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Tuesday, June 16, 2009

आनन्दमय जीवन by शिवानन्द (10)

संसार में प्रायः कोई मनुष्य भी पूर्णतः कुण्ठामुक्त नहीं होता तथा लगभग सभी के मन में बाल्यकाल की अनेक अपराध-बोध की भावनाएँ पलती रहती हैं जो मनुष्य की अशान्ति का प्रमुख कारण होती हैं। अल्पायु में किसी भूल के हो जाने के कारण आत्मग्लानि से घिरने पर 'मैं अपराधी हूँ, मैं बुरा हूँ, मुझे, दण्ड मिलना चाहिए' ऐसी धारणा उत्पन्न हो जाती है तथा दण्ड मिलने की आशंका मन में गहरे स्तर पर बैठ जाती है और व्यक्ति अपने को दुखी करते रहने में, अकारण ही अपने को दण्डित करने में, सुख का अनुभव करने लगता है। कभी-कभी बड़ी अवस्था में भी किसी घोर अपराध के होने पर ऐसी ही क्लेशप्रद धारणा घर कर लेती है। अल्पायु में निर्धनता, अभाव और हीनता से ग्रस्त होने पर भी मन में हीनता की ग्रन्थि बन जाती है। बाल्यकाल की कुण्ठाएँ स्वभाव का अंग बनकर जीवनभर आनन्द और उमंग के अवसर करती रहती है तथा मनुष्य को व्यर्थ ही दुर्घटना एवं आपत्ति की आशंका सताने लगती है। विविध परिस्थितियों में मन पर पड़े हुए विविध प्रकार के भयदायक संस्कार कालान्तर में प्रगाढ़ हो जाते हैं किन्तु प्रयत्न द्वारा उनको समाप्त किया जा सकता है। वास्तव में समाज एवं परिवार की दोषपूर्ण मान्यताओं तथा दुर्व्यवहार के कारण मन में ग्रन्थियाँ बनती हैं जिन्हें ज्ञान के प्रकाश से खोला जाता है।
कभी-कभी मन में झूठी ध्वनि होती है कि इतने दिन में या इस माह में अथवा उस समय विपत्ति आएगी। किन्तु आशंकित समय पर कुछ विपत्ति न आने पर भी और ध्वनि के झूठी सिद्ध होने पर भी पुनः कोई नई आशंका उत्पन्न हो जाती है तथा वह बिलकुल सच्ची प्रतीत होने लगती है। अबोध अवस्था में बनी हुई अपराधभाव की ग्रंथियों के कारण प्रायः व्यक्ति के मन में यह भावना उत्पन्न हो जाती है कि "मैं अपराधी हूँ, मैं पापी हूँ, मैं बुरा हूँ, मुझे दण्ड अवश्य मिलेगा"तथा वह न केवल अकारण ही अनेक प्रकार से दण्ड मिलने की आशंका करने लगता है, बल्कि दण्ड की प्रच्छन्न इच्छा भी करन लगता है। वह अपराध-ग्रन्थि के कारण व्यर्थ ही स्वयं को पीडा देने में एक मूर्खतापूर्ण सुख का अनुभव करने लगता है तथा मन ऐसी आदत पड़ जाने पर अनेक बार अकारण ही वह किसी अशुभ होने की आशंका करने लगता है। वह तीर्थ आदि पवित्र स्थल पर जाकर अथवा किसी सन्त से आशीर्वाद लेकर उसे तो भूल जाता है तथा भविष्य में विपत्ति आने की किसी मिथ्या कल्पना को सत्य मानकर उसका स्मरण करके अपने को पीड़ा देने लगता है। आत्म विश्लेषण द्वारा ग्रन्थि के खुल जाने पर प्रभावहीन होकर धीरे-धीरे पूर्णतः विलुप्त हो जाती है।
