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Friday, June 26, 2009

२/ अंधा, बहरा और नंगा

किसी बड़े शहर में तीन आदमी ऐसे थे, जो अनुभवहीन होने पर भी अनुभवी थे। एक तो उसमें दूर की चीज देख सकता था, पर आंखों से अंधा था। हजरत सुलेमान के दर्शन करने में तो इसकी आंखें असमर्थ थीं, परन्तु चींटी के पांव देख लेता था। दूसरा बहुत तेज़ सुननेवाला, परन्तु बिल्कुल बहरा था। तीसरा ऐसा नंगा, जैसे चलता-फिरता मुर्दा। लेकिन इसके कपड़ों के पल्ले बहुत लम्बे-लम्बे थे। अन्धे ने कहा, ‘‘देखो, एक दल आ रहा है। मैं देख रहा हूं कि वह किस जाति के लोगों का है और इसमें कितने आदमी हैं।’’ बहरे ने कहा, ‘‘मैंने भी इनकी बातों की आवाज सुनी।’’ नंगे ने कहा, ‘‘भाई, मुझे यह डर लग रहा है कि कहीं ये मेरे लम्बे-लम्बे कपड़े न कतर लें।’’ अन्धे ने कहा, ‘‘देखो, वे लोग पास आ गये हैं। अरे! जल्दी उठो। मार-पीट या पकड़-धकड़ से पहले ही निकल भागें।’’ बहरे ने कहा, हां, इनके पैरों की आवाज निकट होती जाती है।’’ तीसरा बोला, ‘‘दोस्तो होशियार हो जाओ और भागो। कहीं ऐसा न हो वे मेरा पल्ला कतर लें। मैं तो बिल्कुल खतरे में हूं!’’
मललब यह कि तीनों शहर से भागकर बाहर निकले और दौड़कर एक गांव में पहुंचे। इस गांव में उन्हें एक मोटा-ताज़ा मुर्गा मिला। लेकिन वह बिल्कुल हड्डियों की माला बना हुआ था। जरा-सा भी मांस उसमें नहीं था। अन्धे ने उसे देखा, बहरे ने उसकी आवाज सुनी और नंगे ने पकड़कर उसे पल्ले में ले लिया। वह मुर्गा मरकर सूख गया था और कौव ने उसमें चोंच मारी थी। इन तीनों ने एक देगची मंगवायी, जिसमें न मुंह था, न पेंदा। उसे चूल्हे पर चढ़ा दिया। इन तीनों ने वह मोटा ताजा मुर्गा देगची में डाला और पकाना शुरु किया और इतनी आंच दी कि सारी हड्डियां गलकर हलवा हो गयीं। फिर जिस तरह शेर अपना शिकार खाता है उसी तरह उन तीनों ने अपना मुर्गा खाया। तीनों ने हाथी की तरह तृप्त होकर खाया और फिर तीनों उस मुर्गें को खाकर बड़े डील-डौलवाले हाथी की तरह मोटे हो गये। इनका मुटापा इतना बढ़ा कि संसार में न समाते थे, परन्तु इस मोटेपन के बावजूद दरवाज़े के सूराख में से निकल जाते थे।

[इसी तरह संसार के मनुष्यों को तृष्णा को रोग हो गया है कि वे दुनिया की प्रत्येक वस्तु को,भले ही वह कितनी ही गन्दी हो, पर प्रत्यक्ष रुप में सुन्दर हो,

अपने पेट में उतारने की इच्छा रखते हैं। लेकिन दूसरी तरफ यह हाल है कि बिन मृत्यु के मार्ग पर चले इन्हें चारा नहीं और वह अजीब रास्ता है, जो इन्हें दिखाई नहीं देती। प्राणियों के दल-के-दल इसी सूराब से निकल जाते हैं और वह सूराख नजर नहीं आता। जीवों का यह समूह इसी द्वार के छिद्र में घुस जाता है और छिद्र तो क्या, दरवाजा तक भी दिखाई नहीं देता और इस कथा में बहरे का उदाहरण यह है कि अन्य प्राणियों की मृत्यु का समाचार तो वह सुनता है, परन्तु अपनी मौत से बेखबर है।
तृष्णा का उदाहरण उस अन्धे से दिया गया है, जो अन्य मनुष्यों के थोड़े-थोड़े दोष तो देखता है, लेकिन अपने दोष उसे नजर नहीं आते। नंगे की मिसाल यह है कि वह स्वयं नंगा ही आया है और नंगा ही जाता है। वास्तव में उसका अपना कुछ नहीं हैं। परन्तु सारी उम्र मिथ्या भ्रम में पड़कर समाज की चोरी के भय से डरता रहता है। मृत्यु के समय तो ऐसा मनुष्य और भी ज्यादा तड़पता है। परन्तु उसकी आत्मा खूब
हंसती है कि जीवनकाल में यह सदैव का नंगा मनुष्य कौनसी वस्तु के चुराये जाने के भय से डरता था। इसी समय धनी मनुष्य को तो यह मालूम होता है कि वास्तव में वह बिल्कुल निर्धन था। लोभी को यह पता चलता है कि सारा जीवन अज्ञानता में नष्ट हो गया।
इसलिए ए मनुष्य, तू अपने जीवन में इस बात को अच्छी तरह समझ जा कि परलोक में तेरा क्या परिणाम होगा और विद्याओं के जानने से अधिक तेरे लिए यह अच्छा है कि तू अपने स्वरुप को जाने]1

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