जीवन की चादर में गुण-दोष तथा सुख-दुःख के तार ऐसे गुथे हुए हैं कि उन्हें पृथक् नहीं किया जा सकता। यदि जीवन में दोष न हो तो गुणों का क्या महत्त्व है तथा दुःख न हो तो सुख की क्या विशेषता है? यदि दोष और दुःख न हो तो संघर्ष किस उद्देश्य के लिए होगा? दोष से निर्दोषता की ओर, दुःख से आनन्द की ओर, अपूर्णता से पूर्णता की ओर, मृत्यु से अमरता की ओर तथा अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ते रहना ही जीवन है। वास्तव में असत्य सत्य की ओर इग्डिग करता है और सत्य का प्रेरक होता है।
मनुष्य का भीतर आनन्द का अक्षय स्रोत होता है तथा बहिर्जगत् सौन्दर्य से परिपूर्ण है किन्तु दोषमय चिन्तन मन में कटुता भर देता है तथा बहिर्जगत् दुःमय प्रतीत होने लगता है। मनुष्य जब सत्य, प्रेम और न्याय के मार्ग को त्यागकर तथा पाशविक कामनाओं के वशीभूत होकर संसार में लूट-खसोट, शोषण, उत्पीड़न, अन्याय तथा परिग्रह का मार्ग अपना लेता है, वह मन की शान्ति खो बैठता है तथा अपने लिए और समाज के लिए अशान्ति का कारण बन जाता है। संसार में रहकर सांसारिक वस्तुओं की कामना होना स्वाभाविक है तथा कामना को दोष नहीं कहा जा सकता, किन्तु भौतिक कामना का दास बनकर संयम खो बैठना अविवेक है।
यद्यपि विवेकशील पुरुष दैहिक आवश्यकताओं और माँगों के प्रति जागरूक रहता है, तथापि उसका जीवन ऊर्ध्वगामी होता है तथा बौद्धिक चिन्तन, नैतिक कार्य एवं आध्यात्मिक साधना के द्वारा उसकी समस्त अभिरुचि का परिष्कार हो जाता है। विवेकशील पुरुष की कामना का उदात्तीकरण हो जाता है। उसकी उदात्त कामना लोक-मंगलकारी हो जाती है। मात्र पशु-स्तर पर जीवन-यापन करने वाले मनुष्य की कामना ध्वंसकारी हो जाती है। मानव-जाती का इतिहास ऐसे अनेक लुटेरों के भीषण कृत्यों से भरा पड़ा है जिन्होंने दूसरे देशों में जाकर कत्लेआम, लूट-पाट और विनाशलीला करने में अपनी शान समझी अथवा राज्य-सत्ता हड़पने के लिए पिता और भाइयों का भी वध करने में संकोच नहीं किया। भौतिक वैभव से भरपूर महलों मे रहकर अनैतिक विलासिता में डूबे हुए ऐसे लोग मानव-जाति के कलंक ही हैं। निरंकुंश पाशविक कामना की तृप्ति कभी संभव नहीं होती तथा अतृप्ति और असन्तोष के कारण शान्ति भी प्राप्त नहीं होती।
वास्तव में कामना के मूल में स्थित काम का उद्वेग एक ऊर्जा है जिसका सदुपयोग कल्याणकारी तथा दुरुपयोग विध्वंसाकारी होता है। कामना और ऊर्धवगामी एवं उदात्त होकर मंगलकारी तथा निम्नगामी एवं निकृष्ट होकर विनाशकारी हो जाते है।