कभी-कभी मनुष्य व्यर्थ ही किसी विशेष तिथि, दिन अथवा संख्या को अशुभ मानने लगता है। शुभ और अशुभ के अंधविश्वास के मूल में कोई भी दबा हुआ भय ही होता है। विवेकशील व्यक्ति कभी समय अथवा स्थान को अशुभ नहीं मानता। संसार में ससमय अथवा स्थान को अशुभ नहीं मानता। संसार में सभी के साथ प्रिय और अप्रिय घटनाएँ तो होती ही रहती हैं। शुभ और अशुभ की चिन्ता करने लगता है। भय ही समस्त अंधविश्वास का मूल कुण्ठा से प्रभावित होने पर अनेक बार मन की आवाज भ्रमकारी हो जाती है तथा उसे होने पर अनेक बार मन की आवाज भ्रमकारी हो जाती है तथा उसे अन्तरात्मा की ध्वनि कुण्ठा से प्रभावित होने पर स्वप्न भी कभी-कभी दुस्स्वप्न हो जाते हैं तथा उनको भविष्य में किसी अनिष्ट का सूचक मान लेना मूर्खतापूर्ण अंधविश्वास होता है। अगिणत लोग स्वप्न को सच्चा मानकर स्वयं ही विपत्ति को निंत्रणण दे देते हैं। स्वप्न का कभी सत्य होना मात्र संयोग होता है।
निश्चय ही चिन्तन, आत्म-विश्लेषण, विवेक तथा ध्यान के अभ्यास से धीरे-धीरे मनुष्य का रूपान्तरण हो जाता है तथा जीवन में ओज एवं आत्मविश्वाश का भरपूर संचार होने लगता है। वास्तव में मनुष्य का प्रत्येक विवेकपूर्ण विचार, संकल्प और कर्म अदृश्य रूपान्तरण द्वारा उसे पहले की अपेक्षा अधिक सम, स्थिर और शान्त करता रहता है और मनुष्य निश्चय ही कुण्ठविमुक्त, भयविमुक्त हो उत्साहपूर्ण होकर उमंगभरा जीवन व्यतीत कर सकता है। यही यथार्थ और उत्साहपूर्ण होकर उमंगभरा जीवन व्यतीत कर सकता है। यही यथार्थ पुनर्जन्म है।
इस संसार में प्रत्येक क्षण सर्वत्र गतिशीलता एवं परिवर्तनशीलता है तथा हमारे बाहर और भीतर भी गति भी निरन्तर परिवर्तन का आधार होती है। हम परिवर्तन को सूक्ष्मता के कारण देख नहीं पाते किन्तु शैशव, बाल्य, यौवन और वृद्धता का चक्र निरन्तर चलता ही चलता है। हमारे मन में भी विचार नदी के जल की धारा के सदृश्य निरन्तर प्रवाहित होते ही रहते हैं। यह गतिशील प्रवाह ही जल की भाँति विचारों की निर्मलता एवं रहते हैं। यह गतिशील प्रवाह के बाधक पूर्वाग्रह, अंधविश्वास, संकीर्णता, क्षुद्रता, छल-कपट, धर्मान्धता, मदान्धता, भय, चिन्ता, भावकुता, क्रोध इत्यादि दोषों का निराकरण (अर्थात् शमन) करने पर ही मनुष्य सत्य का संदर्शन कर सकता है। विवेकपूर्ण चिन्तन मन को निर्बन्ध, उन्मुक्त, सहज और सरल बनाकर मनुष्य के जीवन को आनन्दरस और ओज से परिपूर्ण कर सकता है।
आत्मविश्लेषण के प्रारम्भिक क्रम में मनुष्य को अपने मानसिक दबावों की डायरी बनाकर इत्यादि का उल्लेख कर लेना चाहिए। मनुष्य अपने मानसिक दबावों को पहचानकर उनके शमन का उपाय स्वयं ही खोज सकता है। अपने दोषों और दुर्बलताओं को जानना उन पर विजय पाने का प्रारम्भिकग पग है। दोषों और दुर्बलताओं को जानने में संकोच नहीं होना चाहिए क्योंकि हम सभी में दोष और दुर्बलता होते हैं।

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