Search This Blog

Tuesday, June 16, 2009

आनन्दमय जीवन by शिवानन्द (7)

प्रकृति ने मस्तिष्क और शरीर के पूर्ण के लिए निद्रा का विधान किया है। निद्रा ऐसी विलक्षण जादूगरनी है कि श्रान्त, क्लान्त शोकाकुल, व्याकुल, निराश्-हताश और दु:खी मनुष्य उसकी गोद में जाकर सब कष्ट भूल जाता है और जगाने पर एक ताजगी भरा जीवन पा लेता है। मानव के लिए निद्रा प्रकॄति का अनूठा वरदान है। निद्रा माता और मित्र की भांति सदा ही स्वागत के लिए हाथ पसारे हुए आमंत्रित करती है किन्तु आधुनिक मानव प्रकृति से इतना दूर चला गया हे कि वह निद्रामाता की अमृतमय गोद मे भी सहज ही नहीं जा पाता। संसार में निद्रा का कोई विकल्प नहीं है। भाग्यशाली हैं वे लोग जो प्रकृति के इस अदभूत वरदान का महत्व समझते हैं तथा दया के पात्र हैं वे अभागे लोग जो अपने अविवेक के कारण निद्रादेवी की ममतामयी छत्रच्छाया में नहीं जा पाते। निद्रा हमारे मस्तिष्क और शरीर की मांग है जिसकी पूर्ति न करना अथवा जिसमें कटौती करना मानसिक एंव शारीरिक स्वास्थ्य के लिए घातक होता है। समस्त मानसिक एंव शारिरीक रोगों की चिकत्सा के लिए निद्रा परमावश्यक होती है। अनेक आधुनिक मनश्चिकित्सक निद्रा तथा उसकी औषधि भी। हां, अधिक सोने की आदत के लिए हानिकार होती है।
प्रकृति ने रात्रि का विधान दिन के परिश्रम की थकान को दूर करके पुन: ताजा हो जाने के लिए किया है। मनुष्य को रात्रि में कितनी देर तक सोना चाहिए, यह व्यक्ति की आयु और उसकी शारीरिक एंव मानसिक अवस्था पर निर्भर होता है। मनुष्य के लिए औसतन आठ या सात घण्टे की नींद पर्याप्त होती है। रात्रि में देर तक जागकर निद्रा में कटौती करना अथवा प्रात: सूर्योदय के बाद तक सोते रहना प्रकृतिक नियम के प्रतिकूल है। यथासम्भव नियमित समय पर सोना तथा जागना चाहिए। जिनका मन विद्वेष, चिन्ता एंव भय से विमुक्त होता है, उन्हें शारीरिक कष्ट होने पर भी नींद आने मे कोई कठिनाई नहीं होती किन्तु जिनके मन में विद्वेष, चिन्ता अथवा भय भरा रहता है, उन्हें निद्रा न आने में कोई कठिनाई नहीं होती है। निद्रा की आवश्यकता होते हुए भी निद्रा न आने से मन में व्याकुलता छा जाती है जो समस्या बन जाती है। नींद लाने की गोलियं कभी आवश्यक भी हो सकती हैं किन्तु उनकी आदत डालना एक नयी मुसीबत मोल लेना है तथा उनके निरन्तर उपयोग से स्वास्थ्य को अत्याधिक हानि होती है।
निद्रा के समय ढीले वस्त्र पहनना चाहिए तथा बिस्तर न अत्याधिक कठोर होना चाहिए, न अत्याधिक लचीला ही। कमरे में स्वच्छ वायु का प्रवेश एंव संचार होना सदैव उपयोगी होता है। यदि निद्रा न आ रही हो तो नींद लाने की इच्छा छोड़कर, मन को दिन चिन्ताओं से रिक्त करने कके लिए कोई मनोरंजक पुस्तक पढ़ना प्रारम्भ कर सकते हैं अथवा अपने घर में ही थोड़ी देर तक टहलते हुए खेले आकाश के नीचे स्वच्द वायु में गहरे श्वास ले सकते हैं। निद्रा लाने के लिए हमें लेटकर पैरों से सिर तक धीरे-धीरे ऐसा महसूस करना चाहिए मानों सारा देह चेतनाशून्य हो रहा है अथवा लम्बे और गहरे श्वास लेना चाहिए। श्वास लेते समय मन में ही एक से दस तक बार-बार गिनती गिनने से नींद आने लगती है। भगवान् की शक्ति और कृपा मे विश्वास करनेवाला व्यक्ति चिन्ता छोड़कर भगवान् के स्मरण अथवा जप द्वारा मन को शान्त कर लेता है। रात्रि में अपनी शय्या के समीप मेज या स्टूल पर कागज, कलम और पीने के लिए पानी रखकर लेटना चाहिए। यदि निद्रा के लिए लेटने पर चिन्ता निवारण-सम्बन्धी किसी आवश्यक कार्य का स्मरण हो रहा हो तो उसे कागज पर लिखकर मन को रिक्त कर लेना चाहिए। थोड़ा-सा जल पीने से भी मन शान्त होता है। मन के किसी महात्मा अथवा संत के शान्त स्वरुप का स्मरण करने से अथवा नदी-तट, उपवन आदि किसी शान्त स्थल की कल्पना करने से भी निद्रा आ जाती है। बौद्धिक श्रम करनेवाले लोगों के लिए दिन में शारीरिक व्यायाम अथवा किसी प्रकार का श्रम करना रात्रि में निद्रा लाने में सहायक होता है।