मनुष्य चिन्तन के अभाव में कामना के वेग पर नियन्त्रण अर्थात् आत्मसंयम खो बैठता है तथा कामान्ध होकर वह स्वयं अपने विनाश को निमंत्रण देता है। कामान्ध व्यक्ति निर्लज्ज होकर वह स्वयं अपने विनाश को निमंत्रण देता है। कानान्ध नहीं चाहता। कामान्ध व्यक्ति दुस्साहस करता है तथा विवेक-भ्रष्ट हो जाता है। कामान्धता के कारण अगणित अपहरण तथा हत्या आदि होते हैं। कामान्ध व्यक्ति अपराध-जगत् में कामान्धता के कारण दूसरों की दुर्गति देखकर भी उनसे सबक नहीं सीखता तथा अपने परिवारिक जन और मित्रों को मार्ग का बाधक तथा शत्रु मान लेता है। वह कुकृत्यों में ऐसे ही फँसता चला जाता है जैसे पशु कीचड़ में गिरकर धँसता चला जाता है। कामान्धता मनुष्य को भटकाकर विनाश के द्वार पर खड़ा कर देती है। कामान्ध व्यक्ति मानो आगे से खेलता है तथा अपनी शक्ति, धन और प्रतिष्ठा को खोकर बाद में पछताता रह जाता है। जो लोग दूसरों की मूर्खता के परिणाम देखकर भी न आँखें खोलते है और न सँभलते, वे शोचनीय होते हैं। मन की किसी कामना का बरबस दमन करना कुण्ठा उत्पन्न कर देता है और अपनी समस्त ऊर्जा किसी सर्जनात्मक कार्य में लगाकर तथा मन को समझाकर कामना का शमन एवं उदात्तीकरण कर लेता है। कामना का विवेकपूर्ण शमन करना आत्मविश्वास को बढ़ाता है तथा व्यक्तित्व को चमका देता है।
कामना के तृप्त अथवा पूर्ण न होने पर मन में संबद्ध व्यक्ति के प्रति घृणा, वैर और क्रोध का भाव उत्पन्न हो जाता है। इसके अतिरिक्त किसी से अपनी कोई आशा पूर्ण न होने पर भी क्रोध उत्पन्न हो जाता है। क्रोध में अंधकार जाग जाता है तथा क्रोधान्ध मनुष्य सत्य प्रेम और न्याय से दूर हटकर विवेकभ्रष्ट हो जाता है। क्रोधान्ध मनुष्य बर्बर, कठोर और क्रूर हो जाता है तथा सन्तुलन खोकर स्वयं भी अशान्त एवं व्याकुल हो जाता है। अदम्य उत्तेजना मनुष्य के स्नायु-मण्डल और मस्तिष्क में तूफान की दशा उत्पन्न कर देती है। क्रोध के आवेश में नेत्र लाल होकर आग बरसाने लगते हैं, मुख की मुद्रा भयानक हो जाती है, हाथ-पैर काँपने लगते हैं और सारा शरीर ओजहीन हो जाता है; क्रोधान्ध व्यक्ति हिंसा करने पर उतारू हो जाता है और कटु वचनों के बाण छोड़कर मर्माघात कर देता है। क्रोधान्ध व्यक्ति कटु वाणी से परस्पर दूरी बढ़ाकर समझौते की संभावना को भी समाप्त कर देता है तथा परिस्थिति को और अधिक विषम बना देता है। क्रोध की ज्वाला के कारण सारे देह में भूकम्प की दशा उत्पन्न हो जाती है।
क्रोधाग्नि भड़कने का अर्थ है हृदयाघात के घोर संकट को निमंत्रण देना। क्रोध मनुष्य का विनाश कर देने वाला परम शत्रु है। मनुष्य को आवश्यकता होने पर कठोर पग उठाते हुए भी मन में क्रोध नहीं करना चाहिए तथा सदैव शान्त और सन्तुलित रहना चाहिए।
क्रोध करने से मनुष्य का कोई काम नहीं बनता, बल्कि और अधिक बिगड़ जाता है। मनुष्य को जितनी तेजी से क्रोध आता है , उसी तेजी से बाद में उसे पछताना भी पड़ता है। अनेक बार ऐसी परिस्थिति होती है कि क्रोध आने पर मन कहता है कि सामने खड़े व्यक्ति को हिंसा से मिटा दिया जाए किन्तु विवशता में सिर झुकाना पड़ जाता है। वास्तव में क्रोध तो सदैव निन्दनीय एवं त्याज्य है किन्तु अनुचित बात पर विवेक के अनुसार यथासंभव स्पष्टतापूर्वक अपनी असहमति एवं क्षोभ प्रकट कर देने से मन कुण्ठित नहीं होता। विवेकशील पुरुष शालीनता से अपना मतभेद अवश्य प्रकट कर देता है। मनुष्य क्रोध और कटुता छोड़कर भई दृढता से यथाशक्ति अन्याय का प्रतिरोध कर सकता है। अवश्य ही, मनुष्य अपने भीतर शान्त रहकर ही कर्म मे दृढ रह सकता है।
