मानव-स्वभाव के प्रमुख दोष हैं-भय एवं चिन्ता तथा क्रोध। भय और चिन्ता का अविच्छेद्य युग्म है तथा वे मनुष्य के महान् शत्रु है। भय मनुष्य को सत्य के संदर्शन से दूर हटा देता है। सत्य की साधना के मार्द में भय का निवारण करना अत्यन्त आवश्यक होता है। भय मनुष्य की बुद्धि को अन्धकार की भाँति ढँककर उसे दयनीय बना देता है। वास्तव में मनुष्य भय की काली चादर को स्वयं ही ओढता है तथा स्वयं ही उसे उतारकर फेंकने में समर्थ होता है। भय किसी विषम परिस्थिति के समुपस्थित होने पर अनिष्ट की आशंका से उत्पन्न होता है तथा वह अवेचनन की परतों में संचयीकृत पुराने संस्करों को उद्दीप्त करके मिथ्या कल्पनाओं एवं भ्रमों को जन्म देकर आत्मविश्वासों को क्षीण करने लगता है। भयग्रस्त मनुष्य दयनीय अवस्था को प्राप्त होकर अनावश्यक मिथ्या एवं चिन्ताप्रद कल्पनाओं का जाल बुनकर स्वयं ही उसमें फँसने लगता है। मन का कल्पित मिथ्या जाल उसे सच्चा प्रतीत होता है तथा वह स्वयं से ही भयभीत हो जाता है। बय के सामने घुटने टेकने से वह उग्र हो जाता है तथा उसे मिथ्या समझ लेने से वह क्षीण होकर तत्काल लुप्त हो जाता है। भय से मनुष्य के सुख और शान्ति लुप्त हो जाते हैं और वह स्वरचित मिथ्या एवं काल्पनिक चिन्ताओं से घिरकर अकारण दुःखी रहने लगता है। निश्चय ही मनुष्य चिन्तन के पैनेपन से, विचार की शक्ति से तथा ध्यान के अभ्यास द्वारा चैतन्य के पैनेपन से, विचार को जगाते रहने और ध्यान का अब्यास रकते रहने की आवश्यकता होता है। सभी प्रकार के भय हमारे पाले हुए तथा काल्पनिक हैं तथा हम उनसे तत्काल मुक्त हो सकते हैं। भय और चिन्ता हमारे स्वभाव का अंग नहीं है तथा वे हमारे द्वारा ही अपने ऊपर थोपे हुए हैं और हम ही उन्हें उखाड़ फेंकने में सक्षम हैं। हमें घबराहट से नहीं, समझदारी से काम लेना चाहिए। चिन्तन, विचार और ध्यान के अभ्यास से धीरे-धीरे खोया हुआ आत्मविश्वास लौट आता है तथा मनुष्य भय पर विजय पाकर तथा प्रसन्न रहकर उमंगभरा जीवन बिता सकता है।
मनुष्य में बुद्धिबल सर्वोपरि है तथा मनुष्य अपनी समस्त समस्याओं का समाधान बुद्धि की प्रखरता से ही करता है। संसार की विविध धर्मग्रन्थों के श्रेष्ठ मंत्रों में बुद्धि की शुद्धता के लिए प्रार्थना की गई है। मनुष्य चिन्तन द्वारा विचार को शुद्ध एवं सशक्त बनाकर ही अपनी समस्त उलझनों से मुक्त हो सकता है। ध्यान के नियमित अभ्यास से चिन्तन-शक्ति अत्यन्त तीव्र हो जाती है, विचार स्पष्ट हो जाते हैं तथा मनुष्य में संकल्प (दृढ निश्चय) लेकर कर्म में जुट जाने का सामर्थ्य जाग जाती है। मनुष्य स्वस्थ चिन्तन एवं ध्यान के अभ्यास द्वारा भय, चिन्ता, क्रोध, आवेश तथा अन्य मानसिक दुर्बलताओं और दोषों से मुक्त होकर विषम परिस्थितियों को सुगमता से पार कर सकता है। मनुष्य में नई चेतना, नई स्फूर्ति, नए दृष्टिकोण और नई जीवन-शैली का अभ्युदय होने पर उसका जीवन आत्मविश्वास, उमंग और उल्लास एवं आशा और उत्साह से भरपूर होकर आनन्दमय हो जाता है।
संसार में दुर्दान्त शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना, इतना कठिन नहीं है जितना अपने मन पर विजय प्राप्त करना, अपने उद्वेगों को संयत करना अथवा आत्म-संयम एवं आत्म-नियंत्रण करना है। अनेक महापुरुष मन के दोषों और दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त करके निर्भय, निर्द्वन्द्व एवं निर्बन्ध हो जाते हैं तथा दूसरों के प्रेरणा-स्रोत बन जाते हैं। बस, दृंढ संकल्प करके धैर्यपूर्वक चिन्तन एवं प्रयत्न में जुट जाना है। सफलता का मंत्र है-जागो, उठो और आगे बढ़ते रहो।
भय,क्रोध, शोक, निराशा इत्यादि उद्वेगों एवं अन्य मनोवेगों का प्रभाव हमारे समस्त शरीर पर विशेषतः स्नायुतंत्र, पाचनतंत्र, मस्तिष्क और हृदय पर पड़कर उन्हें जर्जरित, क्षीण एं दुर्बल करता रहता है किन्तु हमारी जीवनी-शक्ति भी प्रतिरोधात्मक संघर्ष द्वारा हमारी रक्षा में निरन्तर सक्रिय रहती है। घबरा जाने और उत्तेजित होने पर हमारे शरीर और मस्तिष्क के एक-एक सेल को अपनी जीवनी-शक्ति को द्वारा लड़ना पड़ता है। जीवनी-शक्ति के मूल में स्थित हमारी जिजीविषा (जीने की इच्छा) विनाश एवं मृत्यु के भय की अपेक्षा अत्यधिक बललतदी होती है। हम अपने भयादि क्षयकार मनोवेगों को पहचानकर तथा उनके कारणों को समझकर चिन्तन और कर्म द्वारा उन पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। अपमान का भय, सुख-सुविधाओं के छूटने का भय अथवा मृत्यु का भय चिन्ता के साथ जुड़कर शक्ति को चाट जाता है तथा आत्मविश्वास को क्षीण कर देता है। मनुष्य अपनी प्रच्छन्न अनन्त शक्ति को पहचानकर तथा उसे जगाकर सहसा बलवान् हो जाता है तथा उसका अनादर करने पर दीन-हीन हो जाता है। अपने पास रखे हुए हीरे के मूल्य को न जानकर तथा उसका उपयोग न करके राजा भी रंक ही है। प्रत्येक मनुष्य में विविध प्रकार की अनन्त सम्भावनाएँ प्रसुप्त रहती हैं तथा उनको जगाने पर ही मनुष्य किसी दिशा में आगे बढ़ने के लिए संघर्ष कर सकता है तथा जीवन को सार्थक बना सकता है।
A Memoir of the Very Rev. Theobald Mathew; With an Account of the Rise and
Progress of Temperance in Ireland (Birmingham)
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A Memoir of the Very Rev. Theobald Mathew; With an Account of the Rise and
Progress of Temperance in Ireland (with Morris's "The Evil Effects of
Drunkennes...
10 hours ago
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