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार दिन में कार्यव्यस्तता के बीच अल्प विश्राम के रुप मं दो बार थोड़ी देर तक लघु निद्रा अथवा झपकी लेना न केवल स्वाभाविक है, बल्कि आवश्यक भी है। मध्याह्न में भोजन अथवा अल्प भोजन लेने के पश्चात् लगभग पच्चीस-तीस मिनिट तक लेटकर निद्रामय विश्राम अत्यन्त स्फर्तिदायक होता है तथा कार्य-कुशलता में वृद्धि करता है। समय की बचत की दृष्टि से विश्राम की कटौती करना घातक सिद्ध होता है।
मनुष्य के क्रिया-कलापों का प्रारम्भ विचार से ही होता है तथा विचार ही मनुष्य की समस्त समस्याओं के समाधान के लिए अपरिहार्य साधन है किन्तु हमारे लिए विचार और चिन्तन-प्रक्रिया को ठीक प्रकार से जानना और समझना भी आवश्यक है। विचार और चिन्तन ही भावों एंव उद्वेगों को नियंत्रित रखकर मानसिक सन्तुलन और शान्ति को सुरक्षित रखते हैं। इस प्रकार मनुष्य के विकास और विनाश, उन्नति और अवनति, सुख और दु:ख मूलत: चिन्तन पर ही आधारित होते हैं।
कुछ लोग स्वाभाव से ही उदास और दु:खी रहते हैं, कुछ अशान्त और उद्विग्न रहते हैं, कुछ भय और चिन्ता से ग्रस्त रहते हैं तथा कुछ मस्त और प्रसन्न रहते हैं। वास्तव में स्वभाव के पृष्ठ में घटनाओं का एक इतिहास होता है। निश्चय ही मनुष्य गहन आत्-विश्लेषण द्वारा अपने स्वभाव को जान और समझ सकता है तथा चिन्तन एंव विचार और ध्यान के अभ्यास से अपने मन को स्वस्थ करने में पूर्ण सक्षम होता है। आवश्यकता है अपनी उद्विग्नता एंव दु:ख के कारणों को जानने, अपनी कामनाओं और कुण्ठाओं को पहचानने तथा उनके समाधान का उपाय सोचने तथा संकल्पपूर्वक प्रयत्न करने की। पुरुषार्थ के साथ ही चिन्तन-पक्ष को स्वस्थ एंव सशक्त रखना जीवन में दृढ़ता एव सफलता प्राप्त् करने के लिए परमावश्यक है। वास्तव में मन की शक्तियों की कोई सीमा नहीं है तथा मनोतगत् के चमत्कारों की उपेक्षा कहीं अधिक विलक्षण होते हैं किन्तु मन के सागर में प्रवेश करके उसके तल पर बैठकर ही ऐसे भव्य रत्नों को प्राप्त करना सम्भव है जिनकी तुलना में संसार के अन्य सारे रत्न तुच्छ एंव कान्तिहीन प्रतीत होते हैं।
हम जीवन की चुनौतियों का समाधान करने में इस कारण अक्षम होते हैं कि हमने आधारभूत मानसिक प्रक्रियाओं को ठीक प्रकार नहीं समझा है। मानव-मन दूरदर्शन की भांति है जिसमें चित्र को विभिन्न आयामों अथवा परिणामों में प्रस्तुत किया जा सकता है तथा चित्र के विकृत होने पर अस्पष्टता, संभ्रम एंव व्याकुलता उत्पन्न हो सकते है। अनेक बार परम्परागत मिथ्या मान्यताएं, रुढिगत सामाजिक आर्दश, पूर्वाग्रह, आस्थाएं, धारणाएं और विचार मन में ऐसी गूढता से रमे हुए होते हैं कि उनको पहचानना भी कठिन होता है। उनसे अस्पष्टता, संभव एंव व्याकुलता उत्पन्न होना स्वाभावकि होता है और उनके कारणों का अनुसंधान करना कठिन हो जाता है किन्तु चिन्तन और ध्यान से मानसिक समस्याओं का समाधान हो जाता है।

No comments:

Post a Comment