विवेकशील पुरुष झगड़ों से बचता है तता वह अपना अमूल्य समय और शक्ति क्षुद्र बातों में नष्ट नहीं करना चाहता। विवेकशील पुरुष कभी झगड़े मोल नहीं लेता किन्तु सिर पर आ पड़े तो डटकर सामना करता है। वह किसी बात को प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाता तथा सम्मानजनक समझौते का अवसर आते ही झगड़े को निपटा लेता है। विवेकशील पुरुष उचित अवसर आने पर क्षमा प्रदान कर देता है। क्षमा करना मनुष्य के लिए न केवल अपनी मानसिक शान्ति की दृष्टि से ही, बल्कि सामाजिक व्यवहार की दृष्टि से भी आवश्यक होता है। मन की कटुता भूल जाने का प्रयत्न करने से दूर नहीं होती, बल्कि क्षमा के जल से मन को धोने से दूर होती है। शत्रुओं की संख्या घटाना और मित्रों की संख्या बढ़ाना विवेक का परिचय देना है। मानव-जीवन छोटा-सा है। विवेकशील पुरुष समय और शक्ति का सदुपयोग करके जीवन को सार्थक करने का प्रयत्न करता है।
हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि क्रोध करना मनुष्य का स्वभाव नहीं है, बल्कि प्रतिक्रिया है। मनुष्य का स्वभाव प्रेम और क्षमा है। जब का स्वभाव शीतल होता है। जल अग्नि के सम्पर्क में आकर उष्ण हो जाता है किन्तु अग्नि का सम्पर्क हटते ही पुनः शीतल हो जाता है। क्रोध के कारण की निवृत्ति होने पर मनुष्य का मन भी शीतल और शान्त हो जाता है क्रोध मन की अस्वाभाविक दशा है। प्रेमपूर्ण व्यक्ति के सान्निध्य में आकर निष्ठुर और क्रूर मनुष्य भी नियंत्रित हो जाते हैं। विवेकशील पुरुष अपने चारों ओर मैत्रीपूर्ण वातावरण का निर्माण कर लेता है तथा स्वभावतः प्रेम, सद्भावना, क्षमा, परोपकार और उत्सर्ग की भावना से ओतप्रोत होता है। वह शक्तिपुंज, निर्भीक और साहसी होकर भी शान्त, गंभीर और सौमनस्यपूर्ण होता है।
मनुष्य में धन, सम्पत्ति , सत्ता कीर्ति आदि का प्रलोभन होना स्वाभविक है किन्तु जब मनुष्य लोभान्ध होकर उन्हें प्राप्त करने के लिए अन्यायपूर्ण एवं अनैतिक साधनों को अपना लेता है, प्रलोभन एक अभिशाप हो जाता है तथा वह मनुष्य को अपराध की ओर प्रवृत्त कर देता है और मन की शान्ति का हरण करके व्याकुल बना देता है। लोभान्ध व्यक्ति पुरुषार्थ, न्याय और नैतिकता को दूर रखकर क्षणभर में महान् धनपति अथवा सत्ताधारी बन जाने की उग्र लालसा के कारण मार्ग के अवरोधों को षड्यंत्र, छल-कपट और हिंसा से हटा देने में भी संकोच नहीं करता। विवेक-भ्रष्ट व्यक्ति सब कुछ पाकर भी सब कुछ खो देता है और व्याकुलता में छटपटाता रह जाता है।
