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Tuesday, June 16, 2009

आनन्दमय जीवन by शिवानन्द (27)

संसार में मनुष्य को पग-पग पर चुनौती मिलती है तथा अनेक बार अग्नि-परीक्षा होती है। जीवन-यात्रा में मनुष्य को सभी कुछ मिलता है-कभी धूप, कभी छाँव, कभी सुख, कभी दुःख, कभी सम्मान, कभी अपमान, कभी झगड़ा, कभी शान्ति, कभी सफलता, कभी ठोकर। वास्तव में इन्हें जीवन का अनिवार्य अंग मान लेने से मन को आघात नहीं होता। संकट और निराशा के क्षणों में आशा और विश्वास का सहारा लेना ऐसा ही होता है जैसे अन्धकार से घिरने पर प्रकाश की किरण की ओर बढ़ना। विवेकशील पुरुष आशावान् होकर तथा आत्मविश्वास का सहारा लेना ऐसा ही होता है जैसे अन्धकार से घिरने पर प्रकाश की किरण की ओर बढना। विवेकशील पुरुष आशावान् होकर तथा आत्मविश्वास और धैर्य को जगाकर संकट को पार कर लेता है।
जीवनत-यात्रा में ठोकरों और संकटों के अनुभव चिंतनशील मनुष्य को कुण्ठित नहीं करते बल्कि परिपक्व बना देते हैं। वृक्ष का फल आतप और वर्षा से पक जाता है और वर्षा से पक जाता है और रसीला हो जाता है। परिपक्व होने पर मनुष्य को चिंता और भय नहीं सताते। वह अनुभवों का धनी होने के कारण संकट से घबरा जाने के बजाए संघर्षशील अथवा जुझारू हो जाता है तथा समस्या का समाधान करने के लिए उठ ख़ड़ा होता है।
जो मनुष्य जीवन में अनुभवों के समय अपनी आँखें खोले रखता है अर्थात् अपने चिन्तन और विचार को अथवा विवेक को जगाए रखता है, अनुभव उसे परिपक्व बना देते हैं। विवेकशील मनुष्य अनुभवी अथवा परिपक्व होता है। परिपक्व मनुष्य के उद्वेग उसके नियंत्रण में होते हैं तथा वह सहसा आवेश में आकर संयम नहीं खोता। यह तथ्य है कि आयु भी बुद्धि को परिपक्व बनाती है। परिपक्वता का प्रारम्भ लगभग अठारह वर्ष की आयु से होता है तथा लगभग पैंतास वर्ष की आयु में पर्याप्त परिपक्वता आ जाती है और इसके अनन्तर परिपक्वता बढ़ती रहती है। परिपक्वता में वृद्ध होने पर प्रायः मनुष्य की रटने की शक्ति तथा पुरानी घटनाओं के अनावश्यक एवं महत्त्वहीन विस्तार को स्मरण रखने की शक्ति कुछ कम होने लगतची है किन्तु समझने की शक्ति तीव्र हो जाती है तथा मनुष्य में गम्भीरता आ जाती है। परिपक्वता आने पर मनुष्य अधिक समझदार, सहनशील, आत्मसंयमी, धैर्यवान्, स्थिर तथा सम हो जाता है। परिपक्वता का अर्थ है स्थिरता, दृढ़ता तथा रसमयता। अपरिवक्व व्यक्ति आगे-पीछे नहीं देखता तथा जल्दबाज है । वास्तव में चिन्तनहीन एवं विचारहीन व्यक्ति आयु बढ़ने पर भी परिपक्व नहीं होता। विवेक का जागरण ही मनुष्य को पूर्ण परिपक्व बनाता है। परिवक्व व्यक्ति गोपनीय बातों को गोपनीय रखता है तथा वह जानता है कि कहाँ कितना और क्या कहना है। वह हर्ष, शोक, आक्रोश आदि के वेग पर नियंत्रण कर लेता है तथा सहसा उत्तेजित नहीं होता। वह मर्यादा में रहकर व्यवहार करता है। मर्यादा का अतिक्रमण व्यक्ति और समाज के लिए घातक होता है।
मनुष्य को विवेक का जागरण होने पलर अपनी अबोधता में, बुद्धि की अपरिपक्व अथवा अर्द्धचेतन अवस्था में, परवशता, उत्तेजना अथवा भावुकता की अवस्था में अर्थात् असन्तुलित अवस्था में, दिए हुए अपने अनैतिक वचन को अमान्य कर देना चाहिए। मनुष्य अनेक बार छल-कपट के चक्र में फँसकर अथवा आवेशवश अथवा भ्रान्तिवश ऐसे वचन कह देता है जो अनैतिकता एवं अन्याय से युक्त होते हैं तथा जिनके मान्य होने से भीषण दुष्परिणाम हो सकते हैं। यद्यपि सामान्तः वचन का पालन करना चारित्रिक उत्कृष्टता ही होती है तथापि घोर दुष्पारिणाम होने की संभावना की विशेष परिस्थिति में, आवेशपूर्ण वचन के बन्धन को अमान्य करके उससे मुक्त हो जाना सर्वथा समुचित होता है। वास्तव में विवेकशील पुरुष कभी उत्तेजनावश अथवा आवेगवश होकर अनैतिकतापूर्ण एवं अन्यायपूर्ण प्रतिज्ञा नहीं करता। वह सोच-समझकर ही कुछ कहता है तथा हानि-लाभ की परवाह न करके विवेकपूर्वक अपने नैतिक एवं न्याय्य वचन का निर्वाह भी करता है। नैतिक एवं न्याय्य उद्देश्य की पूर्ति के लिए कष्ट उठाना श्रेयस्कर होता है तथा उस कष्ट में एक अनिर्वचनीय सुख छिपा रहता है।

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