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Tuesday, June 16, 2009

आनन्दमय जीवन by शिवानन्द (25)

मनुष्य के जीवन में कुछ परिस्थिति ऐसी भी होती हैं जहाँ मनुष्य विवशता का अनुभव करता है तथा जहाँ पुरुषार्थ करने का अवसर एवं अवकाश नहीं दीखता। जो मनुष्य विवशता को समझने का प्रयत्न नहीं करता और उसके विविध पक्षों पर गम्भीर विचार नहीं करता, उसका जीवन-चिन्तन अधूरा रहता है। विवशता एक यथार्थ है किन्तु अनेक लोग साधारण-सी स्थिति में पुरुषार्थ का अवसर और अवकाश होते हुए भी विवशता मानकर निष्क्रिय हो जाते हैं। मनुष्य को अन्त तक पुरुषार्थ करते रहना चाहिए क्योंकि अनेक बार पुरुषार्थ करते रहने से असंभव भी संभव हो जाता है। पूर्ण विवशता की स्थिति में भी मनुष्य को मन की हार नहीं मानना चाहिए तथा विवशता के साथ समझौता करके मन को संयम और शान्त कर लेना चाहिए।
संसार में किसके साथ क्या दुर्घटना हो जाए, कब अकस्मात् उत्सव का आनन्द-मंगल शोक के करुण क्रन्दन में परिणत हो जाए, कब क्या अप्रत्यशित क्षति हो जाए, किस प्रिय जन को मृत्यु हमसे छीन ले अथवा कब किसके साथ क्या दुर्घटना हो जाए, कब किसके अरमानों की दुनिया उजड़ जाए, कोई नहीं जानता। मृत्यु एक विवशता है तथा अपरिहार्य है। मृत्यु के कारण किसी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति का अथवा किसी प्रियजन का चिरवियोग हो जाना मनुष्य को स्वभावतः शोकविह्वल कर देता है। मनुष्य शोक और संकट की स्थिति को चिंतन एवं विचार से ही पार कर सकता है। संसार में संकट और शोक का कोई अन्त नहीं है। अगणित लोग हमारी अपेक्षा कहीं अधिक संकट और शोक से घिरे हुए हैं किन्तु हम अपने संकट और शोक में डूब जाते हैं कि हमें संसार में अपने से अधिक दुःखी कोई अन्य व्यक्ति नहीं दीखता। संकट और शोक के समय दूसरों के संकट और शोक दृष्टिपात करने से धीरज बँधता है। संसार मे केवल मैं ही अकेला संकट का सामना नहीं कर रहा हूँ, जीवन में सभी को बड़े-बड़े कष्ट उठाने पड़ते हैं, भले ही संकटों के स्वरूप भिन्न हों। संकट और शोक जीवन के अनिवार्य अंग हैं।
मृत्यु जीवन का एक यथार्थ है। मृत्यु के प्रति हमारी धारणा हमारे समस्त चिन्तन को प्रभावित करती है। मृत्यु हमारे मन में अनेक प्रश्न खड़े कर देती है तथा मन को गहन विषाद के भँवर में डालकर उसे झकझोर देती है। मृत्यु मनुष्य के मन में जीवन और जगत् के सम्बन्ध में अनेक दार्शनिक विचारों को उत्पन्न कर देती है। शोक की परछाइयाँ अत्यन्त भयावह होती हैं। प्रिय व्यक्ति की मृत्यु से शून्यता एवं रिक्तता उत्पन्न हो जाती है किन्तु वह एक ऐसी बेबसी होती है कि कोई भी कुछ सहायता नहीं कर सकता तथा कुछ भी उपाय नहीं होता। शोकविह्वल स्नेही जन विमूढ़ होकर प्राण शून्य,निर्जीव देह के समक्ष उसे सजीव समझकर कभी प्रेमसूचक शब्दों से भावपूर्ण सम्बोधन करते हैं तथा सभी उसे मृतक स्वीकार करके हृदय-विदारक रुदन करते हैं। ऐसे दृश्य को देखकर कोई भी सहृदय व्यक्ति व्याकुल हुए बिना नहीं रह सकता। कभी-कभी दुर्घटनाग्रस्त तरुण की आकस्मिक मृत्यु से तो हाहाकार ही मच जाता है। तदननतर धदकती हुई चिता में रखे जाने पर परम प्रिय व्यक्ति का देह देखते ही देखते थोड़ी ही देर में भस्मीभूत हो जाता है। क्या शेष बचा? मात्र स्मृति जो मन के घाव को कुरेदनकर उसे ताजा करती रहती है और भीतर जीवन में कहीं ऐसी शून्यता एवं रिक्तता उत्पन्न कर देती है जिसकी पूर्ति कभी होती ही नहीं। पुरानी घटनाओं के विविध दृश्य सिनेमा की रिल की भाँति स्मृति-पटल पर उभरकर आते हैं तथा संयोग और वियोग की गूढ़ अनुभूतियों के द्वारा मर्मान्तक पीडा देते हैं। यह जीवन का एक यथार्थ है।