यद्यपि जीवन में सब प्रकार के बल व्यक्ति एवं समाज के अभ्युदय के लिए उपयोगी हो सकते हैं तथापि जन-बल, बाहु-बल, धन-बल, सत्ता-बल इत्यादि का मद मनुष्य को प्रायः उद्दण्ड बना देता है तथा मदान्ध व्यक्ति दूसरे लोगों के सम्मान और सत्कार को सहन नहीं करता है। मदान्ध मनुष्य का मिथ्या अहंकार बुद्धि के सन्तुलन को नष्ट कर देता है तथा अहंकारजनित द्वेष की अग्नि उसकी मानसिक शान्ति को ध्वस्त कर देती है। धीरे-धीरे वह समाज से हटकर अकेला पड़ जाता है और धनपति अथवा सत्ताधारी होकर भी व्याकुल ही रहता है। दुरभिमानियों के अहंभाव की टकराहट के कारण समाज में अनेक बार विनाशलीला भी हो जाती है।
मनुष्य के लिए अपनी सन्तान, सम्पत्ति इत्यादि का सरक्षण करना तो एक कर्तव्य है किन्तु मोहान्ध होने के कारण उनकी चिन्ता करते रहने से अनेक प्रकार के भय और आशंका एवं तनाव और व्याकुलता मनुष्य को घेर लेते हैं। मोहान्धता अनेक बार अपने और पराए का भेदभाव बढ़ाकर मनुष्य की न्यायवृत्ति को भी ध्वस्त कर देती है। वृद्धावस्था मनुष्य की बुद्धि को ग्रस्त कर लेती है। मोहान्ध लोग मोहवश अपनी संतान को उत्तम साहसिक कार्य करने से रोक देते हैं तथा उनके व्यक्तित्व का विकास अवरुद्ध कर देते हैं।
धर्म का उद्देश्य है मनुष्यों में सत्य और प्रेम की प्रस्थापना करना तथा भेदभाव और संकीर्मता को मिटाकर मानवता का प्रसार करना किन्तु धर्मान्धता मनुष्य को बर्बर, क्रूर, हिसंक, अन्यायी और आततायी बना देती है। संसार में धर्म के नाम पर हिंसा, क्रूरता और बर्बरता का जैसा ताण्डव होता है, उसने धर्म के वर्तमान स्वरूप को आलोचना का विषय बना दिया है। धर्मान्धता ने साम्प्रदायिक संकीर्णता, कट्टरता, घृणा विद्वेष, असहनशीलता आदि को बढाकर, सत्य और प्रेम को धूमिल करके मानव को दानव ही बना दिया है। कट्टरपंथी लोग न केवल अपने मत को सर्वोपरि सिद्ध करके अन्य मतों के सत्य को अनदेखा कर देते हैं, बल्कि उनके घृणा भी करते हैं तथा हिंसा को अपनाकर धर्म के उद्देश्य को ही पराजित कर देते हैं।
धर्म के क्षेत्र में पनपनेवाले अन्धविश्वासों और कुरीतियों ने समाज का घोर अहित किया है। धर्म की आड़ में तथाकथित भगवानों की भीड़ हो गई है। वास्तव में विवेक छोड़ने पर मनुष्य धर्म से भी लाभ नहीं उठा सकता तथा विवेकरहित धर्म-पालन मनुष्य को पशु बना देता है। धर्म भर में व्याप्त ईश्वरीय चेतना है, बन्धन-मुक्ति एवं आनन्द का प्रदाता है। धर्म को समकालीन संदर्भों में, मानवीय मूल्यों के प्रतिपादक के रूप में, प्रतिष्ठित किए जाने की आवश्यकता है। धर्म से जुड़े हुए अनेक मिथक, आख्यान, कथाएँ और अन्तर्कथाएँ रहस्यों में लिपटे हुए होने के कारण मिथ्यात्व और भय को प्रतिष्ठित कर रहे हैं। आदर्शों, सिद्धान्तों, नियमों, आदेशों तथा निर्देशों का उद्देश्य उत्तम जीवन-यापन होता है, किन्तु जब वे अतिकठोर हो जाते हैं तथा समयानुकूल नहीं रहते, वे व्यक्ति और समाज को पीछे ढकेल देते हैं। प्रगति के विरोधी तथा असत्य पर आधारित नियमों से चिपटा हुआ कट्ट्पंथी, परम्परवादी अथवा यथास्थितिवादी व्यक्ति जीवन की दौड़ में पिछड़ जाता है।
