एक साधु पहाड़ों पर रहा करता था। न उसके स्त्री थी और न बच्चे। वह एकान्तवास में ही मगन रहा करता था।
इस पहाड़ की घाटियों में सेव, अमरुद, अनार इत्यादि फलदार वृक्ष बहुत थे। साधु का भोजन यही मेवे थे। इनके छोड़ और कुछ नहीं खाता था। एक बार इस साधु ने प्रतिज्ञा की कि ऐ मेरे पालनकर्त्ता मैं इन वृक्षों से स्वयं मेवे नहीं तोडूगा और न किसी दूसरे से तोड़ने के लिए कहूंगा। मैं पेड़ पर लगे हुए मेवे नहीं खाऊंगा, जो हवा के झोंके से सड़कर गिर गये हों।
दैवयोग से पांच दिन तक कोई फल हवा से नहीं झड़ा। भूख की आग ने साधु को बेचैन कर दिया। उसने एक डाली की फुनगी पर अमरुद लगे हुए देखे। परन्तु सन्तोष से काम लिया और अपने मन को वश में किये रहा। इतने में हवा का एक ऐसा झोंका आया कि शाख की फुनगी नीचे झुक आयी, अब तो उसका मन वश में नहीं रहा और भूख ने उसे प्रतिज्ञा तोड़ने के लिए विवश कर दिया। बस फिर क्या था, वृक्ष से फल तोड़ते ही इसकी प्रतिज्ञा टूट गयी। साथ ही ईश्वर का कोप प्रकट हुआ, क्योंकि उसकी आज्ञा है कि जो प्रतिज्ञा करो, उसे अवश्य पूरा करो।
इसी पहाड़ में शायद पहले से ही चोरों का एक दल रहा करता था और यहीं वे लोग चोरी का माल आपस बांट करते थे। दैवयोग से उसी समय चोरो के यहां मौजूद होने की खबर पाकर कोतवाली के सिपाहियों ने इस पहाड़ी को घेर लिया और चोरों के साथ साधु को भी पकड़कर हथकड़ी-बेड़ी डाल दी। इसके बाद कोतवाल ने जल्लाद को आज्ञा दी कि इनमें से हरएक के हाथ-पांव काट डालो। जल्लाद ने सबका बांया पांव और दायां हाथ काट डाला। चोरों के साथ साधु का हाथ भी काट डाला गया और पैर काटने की बारी आने-वाली थी कि अचानक एक सवार घोड़ा दौड़ाता हुआ आया और सिपाहियों को ललकार कर कहा, ‘‘अरे देखों, यह अमुक साधु है और ईश्चर-भक्त है। इसक हाथ क्यों काट डाला?’’ यह सुनकर सिपाही ने अपने कपड़े फाड़ डाले और जल्दी से कोतवाल की सेवा में उपस्थित होकर इस घटना की सूचना दी। कोतवाल यह सुनकर नंगे पांव माफी मांगता हुआ हाजिर हुआ।
बोला ‘‘महाराज! ईश्वर जानता है कि मुझे खबर नहीं थी। ऐ दयालु, मुझे
साधु बोला, ‘‘मैं इस विपत्ति का कारण जानता हूं और मुझे अपने पापों का ज्ञान है। मैंने बेईमानी से अपना मान घटाया और मेरी ही प्रतिज्ञा ने मुझे इसकी कचहरी में धकेल दिया। मैंने जान-बूझकर प्रतिज्ञा भंग की। इसलिए इसकी सजा में हाथ पर आफत आयी। हमारा हाथ हमारा पांव, हमारा शरीर तथा प्राण मित्र की आज्ञा पर निछावर हो जाये तो बड़े सौभाग्य की बात है। तुझसे कोई शिकायत नहीं, क्योंकि तुझे इसका पता नहीं था।’’
संयोग से एक मनुष्य भेंट करने के अभिप्राय से उनकी झोंपड़ी में घुस आया। देखा कि साधु दोनों हाथों से अपनी झोली सी रहे हैं।
साधु ने कहा, ‘‘अरे भले आदमी! तू बिना सूचना दिये मेरी झोंपड़ी में कैसे आ गया।’’
उसने निवेदन किया कि प्रेम और दर्शनों की उत्कंठा के कारण यह अपराध हो गया।
साधु ने कहा, ‘‘अच्छा, तू चला आ। लेकिन खबरदार, मेरे जीवन-काल में यह भेद किसीसे मत कहना!’’
झोंपड़ी की बाहर मनुष्यों का एक समूह झांक रहा था। वह यह हाल जान गया। साधु ने कहा, ‘‘ऐ परमात्मा! तेरी माया तू ही जाने। मैं इस चमत्कार को छिपाता हूं और तू प्रकट करता है।
साधु ने आकाश-वाणी सुनी कि अभी थोड़ी ही दिन में लोग तुझपर अविश्वास करने लगते, और तुझे कपटी और प्रपंची बताने लगते। कहते कि इसीलिए ईश्वर ने इसकी यह दशा की है। वे लोग काफिर न हो जायें और अविश्वास और भ्रम में ग्रस्त न हो जायें, जन्म के अविश्वासी ईश्वर से विमुख न हो जायें, इसलिए हमने तेरा यह चमत्कार प्रकट कर दिया है कि आवश्यकता के समय हम तुझे हाथ प्रदान कर देते हैं। मैं तो इन करामातों से पहले भी तुझे अपनी सत्ता का अनुभव करा चुका हूं। ये चमत्कार प्रकट करने की शक्ति जो तुझको प्रदान कीह गयी है, वह अन्य लोगों में विश्चास पैदा करने के लिए है। इसीलिए इसे उजागर किया गया है।¬1
Valley of Wild Horses (Grey)
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Valley of Wild Horses (New York: Grosset and Dunlap, c1927), by Zane Grey
(multiple formats at archive.org)
3 hours ago
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