Search This Blog

Tuesday, June 16, 2009

आनन्दमय जीवन by शिवानन्द (22)

प्रत्येक मनुष्य पशु-स्तर(दैहिक अथवा भौतिक-स्तर) पर क्षुधा अथवा जठराग्नि की तृप्ति भोजन द्वारा करता है, नेत्र, रसना, नासिका, कर्ण और वचा की तृप्ति यौन द्वारा करता है तथा निद्रा द्वारा समस्त देह को विश्राम देता है। किन्तु आन्तरिक विकास होने पर मनुष्य यह समझ लेता है कि पशुस्तर अथवा भौतिक धरातल पर मात्र दैहिक सुखभोग करना जीव का लक्ष्य कदापि नहीं हो सकता। मनुष्य यह भी समझ लेता है कि इन्द्रिया-स्तर पर भोगों के पीछे भटकते रहने से गहन तृप्ति देकर मनुष्य को बौद्धिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक दिशा की ओर उन्मुख कर देता है। भोग-वृत्ति का नियंत्रण एवं उसका शमन विवेकपूर्ण भोग द्वारा ही संभव होता है, दमन से कुण्ठा उत्पन्न होकर विकास को अवरुद्ध कर देती है।
यद्यपि मनुष्य को जीवन-पर्यन्त किसी अंश में भौतिक-स्तर अथवा पशु-स्तर पर भी रहना पड़ता है और भौतिक-स्तर की उपेक्षा करना घातक सिद्ध हो सकता है तथापि आन्तरिक विकास होने पर विवेखशील पुरुष का चिन्तन और आचरण ऊर्ध्वमुखी हो जाता है। जीवन में समग्रता का अर्थ यह कदापि नहीं हो सकता है कि पशु-स्तर तथा आध्यात्मिकस्तर समान हैं। विभिन्न स्तरों में परस्पर तारत्मय एवं सन्तुलन रहना ही जीवन की समग्रता है।
मनुष्य स्वध्याय, शिक्षा, ज्ञानसंचय और चिन्तन-मनन के द्वारा पशु-स्तर से ऊपर उठकर बौद्धिक धरातल पर जीने लगता है तथा उसे बौद्धिक सुख की अपेक्षा इन्द्रिय-सुख तुच्छ प्रतीत होने लगते हैं। प्रेम और परोपकार मनुष्य को नैतिक आधार देकर अध्यातम का मार्ग प्रशस्त कर देते हैं तथा आध्यात्मिक-स्तर पर मनुष्य ध्यान आदि के द्वारा अपने भीतर ही दिव्य आलोक एवं शुद्ध आनन्द को प्राप्त करके कृतार्थ हो जाता है।
स्वाध्याय, ज्ञानसंचय और शिक्षा को चिन्तन-मनन के द्वारा ही आत्मसात् किया जा सकता है। सत्य तो यह है कि समस्त स्वाध्यय, ज्ञान-संचय और शिक्षा का उद्देश्य भी मनुष्य में चिन्तन को जगाकर जीवन के प्रति एक स्वस्थ दृष्टिकोण एवं विवेक को उत्पन्न करना है। शिक्षा एवं स्वाध्याय का उद्देश्य मात्र ज्ञान-संचय नहीं है, बल्कि अपने भीतर प्रकाश एवं जागरण की अवस्था उत्पन्न करना है। स्वाध्याय एक सत्संग है। विवेकशील पुरुष जीवनभर स्वाध्याय करता है। स्वाध्याय में कभी-कभी थोड़े-से ही ऐसे शब्द मिल जाते हैं जो जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन ला देते हैं तथा जीवन का धरातल की ऊँचा कर देते हैं। प्रकाश की एक ही किरण समस्त घनीभूत अन्धकार को क्षणभर में धवस्त कर देती है।
वास्तव में मात्र स्वाध्याय, ज्ञान-संचय और शिक्षा एक भयावह बोझ है यदि मनुषय चिन्तन-मनन द्वारा उन्हें स्वीकार करके अपने जीवन का अंग नहीं बना लेता। वास्तविक शिक्षा वहीं है जो मनुष्य सोच-समझकर स्वयं को देता है। अनुशासन और संयम जो बाहर से थोपा जाता है, वह प्रायः व्यक्तित्व में विद्रोह-भावना और कुण्ठाएँ उत्पन्न कर देता है। अनुशासन और संयम का महत्त्व समझकर आत्मानुशासन और आत्मसंयम का पालन करना व्यक्तित्व का निर्माण कर देता है। मन जिसे स्वीकार कर लेता है, वही उसका स्वरूप हो जाता है। स्वानुभूति का प्रकाश सच्चा पथ-प्रदर्शक होता है।
