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Tuesday, June 16, 2009

आनन्दमय जीवन by शिवानन्द (9)

प्रसनन्ता ही मन की सहज प्रवृति है तथा मन दबी हुई समस्त अप्रसन्नता के प्रसंगों को चेतन स्तर पर लाकर उन्हें क्षीण कर देने का प्रयत्न करता रहता है। किसी कारण मन में सुख, उत्साह और आशा के साथ ही दुःख, उदासी और निराशा के अस्थायी मनोभाव (मूड) भी यदाकदा चक्र की भाँति आते रहते हैं। मनुष्य को दुःख, उदासी और निराशा के अस्थायी मनोभाव आने पर विचार द्वारा उन्हें क्षीण करने का प्रयत्न करना चाहिए तथा उनमें से धैर्यपूर्व गुजरना चाहिए। संकट में से गुजरने का अनुभव मनुष्य में साहस और आत्मविश्वास जगा देता है तथा विवेकशील व्यक्ति संकट से नहीं डरतात।
कभी-कभी किसी कारण अत्यधिक उत्तेजना हो जाने से अथवा अकस्मात् भयप्रद एवं चिन्ताप्रद एवं चिन्ताप्रद परिस्थिति उपस्थित होने से व्याकुलता उत्पन्न होने पर भी मन में दबे हुए भय के पुराने संस्कार जाग जाते हैं तथा मन तीव्र गति से काम करने लगता है और मनुष्य उद्विग्न एवं अशान्त हो जाता है। कभी-कभी कुछ देर तक अत्यन्त तीव्र गकी से विचार आते हैं तथा मनुष्य को आशंका होने लगती है कि क्या ये विचार असंबद्ध हैं, क्या मेरी विचार-प्रक्रिया में दोष आ गया है, क्या मेरा भविष्य कष्टमय है? किन्तु वास्तव में यह स्थिति क्षणिक एवं अस्थायी होती है तथा इसका कारण मन में कोई दबा हुआ भय होता है जो थोड़ी देर तक बन्दर की भाँति मन में कोई दबा हुआ भय होता है जो थोड़ी देर तक बन्दर की भाँति उछल-कूदकर शान्त हो जाता है। मनुष्य स्वयं को समझा सकता है कि मैंने अपनी बुद्धि की कुशलता, साहस तथा धैर्य से इससे पूर्व भी अनेक बार भय के उद्रेक पर विजय पायी है। मुझे अनुभव है कि यह भय मिथ्या और क्षणिक है। मैं पहले कगी अपेक्षा अधिक अनुभवी, विवेकशील और धैर्यपूर्ण हूँ तथा मैं जीवन में सभी समस्याओं का समाधान करके बुद्धिबल, धैर्य और शक्ति के होने का पर्चय दे रहा हूँ, मैं अब परिपक्व और समर्थ हूँ, मेरे शान्त रहने का साधारण-सा प्रयत्न करने पर यह क्षणिक अवस्था सरलता से पार हो जाएगी, मुझे जीवन में सभी बहुत कुछ करना है, मुझे अनेक दायित्वों का निर्वाह करना है, मेरा जीवन मूल्यवान एवं महत्वपूर्ण है।
ऐसे अवसर पर जब मनुष्य का मन भीतर ही भीतर उलझाकर छटपटा रहा हो तथा कर्दपतिता गौ की भाँति मुक्त होने का प्रयत्न करने पर भी असहाय होकर अंधकार में डूबता ही जा रहा हो, उसे तत्काल अपने से दूर हटकर (अर्थात् अपने विषय में सोचना छोड़कर) बहिर्जगत् में पारिवारिक जन एवं मित्र-मंडली की संगति, स्वाध्याय, ध्यान मनोरंजन, क्रीड़ा, भ्रमण, प्रकृति-दर्शन, सेवा सहायता-कार्य अथवा किसी चित्ताकर्षक उपयोगी कार्य में व्यस्त हो जाना चाहिए। अपने प्रियजन का प्यार और प्रशंसा पाकर मनुष्य का मन उमंग से भर जाता है। मनुष्य को अपना मन सचेतन करके तथा आत्मविश्वास को जगाकर उद्विग्न एवं व्याकुलता के दबाव को शान्त कर लेना चाहिए। नील गगन, नदी,समुद्र, पर्वतों के धवल शिखर, हरे-भरे मैदान, पुष्प आदि को देखने से मन को न केवल विश्राम मिलता है बल्कि गहन तृप्ति भी होती है। मनुष्य घबराकर स्थिति को स्वयं ही विषय बना लेता है और समझदारी से विषय स्थिति को सुगमतापूर्वक पार कर लेता है। थोड़ी-सी समझदारी सत्ता तथा ज्ञान के बल से भी बढ़कर होती है।

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