सामान्यतः किसी आकर्षक वस्तु को देखकर उसके लिए कामना होना, किसी की नीचता एवं दुष्टता देखकर क्रोध उत्पन्न होना, सत्ता, धन-सम्पत्ति आदि का प्रलोभन होना, क्रोधावेश होना, अहंभाव जागना, प्रियजन का मोह होना मन की स्वाभाविक प्रतिक्रिया हैं जिन्हें मूलतः दोष की संज्ञा नहीं दी जा सकती किन्तु इनका अतिरेक दोष हो जाता है। कोई एक महापुरुष ही आन्तरिक विकास द्वारा कालान्तर में इनसे सर्वथा मुक्त हो पाता है। विवेकशील पुरुष परिस्थिति के अनुसार अपनी मानसिक प्रतिक्रिया पर नियंत्रण कर लेता है तथा मर्यादा में रहकर विवेकसम्मत वचन कहता और व्यवहार करता है।
मनुष्य के प्रमुख दोष प्रलोभन, क्रोध, भय, आलस्य और दुराग्रह हैं। मनुष्य प्रलोभन में फँसकर भटक जाता है तथा अनैतिक कार्य करने लगता है। क्रोधावेश मनुष्य को असन्तुलित एवं मतिभ्रष्ट कर देता है। भयवश होकर मनुष्य उत्तम कार्य करने का साहस नहीं कर पाता तथा अन्धविश्वास में फँस जाता है। आलस्यवश होकर मनुष्य पुरुषार्थ नहीं करता तथा दीनहीन हो जाता है। दुराग्रहग्रस्त होकर मनुष्य कट्टर हो जाता है तथा अपनी भूल को स्वीकार नहीं करता । अपनी भूल को सच्चाई से स्वीकार करने पर ही सुधार प्रारम्भ हो सकता है और भूल का वेग क्षीण हो जाता है। वेग के क्षीण हो जाने के कारण भूल धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है। विवेकशील पुरुष भूल के सुधार का प्रयत्न करता है किन्तु वह आत्म-भर्त्सना नहीं करता। भूल को पाप की संज्ञा देने से मनुष्य अपने जीवन को भारमय बनाकर प्रगति के द्वार बन्द कर देता है। पाप और शाप की अवधारणा के भय से सात्त्विक चिंतन एवं कर्म की प्रेरणा नहीं ली जा सकती । मनुष्य अपने साथ घृणा करके तथा आत्मानिन्दा करके विकास की प्रक्रिया को अवरुद्ध कर देता है। विवेकशील पुरुष सँभलने का यत्न करता है तथा आत्मग्लनि से अपने समय और शक्ति को नष्ट नहीं करता। विवेकशील पुरुष ठोकर खाकर भी उठाकर आगे बढने लगता है तथा भूल विचार-प्ररेक बनकर मन का जागरण कर देती है।
A Memoir of the Very Rev. Theobald Mathew; With an Account of the Rise and
Progress of Temperance in Ireland (Birmingham)
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A Memoir of the Very Rev. Theobald Mathew; With an Account of the Rise and
Progress of Temperance in Ireland (with Morris's "The Evil Effects of
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11 hours ago
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