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Tuesday, June 16, 2009

आनन्दमय जीवन by शिवानन्द (31)

हमें यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि मनुष्य स्वयं ही अपने विचारों के द्वारा अपने मन का निरन्तर निर्माण करता रहता है। हम अपने को जिन विचारों के वातावरण में रखेंगे, वैसा ही मन का निर्माण होता रहेगा। शक्ति और साहस तथा आशा और विश्वास को ही मन में दृढता से प्रतिष्ठ करना चाहिए। पराजय और निराशा की बातें सोचना तथा पराजय और निराशा की बातें कहना विकासोन्मुखी जीवन के लक्षण नहीं हो सकते। उत्साह, आत्मविश्वास और ओज जीवन के लक्षण है तथा गतिशील होकर निष्ठापूर्वक प्रयत्न करते रहना जीवन है। हमें अपने मन में उत्साह, आत्मविश्वास और ओज देनेवाले विचारों को एकाग्रता से दोहराकर उन्हें दृढ करना चाहिए तथा मन को दुर्बल कर देनेवाले घृणा, द्वेष, हिंसा, प्रतिशोध इत्यादि के विचारों को पनपने नहीं देना चाहिए। साहस और सफलता की घटनाओं से प्रेरणा लेकर आत्मविश्वास को दृढ करना चाहिए। उत्तम उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उत्साहपूर्वक प्रयत्नशील रहने से मन प्रफुल्ल रहता है। स्वार्थ, कपट, कृतघ्नता, हिंसा आदि क्षयकारक दोषों का परित्याग करके सकारात्मक बातों को ही सोचना चाहिए। कठिनाइयों और रोगों का चिन्तन करना तथा निराश होना पथभ्रष्ट होना है। चिन्ता, भय और निराशा को ईश्वरीय शक्ति से स्फूर्त आत्मविश्वास द्वारा परास्त कर देना चाहिए। चाह के होने पर राह स्पष्ट एवं सुलभ हो जाता है। जहाँ चाह वहाँ राह।
मनुष्य में अनन्त शक्ति तथा संभावनाएँ छिपी पड़ी हैं। धन-सम्पत्ति मनुष्य की सच्ची पूँजी नहीं है। कठिनाइयों को चुनौती देकर उत्साहपूर्वक आगे बढ़ते रहना तथा कभी न रुकना पौरुष का सौन्दर्य है। अपना दृढ निश्चय, अदम्य उत्साह धैर्य और आत्मविश्वास मनुष्य को जगाने, चमकाने और कीर्ति देने के लिए एक अवसर होता है। कठिनाइयों की ही बातें सोचना और कहना न केवल कायरता है, बल्कि कठिनाइयों को अधिक कठिन बना देता है। मनुष्य को कठिनाइयों को महत्त्व न देकर उत्साहपूर्वक आगे बढने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। जीवन में बहुत कुछ खो जाने पर भी पुनः प्रारम्भ करने के लिए बहुत कुछ उत्तम बचा रहता है। यदि आत्मविश्वास और उत्साह की संजीवनी शेष है तो जीवन का कटा हुआर वृक्ष फिर से फूटकर उग आएगा। आशावान् एवं उत्साही मनुष्य विपत्ति आने पर विनष्ट नहीं होते तथा उनमें उठ खड़ा होकर और आगे बढकर गौरव पाने की शक्ति होती है। मनुष्य कठिनाइयों के मध्य में गिरते और उठते हुए तथा संभलकर आगे बढते हुए अपने उत्साह, साहस और आत्मविश्वास को दृढ बना दोता है। अदम्य उत्साह, साहस और आत्मविश्वास सफलता के मूल मन्त्र हैं। कठिन चुनौतियों को स्वीकार आकर व्यक्तित्व को चमका देते हैं। अपने जीवन में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण शक्तियों एवं क्षमताओं को पहचानकर उनके अनुरूप लक्ष्य निर्धारित करके उनकी पूर्ति के लिए निरन्तर आगे बढते रहना विकासोन्मुख होकर जीवन के उद्देश्य को पूर्ण करना है। वास्तव में मनुष्य के विचार और कर्म ही उसकी पहचान होते हैं तथा धन-सम्पत्ति, पदसत्ता और संचय मनुष्य की पहचान नहीं हो सकते।
जर्जर मन का पुनर्निर्माण करने के लिए हमें प्रातः उठने पर तथा रात्रि में सोने से पूर्व शय्या पर ही कुछ मिनिटों तक अपने स्वास्थ्य, उन्नति और उज्ज्वल भविष्य की कल्पना करते हुए उत्साह, साहस और आत्मविश्वास को प्रतिष्ठित करना चाहिए तथा धैर्यपूर्वक आगे बढते रहने का संकल्प लेना चाहिए। हमें अपनी शक्तियों से स्फूर्ति तथा पूर्वकाल की सफलताओं से प्रेरणा लेकर जीवन में कुछ श्रेष्ठ दिखाने का दृढ निश्चय करना चाहिए। कटु आलोचना और निन्दा से उत्तेजित न होने का तथा बाधाओं से विचलित न होने का वज्र संकल्प लेना मनुष्य को विकासोन्मुखी बना देता है ईश्वरीय शक्ति का सहारा लेकर तथा सत्य,न्याय और प्रेम के मार्ग पर आरूढ रहकर मनुष्य शक्तिशाली होता चला जाता है। जो ईश्वरीय शक्ति का सहारा लेकर आगे बढने का निश्चय कर लेता है, उसे किसी अन्य सहारे की आवश्यकता नहीं रहती तथा वह सन्तुलन, स्थिरता, क्षमता और शान्ति को सुरक्षित रख सकता है।
मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण माता-पिता, परिवार, गुरु, मित्रगण तथा समजा से प्राप्त संस्कारों के आधार पर तो होता ही है किन्तु मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी तर्क-शक्ति के द्वारा चले और बुरे का भेद समझकर स्वयं को उत्तम शिक्षा दे तथा अपने व्यक्तित्व का नव-निर्माण स्वयं करे। ज्ञान-संचय करना शिक्षा नहीं होती, बल्कि अन्तर्जागरण करना शिक्षा होती है। मनुष्य विवेकपूर्वक आत्मनिर्देश देकर स्वयं को श्रेष्ठ शिक्षा दे सकता है। वास्तव में मनुष्य स्वयं ही अपना श्रेष्ठ शिक्षक और पथ-प्रदर्शक है।
मनुष्य को बहिर्जगत् में ज्ञान और शिक्षा का आदर करते हुए अपने भीतर अपना ही प्रकाशदीप प्रज्वलित करना चाहिए जो बुद्धि को आलोकित कर दे तथा अनेक ज्ञानीजन एवं गुरुजन का सम्मान करते हुए अपने भीतर ही गुरु का दर्शन करना चाहिए जो सर्वत्र और सर्वदा सुलभ है। कोई महान् ज्ञानी भी हमें कब तक सहारा दे सकता है? हमें दूसरों से प्रेरणा और शिक्षा लेकर स्वयं शिक्षा देनी चाहिए तथा अपने विवेक का जागरण करना चाहिए। विवेक ही वह प्रकाश-दीप एवं कवच है जो हमें न केवल कटु आलोचना, मिथ्या दोषारोपण तथा निराधार निन्दा के प्रभाव से सुरक्षित करता है, बल्कि अभद्र विचारों, निराशा, अवसाद और क्लेश से भी मुक्त रखता है।

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