहरी कहां है? मुझकों अपने बेटी दिखा दो। मै उससे ब्याह करना चाहता हूं।"
बुढिया बोली, "भैया! आप तो राजा हैं। भला आप गिलहरी से कैसे ब्याह करेंगे? वह तो जानवर की जान है। लोरी तो मै इस गिलहरीबाई के लिए गाती हूं। मेरी दूसरी बेटी नही है।"
राजा ने बुढ़िया की बात नही मानी। उसने कहा, "मांजी, भले ही आपकी गिलहरीबाई जानवर हो! मै तो उसी से ब्याह करूंगा।"
सुनकर बुढ़िया बोली, "तो जाइये, रूपए ले आइये। आप मुझे मेरा यह कुल्हड भरकर रूपये देगें, तो मै अपनी बेटी का ब्याह आपसे कर दूंगी।"
राजा रूपए लेने गया। बुढ़िया लोभिन थी। ढेर सारे रूपए लेने की एक तरकीब उसने सोच ली। एक बड़ा-सा गडढा खोदा। गडढे पर कोठी रख दी। कोठी पर एक मटका रखा। मटके पर गगरी रखी और गगरी और कुल्हड़ रख दिया। ऊपर से नीचे तक सबके पेंदों मे छेद बना दिया।
राजा आया। राजा के लोग कुल्हड़ मे रूपए डालने लगे, पर कुल्हड़ तो भरता ही न था। आखिर जब बहुत सारे रूपए डाल दिये गए तो कुल्हड़ भर गया। फिर बुढ़िया ने गिलहरीबाई का ब्याह राजाक के साथ कर दिया।
राजा गिलहरीबाई को ब्याहकर अपने घर ले आया। राजा ने गिलरीबाई के लिए सोने का एक बढ़िया पिंजर बनवाया, और उसे अपने महल की सांतवीं मंजिल पर टंगवा दिया। राजा का हुक्म हुआ कि वहां कोई जाया नही। सब सोचने लगे कि राजा किसे ब्याहकर लाये है? गिलहरीबाई को रोज बढ़िया-बढिया दाने डाले जाते थे। गिलहरीबाई दाने खाती और अपने पिंजरे मे कूदा करती। राजा रोज सुबह शाम गिलहरीबाई से मिलने जाता। एक बार राजा के दीवान ने जानना चाहा कि रानी कोन है? दीवान ने परीक्षा करने की बात सोची और राजा से पूछा, "राजा जी, राजा जी! क्या आपकी रानी कुछ काम करना जानती है?"
राजा ने कहा, "हां जानती है।"
दीवान ने पूछा, "क्या रानी धान मे से चावल तैयार कर देंगी?" राजा ने हां कह, और धान की वह टोकरी गिलहरीबाई के पास रख दी। गिलहरीबाई समझ गई। उसने अपने पैने दांतों से धान के छिलके इस खूबी क साथ निकाले कि एक भी दाना टूटा नही और एक ही रात मे सारी टोकरी चावलों से भर दी।
सवेरे राजा टोकरी दीवान के पास ले गए। चावल देखकर दीवान तो दंग रह गया! एक बार और रानी की परीक्षा लेने के विचार से दीवान ने पूछा, "राजा जी! क्या आपकी रानी गीली मिटटी पर चित्रकारी कर सकती है?"
राजा ने कहा, "हां, इसमें कोन बड़ी बात है?"
दीवान ने एक कमरे मे गीली मिटटी तैयार करवा दी ओर राजा से कहा, "रात को रानीजी इस पर अपनी चित्रकारी करें।"
गिलहरीबाई अपनी दूसरी सब सहेलियों का बुला लाई और फिर सब गिलहरियों ने कमरे मे इधर-से-उधर उधर-से-इधर दौड़ने की धूम मचा दी। सवेरा होते-होते तो मिटटी पर बढ़िया चित्रकारी तैयार हो गई। सबेरे सारी चित्रकारी देखकर दीवान तो गहरे विचार मे डूब गया। उसने कहा, "सचमुच रानी तो बहुत ही चतुर हैं।"
बाद मे एक बार राजा को दूसरे गांव जाना पड़ा। राजा ने पिजरे मे दाना-पानी रख दिया। राजा को लौटने मे देर हो गई और पिंजरे का दाना-पानी खत्म हो गया। गिलहरीबाई को बहुत प्यास लगी। गले मे कुल्हड़ बांध कर वह कुंए पर पानी भरनेगई। जब वह कुंए पर खड़ी-खड़ी पानी भर रही थी, उसी समय ऊपरसे शंकर-पार्वती का रथ निकला।
शंकर ने पूछा, "पार्वती जी! आप जानती है, यह गिलहरी कौन है?"
पार्वती ने कहा, "नही।"
शंकर बोले, "यह तो एक स्त्री है। इसे एक देव का शाप लगा है, इसलिए इसको गिलहरी क जन्म लेना पड़ा है।"
पार्वती को दया आ गई, और उन्होने शंकर से विनती की कि जैसे भी बने, वे गिलहरी को फिर से स्त्री बना दें। जैसे ही शंकर ने ऊपर सेपानी छिड़का, वैसे ही गिलहरी सोलह साल की सुन्दरी बन गई। सुन्दरी बनने के बाद गिलहरीबाई राजा के महल मे पहुची। जब राजा घर लौटे तो उनको सारा हाल मालूम हुआ। राजा बहुत खुश हुआ और वे आराम से रहने लगे।•
A Memoir of the Very Rev. Theobald Mathew; With an Account of the Rise and
Progress of Temperance in Ireland (Birmingham)
-
A Memoir of the Very Rev. Theobald Mathew; With an Account of the Rise and
Progress of Temperance in Ireland (with Morris's "The Evil Effects of
Drunkennes...
11 hours ago
No comments:
Post a Comment