गम्भीर चिन्तन मनुष्य को सत्य की ओर उन्मुख कर देता है तथा सत्य और प्रेम एक बिन्दु पर मिल जाते हैं। सत्य का सक्रिय रूप प्रेम है। सत्य का उपासक व्यवहार में प्रेम को धारण कर लेता है। वास्तव में सत्य और प्रेम एक ही तत्त्व के दो पक्ष होते हैं। प्रेम जीवन को रसमय बना देता है। प्रेम मनुष्य को व्यापक बना देता है। प्रेम निर्बन्ध होता है। प्रेम की गति कभी अवरुद्ध अथवा प्रतिहत नहीं होती। प्रेम असीम और अन्न्त होता
है।प्रेम मनुष्य को निर्मल बनाकर व्यक्तित्व का परिष्कार कर देता है। प्रेम मनुष्य कोसरल और सहृदय बना देता है। प्रेम के बिना आत्मसंयम भी मात्र दमन है। प्रेम मधुरामृतहोता है। प्रेम भौतिक प्रलोभन तथा भय को निर्मूल कर देता है। प्रेम का अर्थ है भलाईमें अटूट विश्वास होना तथा दूसरों के लिए स्वार्थ छोड़कर जीना। सत्य और प्रेम ध्रमहै। जो धर्म, ग्रन्थ और गुरु सत्य और प्रेम को सम्प्रदाय की संकुचित सीमाओं मेंबाँधते हैं, वे सत्य और प्रेम के तत्त्व को नहीं जानते। प्रेम पवित्र, पावन औरव्यापक होता है। प्रेम का मोती सात्विकता की शुक्ति (सीप) में उत्पन्न होता औरविकसित होता है। केसर की खेती साधारण भूमि मेंम नहीं होती ।
प्रेम का सारभूत तत्त्व करुणा है। करुणा में संवेदनशीलता और सहृदयता अन्तर्निहित होते हैं। करुणा व्यापक तत्त्व है। करुणा प्राणिमात्र को अपनी परिधि में समेट लेती है। कौन अपना, कौन पराया? परोपकार में अपना उपकार भी सन्नहित होता है। प्रेम का सार है करुणा, परदुःखकातरता, सेवा, सहनशीलता, उदारता, क्षमा, त्याग बलिदान। समस्त भेदभाव छोड़कर दीन-दुःखी, उपेक्षित, पीड़ित, शोषित और असहाय लोगों के आँसू पोंछना और उन्हें हृदय लगाकर उनकी सेवा करना धर्म है तथा किसीको रुलना, पीड़ा देना अथवा किसीका शोषण करना धर्म का विलोम है। भेदभाव की दीवारें तोड़कर सुरक्षा देना धर्म है, भेदभाव की दीवारों खड़ी करके दूसरों के हित का हनन करना धर्मान्ध हैं वे लोग जो धर्म की आड़ में अधर्म का प्रचार कर रहे हैं। धर्मान्ध हैं वे लोग जो धर्म के सारभूत तत्त्व प्रेम को छोड़कर धर्म के कंकाल को ढो रहे हैं। तथा सारी धरती पर उसे बलपूर्वक तथा छलपूर्वक फैलाने मे जुटे हैं। करुणापूर्ण प्रेम से बुद्धत्व का उदय होता है।
प्रेम और उदारता मनुष्य का स्वभाव है। घृणा और ईर्ष्या-द्वेष प्रतिक्रिया हैं जो व्यक्तित्व को दूषित करके शक्ति को क्षीण करते हैं। दूसरों की प्रतिष्ठा, समृद्धि आदि को देखकर प्रेरणा लेना और आगे बढ़ने का प्रयत्न करना सराहनीय है किन्तु मन को द्वेषाग्नि में जर्जरित करना अविवेक है। वास्तव में सबके क्षेत्र भिन्न-भिन्न हैं तथा मनुष्य को अपने क्षेत्र में ही ऊंचे उठने में सन्तोष करना चाहिए। ईर्ष्या-द्वेष से शरीर में ऐसे क्षारीय एवं तेजाबी तत्त्वों का स्राव होने लगता है जो स्नायुतंभ को दूषित और देह को रोगी बना देते हैं। वास्तव में मनुष्य मिथ्या अहं के कारण समाज में केन्द्रिय अथवा सम्मानपूर्ण स्थान चाहता है किन्तु विवेकशील व्यक्ति अपने से अधिक दूसरों को महत्त्व देकर सम्मान पा लेता है। प्रेमपूर्ण विचार मनुष्य के मन और शरीर को स्वस्थ कर देते हैं।