साधारणतः लोग किसीकी मृत्यु होने पर उसके गुणों और दोषों की चर्चा करते हैं और कहते हैं कि "इस दुनिया मे आदमी की भलाई और बुराई ही रह जाती है। आदमी क्यों झूढ-सच बोलकर और दूसरों को सताकर धन इकट्ठा करता है? सब कुछ जोड़ा हुआ तो यहीं छूट जाता है; आदमी को सदा सच बोलना चाहिए और भलाई के काम करने चाहिए।" इसे क्षणिक श्मशान-वैराग्य कहते हैं। किन्तु प्रकृति का विधान विचित्र है मनुष्य के देह और इन्द्रियों की माँग तथा उसके दायित्व उसे जगत् के कार्यों मे व्यस्त कर देते हैं और धीरे-धीरे शोक का आवेग क्षीण होने लगता है। सासांरिक व्यस्तता के दुःखद घटना विस्मृत एवं धूमिल होने लगती है तथा मनुष्य पुनः संसार के मोहजाल में फँस जाता है। वास्तव में, मनुष्य शोक से उत्पन्न नीरसता से उकता जाता है तथा शोक की छटपटाहट से छूट जाना चाहता है। शोक मन का प्रगाढ अंधकार होता है जो कुछ समय तक तो अच्छा लगता है किन्तु शीघ्र ही मनुष्य अपने भीतर प्रच्छन्न गूढ आनन्दभआव का सहारा लेकर अन्धकार को सरलता से पार कर लेता है। वास्तव में आनन्द मनुष्य का स्वभाव है तथा शोक और दुःख मनुष्य का सहज स्वभाव कदापि नहीं है। मनुष्य अधिक समय तक शोक और दुःख के अन्धकार में जीवित नहीं रह सकता है। मनुष्य स्वभावतः अन्धकार से प्रकाश की ओर, दुःख से आनन्द की ओर, अज्ञान से ज्ञान की ओर तथा मृत्यु से अमरता की ओर जाने का प्रयत्न करता है क्योंकि उसके भीतर संस्थित आत्मज्योति प्रकाशस्वरूप, आनन्दस्वरूप, ज्ञान स्वरूप तथा अमृतस्वरूप है।
मृत्यु जीवन-यात्रा का अपरिहार्य अंग है किन्तु मनुष्य अपने मन में मृत्यु की अनिवार्यता को स्वीकार नहीं करता। दैहिक मृत्यु के यथार्थ को स्वीकार कर लेने से वह भयावह प्रतीत नहीं होती। मृत्यु विवेकदायिनी गुरु है। मृत्यु मनुष्य में वैराग्यभाव जगाकर मन को निर्मल करती है। मृत्यु का भय प्रायः सब कुछ छूय जाने और नाते टूट जाने का भय होता है तथा व्यक्तियों एवं वस्तुओं के प्रति हमारी अत्यधिक आसक्ति ही भय के मूल में होती है। मनुष्य को यात्री के सदृश्य संसार की वस्तुओं के प्रलोभन से मुक्त रहना चाहिए तथा यहीं छूट जानेवाली धन-कदापि नहीं बनाना चाहिए। जीवन का उद्देश्य विलासिता मे भटकना कदापि नहीं हो सकता। सत्य की साधना करने से तथा प्रेम के मार्ग को अपनाने से जीवन का लक्ष्य स्वयं स्पष्ट हो जाता है। घोर संकट में भी मनुष्य को भविष्योन्मुखी होकर साहसपूर्वक आगे बढते रहना चाहिए तथा जीवन के विविध क्षेत्रों में अपने दायित्वों के निर्वाह के लिए तत्पर रहना चाहिए। मनुष्य को मृत्यु से भयभीत नहीं होना चाहिए तथा प्रत्येक क्षण मृत्यु के शोक और भय को ज्ञान द्वारा पार करके कालातीत हो जाते हैं तथा अमरत्व प्राप्त कर लेते हैं।

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