अपने जीवन में आत्मसुधार द्वारा अक्षय सुख एंव शान्ति की प्रस्थापना का यत्न करनेवाले मनुष्य को सर्वप्रथम अपने-आप को ज्यों का त्यों सहर्ष स्वीकार करना चाहिए। "मैं जैसा भी हूं, वैसा हूं। संसार में सभी मनुष्यों में गुण और दोष होते हैं, मुझमें भी गुण और दोष हैं। पूर्ण कोई नहीं हैं, "ऐसा सोचकर अपने को यथावत् स्वीकार करना चाहिए। अपने किसी दोष पर बल देकर अत्याधिक लज्जित होना तथा अपने-आप को बुरा या पापी कहकर कोसना अथवा अपनी किसी भूल पर अत्याधिक बल देकर अपने-आप को मूर्ख मानते हुए धिक्कार करना घोर अविवेक है। अपने-आप को बुरा अथवा मूर्ख मानकर अपने विषय में निकृष्ट धारणा बनाना आत्मविश्वास को क्षीण करता है। जिस प्रकार अपने दोषों के कारण अपने से घृणा करना अविवेक है। वास्तव में मनुष्य को अपने समग्र स्वरुप को अर्थात् शारिरीक रचना, स्वस्थ्य इत्यादि बाह्यय स्परुप को तथा गुण, दोष, समर्थता, दुर्बलता, स्वभाव इत्यादि आन्तरिक स्वरुप को यथावत स्वीकार कर लेना चाहिए। अपने से धुणा करने तथा अपनी कोरी आलोचना करने के बजाए हम जिस पर हैं, उसे सहर्ष स्वीकार करके अपने से सहयोग करके, वहां से ही आगे बढ़ने का प्रयत्न करना चाहिए। मनुष्य स्वयं से घृणा और शत्रुता करके कभी न प्रसन्न रह सकता है आैर न जीवन में आगे बढ सकता है। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह सदा भविष्योन्मुखी होकर आगे ही बढता रहे।
आत्म-निरीक्षण के द्वारा मनुष्य अपने समग्र स्वरूप को समझ लेता है तथा वज्र संकल्प लेकर प्रयत्न द्वारा धीरे-धीरे गुणों का विकास तथा दोषों का त्याग करते हुए आत्म-कल्याण की ओर बढ सकता है। जीवन को खण्डों में विभाजित नहीं किया जा सकता तथा जीवन की समग्रता स्वीकार करके ही व्यक्तित्व का विकास हो सकता है। भीतर अन्तराल में अपरिमित शक्ति का भण्डार प्रसुप्त् अथवा अव्यक्त पड़ा है तथा मानव की मानसिक एंव आध्यात्मिक उन्नति की कोई सीमा नहीं है।
वास्तव में यह महत्वपूर्ण नहीं है कि हममें अभी कितने दोष हैं तथा हमने कितनी सफलता प्राप्त की है अथवा हम ऊपर उठने मे कितनी बार विफल हुए हैं, बल्कि महत्वपूर्ण यह हैं कि हमने बार बार प्रयत्न किया है। पूर्णता तो एक आदर्श है, एक स्वप्न है जा कभी प्रापत् नहीं होता किन्तु उसकी ओर बढते रहने में ही जीवन की कृतार्थता है।
ध्यान तथा मौन की साधना मानव के दिव्य अन्तर्तम के संस्पर्श द्वारा उसे पूर्णता की ओर निरन्तर बढने के लिए प्रेरित करती है। ध्यान का कोई तात्कालिक चमत्कार लक्षित नहीं होता। किन्तु धैर्यूपर्वक तथा नियमित रुप से नित्य-प्रति प्रात: तथा सांय ध्यान के अभ्यास का परिणाम चमत्कारपूर्ण अवश्य होता है। ध्यान का नियमित अभ्यास करने से जीवन में सर्जनात्मकता, बुद्धिबल और आन्तरिक ऊर्जा का विकास होने लगता है तथा मन भीतर अतल गहराइयों में पहुंचकर अनन्त शान्ति की अनुभूति कर लेता है। मनुष्य का मन चेतना के सूक्ष्म स्तरों को पार करके उस आनन्दावस्था को प्राप्त कर लेता है जो मन का परम गन्तव्य एंव प्राप्तव्य है। वहीं चेतना का शुद्ध रुप अथवा मूल रुप अथवा स्वाभाविक रुप है। मन अपनी वांछित निधि को पाकर तृप्त एंव कृतकृत्य हो जाता है।
ध्यान मनुष्य को भौतिक धरातल से ऊपर उठाकर आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख कर देता है। ध्यान का अभ्यास मनुष्य को व्यवहार-जगत् में अधिक सक्रिय, संघर्षशील, स्थिरमति, धैर्यपूर्ण, साहसी और दृढ बना देता है। जीवन में सर्वोच्च आनन्द की अनुभूति प्राप्त करने के लिए, सघर्ष के समय भी मानसिक सन्तुलन एंव शान्ति अनाये रखने के लिए तथा प्रत्येक अवस्थ्ज्ञज्ञ मे निरन्तर शान्त और सुप्रसन्न रहने के लिए, ध्यान का अभ्यास न केवल स्वयं शान्त और सुप्रसन्न रहता है बल्कि अपने चारों ओर वातावरण में शान्ति और प्रसन्नता का प्रसारण करता है। जिस प्राकर न्यूटन इत्यादि वैज्ञानिकों ने भौतिक क्षेत्र में असाधारण सिद्धान्तों की खोज करके मानवता कि हित किया है, उसी भारतीय ऋषियों ने आध्यात्मिक क्षेत्र में ध्यान की महत्वपूर्ण प्रक्रिया का अन्वेषण करके मानवता के कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया है।
ध्यान का नियमित अभ्यास करने से मन की अन्तर्मुखी यात्रा का प्रारम्भ हो जाता है तथा जीवन की दिशा ऊर्ध्वमुखी हो जाती है। चेतना के सूक्ष्मतम स्तर को प्राप्त करके मनुष्य अकल्पनीय शान्त एंव अनिर्रवचनीय आनन्द के संस्पर्श द्वारा कृतार्थ हो जाता है।
Anglo-Castilian Trade in the Later Middle Ages (Childs)
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Anglo-Castilian Trade in the Later Middle Ages (Manchester: Manchester
University Press, c1978), by Wendy R. Childs (multiple formats at
archive.org)
22 hours ago
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