यदि हम शीघ्र ही एक गहरा विश्राम पाने में सफल न रहो रहे हों तो चिन्ता नहीं करना चाहिए तथा विश्राम-अवस्था को स्वयं आने देना चाहिए। जब उद्विग्न एवं अशान्त करनेवाले अनाश्यक विचार आ रहे हों तो उनकी उपेक्षा कर देना ही उचित होता है। मन में गहरे स्तर पर दबे हुए भय, चिन्ता घृणा, हिंसा, निराशा इत्यादि के संस्कार विविध कल्पनाओं के रूप में उभरकर आते रहते हैं किन्तु उन्हें महत्त्व न देने से उनका वेग क्षीण हो जाता है तथा आशा और उमंग की कल्पनाएँ उभरकर मन को आनन्द से तरंगित कर देती हैं। मनुष्य अपने अनुभव द्वारा खोजे हुए उपायों से स्वयं ही मन की शान्त अवस्था को अवश्य प्राप्त कर सकता है।
वास्तव में ज्योंही हम यह समझ लेते हैं कि भयपूर्ण चिन्ता (एंगजाइटी) काल्पनिक है तथा हमारे अज्ञान की ही उपज है त्योंही उसका परित्याग स्वतः हो जाता है। मन के चेतन-स्तर पर भयावह चिन्ता को मात्र एक मूर्खता मान लेने पर अवचेतन मन की गहरी परतें भी उसे अस्वीकार कर देती हैं। अतः आवश्यकता है चेतन मन पर विवेकपूर्ण चिन्तन द्वारा भय एवं भ्रम के मिथ्यापन को समझ लेने की। भयपूर्ण चिन्ता (एंगजाइटी) के शारीरिक कारण भी होते हैं। उदारणतः दीर्घकाल तक संग्रहणी (कोलइटिस) इत्यादि होने पर मन में काल्पनिक भय उत्पन्न होने लगते हैं। सभी काल्पनिक भयों का विवेक के जागरण के जागरण से दूर करना नितान्त सम्भव होता है।
चिन्ता और भय की आदत पड़ जाने पर, मनुष्य को चिन्ता और भय का त्याग कर देने पर भी, मन में रिक्तता (खालीपन) का-सा अनुभव होने लगता है क्योंकि आदत के कारण व्यर्थ ही मन पुराने चिन्ता और भय के संस्कारों से चिपटा रहना चाहता है जैसे पिंजड़े छोड़ने में कठिनाई होती है। वास्तव में मन की जो कठिन बेड़ियाँ हमें बाँधे हुए हैं, वे हमारी ही बनाई हुई होती हैं तथा उन्हें हम ही धैर्यपूर्ण प्रयत्न से तोड़ सकते हैं। उत्तम कर्म, मनोरंजन आदि में व्यस्त रहकर तथा मस्ती की आदत डालकर मन की रिक्तता की पूर्ति की जा सकती है।
Anglo-Castilian Trade in the Later Middle Ages (Childs)
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Anglo-Castilian Trade in the Later Middle Ages (Manchester: Manchester
University Press, c1978), by Wendy R. Childs (multiple formats at
archive.org)
9 hours ago
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