चिन्तन और ध्यान द्वारा भय, चिन्ता, निराशा, आक्रोश, क्लेश, व्याकुलता आदि का शमन होने पर मनुष्य को शान्ति प्राप्त हो जाती है। ध्यानवस्था में परम शान्ति का अनुभव करने वाले व्यक्ति को निरन्त शान्त रखने का अभ्यास हो जाता है। शान्त रहने का अभ्यास करनेवाले व्यक्ति को शूल भी तिनके जैसा ही प्रतीत होता है। वह बात-बात में नाराज नहीं होता तथा क्षमा के जल से मन की कटुता को सरलता से धो देता है। वह अहंकार को उग्र नहीं होने देना तथा हेंकड़ी करने को साहस नहीं मानता। दूसरा व्यक्ति ठीक हो अथवा गलत, भड़क उठने से तो मनुष्य रक्तचाप और सिर-दर्द से पीडित हो जाता है तथा समस्य को विकट बना लेता है। हम शान्त,संयत और सन्तुलित होकर ही उचित पग उठा सकते हैं, उत्तेजित होकर नहीं।
शान्त रहने का अभ्यास करने वाले व्यक्ति के मन में विचार सहज भाव से आते हैं तथा उत्तेजना उत्पन्न नहीं करते। उसे इच्छाओं का वेग नहीं सताता तथा चिन्ता और भय पीडा नहीं देते। दूसरों से सम्मान न मिलने पर उसके मन में क्षोभ नहीं होता तथा द्वेष और घृणा नहीं जागते। दूसरों की दुष्टता देखकर उसकी प्रतिक्रिया विवेकपूर्ण होती है, क्रोधपूर्ण नहीं। वह अधिक नहीं बोलता तथा वाणी और व्यवहार में संयत रहता है। शान्ति का अभ्यास करने वाले व्यक्ति का मन कभी-कभी ठहरकर शान्ति का अनुभव करता है। शान्त मन ही प्रसन्नता और सुख का पूर्ण अनुभव कर सकता है। शान्त मन में ही प्रसन्नता की लहर बार-बार उठ सकती है। वास्तव में प्रसन्नता और शान्ति का परस्पर गहन सम्बन्ध है। प्रसन्नता की पराकाष्ठा अथवा प्रसन्नता का घनीभूत रूप ही आनन्द है। आनन्द शान्ति के सागर का उज्ज्वल रत्न है, शान्ति के दुग्धामृत का मधुर नवनीत है, प्रसन्नता की शुक्ति का सुन्दर मोती है। मनुष्य के अन्तस्तल में आनन्द-स्रोत निरन्त बहता रहता है जिसका संस्पर्श मनुष्य को आनन्दपूरित कर देता है। आनन्द शान्ति के परे अथवा शान्ति की चरमावस्था है।
Suing Alma Mater (Olivas)
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Suing Alma Mater: Higher Education and the Courts (Baltimore: Johns Hopkins
University Press, c2013), by Michael A. Olivas (multiple formats with
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21 hours ago
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