प्रकृति ने मनुष्य को अद्भुत कल्पना-शक्ति प्रदान की है। मनुष्य कल्पना-शक्ति के सहारे नये अनुसंधान एवं आविष्कार कर सकता है, कला और साहित्य के क्षेत्र में सर्जन कर सकता है, भविष्य के लिए उत्तम योजनाएँ बना सकता है तथा जीवन को नई दिशा दे सकता है। कल्पना भय को भयंकर बना देती है तथा कल्पना ही आशा और आत्मविश्वास को जगाकर भय को दूरकर सकती है। अतएव हमें दिन् का प्रारम्भ ऐसी अनहोनी कल्पना करके नहीं करनी चाहिए कि हम पर कोई संकट आ रहा है । अपनी शय्या से उठने से पूर्व निराधार भयप्रद कल्पना अर्थात् विपत्ति की आशंका करने के बजाए ईश्वर की प्रार्थना के साथ कल्याणप्रद आशा और विश्वास को मन में प्रतिष्ठित कर लेना चाहिए। ऐसी कल्पना करने से क्या लाभ है कि कुछ दुर्भाग्यपूर्ण घटना होनेवाली है जबकि हम अनुभव से यह जानते हैं कि इस प्रकार की कल्पना नितान्त निराधार एवं मिथ्या होती है तथा उसका सत्य होना सम्भव नहीं है। हम ऐसा विश्वास क्यों न करें कि परमात्मा निरन्तर हमारे साथ है तथा वह प्रत्येक पग पर हमारी रक्षा करेगा। हम मिथ्या कल्पना एवं चिन्ता करके अपने सुखमय क्षणों को दुःखमय बना देते हैं तथा अपने को दयनीय बना लेते हैं। अतएव हमें मिथ्या कल्पना करने की आदत करने कीआदत को दृढ़तापूर्वक छोड़ देना चाहिए तथा उज्जवल भविष्य की आशा को हृदय में धारण करते हुए सुखद कल्पना करनी चाहिए। मनुष्य दिनभर अपने विचारों के साथ ही विविध प्रकार की कल्पना भी करता रहता है। हमारे चिन्तन के स्वस्थ होने पर कल्पना बी स्वस्थ एवं सुखद हो जाती है। कल्पना का ऐश्वर्य मन को समृद्ध कर देता है। कल्पना-शक्ति का समुचित विकास एवं सदुपयोग मनुष्य के अभ्युदय में अत्यन्त उपयोगी होता है।
प्रायः मनुष्य भययुक्त अथवा भयमुक्त, तनावयुक्त अथवा तनावमुक्त, चिन्तायुक्त अथवा चिन्तामुक्त रहने की आदत बना लेता है। अनेक लोग संकटों में भी हँसते-मुस्कराते हुए मस्त रहते हैं तथा अनेक लोग सुख-सुविधा में भी रोते ही रहते हैं। कोई सदा आशावादी होकर सुखमय भविष्य की आशा करते हैं तथा कोई अकारण ही सदा निराशावादी होकर दुर्गतिमय भविष्य की कल्पना में फँसे रहते हैं। मनुष्य चिन्तन के पैनेपन संकल्प-शक्ति और धैर्य से अपनी पुरानी दुःखद आदतों को तोड़ सकता है और नई सुखद आदतों को बना सकता है। जिस प्रकार एक कुशल कृषक खेती से अनावश्यक अथवा हानिकार घास को उखाड़ फेंकता है, एक कुशल व्यक्ति भी चिन्तन द्वारा अपने मन में विषैले कीटाणु उत्पन्न करने वाले छल,कपट, ईर्ष्या-द्वेष, भय, चिन्ता और तनाव को निकाल फेंकता है। आत्म-कल्याण के लिए जीवन-शैली का बदलना आवश्यक ही है। जीवन-क्रम तो अबाध गति से चलता ही रहता है और आयु भी क्षीण होती रहती है, फिर मनुष्य क्षण-क्षण में तथा बात-बात पर क्यों उद्विग्न और दुखी होता रहे? उमंगभरी आदतों को अपनाने से जीवन ही उमंगभरा हो जाता है।
यद्यपि भय होना स्वाभाविक है तथा प्रायः सभी को विभिन्न अंशों में और विभिन्न रूपों से ग्रस्त करता है, तथापि भय का एक उत्तम पक्ष यह और कि भय का प्रारंभिक रूप साहस का उत्प्रेरक भी होता है। भय मनुष्य को चिन्तन-मनन और विचार करने के लिए उत्प्रेरित करके तनाव के कारणों को समूल नष्ट करने के लिए साहस और उत्साह से भर देता है। भय मनुष्य को जाग जाने, उठ खड़े होने तथा विषम परिस्थिति में ऐसे भी बाँके हैं जो हर वक्त भयभीत रहकर पीले पड़ गए थे। किन्तु जब एक बार भय का सामना करने के लिए डट गे तो सदा के लिए निर्भय हो गए। कुचल देनेवाला तथा रक्तचाप, अम्लपित्त, उदरव्रण, शिरःशूल, हृदयाघात आदि कष्टकारक रोद उत्पन्न करनेवाला भय उत्प्रेरक होकर मनुष्य को शूरवीर तथा विचारशील बना देता है। वास्तव में भय के भीतर घुसकर उसे समझ लेना ही उसे नष्ट करना है। साहस को जगाते ही भय का भूत गायब हो जाता है।साहस जीवन का अमूल्य रत्न है। साहसी लोग आत्मविश्वास के धनी होते हैं तथा जीवन में साहसपूर्वक आगे बढ़ते ही रहते हैं। जिस प्रकार गहरे कुएँ के जल को बहुत नीचे से ऊपर खींचने के लिए अतिरिक्त बल लगाकर प्राप्त किया जाता है, उसी प्रकार निराशा के गड्ढे से आशा और विश्वास के शीतल जल को अतिरिक्ति बल लगाकर ही प्राप्त किया जा सकता है। साहस को जगाने पर मनुष्य विषम कठिनाइयों और अवरोधों से जूझकर पुराने तारतम्य को तोड़ सकता है तथा परिस्थितियों पर विजय प्राप्त कर सकता है।
A Critical and Exegetical Commentary on the Epistles to the Ephesians and
to the Colossians (Abbott)
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A Critical and Exegetical Commentary on the Epistles to the Ephesians and
to the Colossians (International Critical Commentary volume; New York: C.
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2 days ago
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