जीवन में सत्य और प्रेम को प्रस्थापना के साथ ही घृणा और भय भी स्वयं विलुप्त हो जाते हैं तथा मनुष्य को उसी मात्रा में आन्तरिक शान्ति और शक्ति प्राप्त हो जाते हैं जिस मात्रा में सत्य और प्रेम की प्रस्थापना होती है। विवेकशील मनुष्य अपने आन्तरिक विकास के अनुरूप ही आचरण करता है। मनुष्य व्यक्तिगत मामले में अहिंसा और हिंसा का पालन अपनी आन्तरिक निष्ठा के अनुरूप कर सकता है किन्तु जब अन्य लोगों अथवा राष्ट्र पर आक्रमण अथवा संकट का प्रश्न हो, कोई व्यक्ति वह कितना भी महान् हो, अकेला निर्मय लेने में स्वतंत्र नहीं हो सकता। वास्तव में व्यक्तिगत मामलों में अहिंसा के पालन का निर्णय बाह्य परिस्थितियों पर इतना निर्भर नहीं होता जितना अपने आन्तरिक विकास, विश्वास और निष्ठा पर होता है।
जीवन में सत्य और प्रेम की प्रस्थापना करना एक साधना है जिसमें धैर्य, साहस और संयम की आवश्यकता होती है। वास्तव में जीवन के किसी भी क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए साहस, धैर्य और आत्म-संयम आवश्यक होते हैं। प्रत्येक दिशा में उठकर आगे बढ़ने के लिए साहस की आवश्यकता होती है। साहस के बिना जीवन के किसी क्षेत्र में प्रगति नहीं हो सकती। अनेक विद्वान, सशक्त और साधारण व्यक्ति साहस के द्वारा आगे बढ़कर सफलता प्राप्त कर लेते हैं। अनेक विद्वान् और चरित्रवान् पुरुष उपदेश करते हैंकिन्तु साहस का अभाव होने के कारण स्वयं उठकर खड़े नहीं हो सकते तथा कार्य-क्षेत्र में पैर भी नहीं रखते। अनेक लोग तो अपने विचार रखने का भी साहस नहीं कर पाते। हाँ, महान् सन्त कर्तव्य और कर्म की सीमा से परे स्थित हो जाते हैं।
धैर्य का अर्थ है कर्म करते समय फल के लिए अधीर न होकर आशा और विश्वास के साथ-प्राप्ति के लिए जुटे रहना। धरती में बीज बोने पर उसे विकसित करने के लिए प्रतिदिन सींचने और उसकी सुरक्षा करने में धैर्य की आवश्यकता होती है। धैर्य खोकर मनुष्य भटक जाता है। लक्ष्य-प्राप्ति के मार्ग में कष्टों और बाधाओं की परवाह न करते हुए कर्तव्य पथ पर डटे रहने की आवश्यकता होती है।
संयम का अर्थ है स्वार्थ, प्रलोभन आदि दोषों पर नियन्त्रण रखते हुए अपने मन के वेग को नियन्त्रित रखना और अति उत्साह एवं निराशा के वशीभूत न होना तथा मर्यादा में रहना। संयम वहीं श्रेष्ठ है जिसे मनुष्य सोच-समझकर स्वयं अपने लागू करता है। मनुष्य साहस होने पर लक्ष्य-प्राप्ति के लिए उठ खड़ा होता है, धैर्य होने पर कर्म में जुटा रहता है तथा संयम होने पर मार्ग से भटकता नहीं है। मनुष्य को जीवन में अपना कार्य-क्षेत्र और लक्ष्य स्पष्ट कर लेना चाहिए।

No comments:

Post a Comment