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Tuesday, June 16, 2009

आनन्दमय जीवन by शिवानन्द (20)

जीवन में अन्धविश्वास प्रायः अज्ञान तथा भय के कारण पनपते हैं। मनुष्य अन्धविश्वास को मन में पालकर यथार्थ से दूर हो जाता है तथा पुरुषार्थ को छोड़कर निरर्थक भटकने लगता है। अन्धविश्वास को पालने का अर्थ है अंधियारी गली में घुसकर वहाँ प्रकाश की आशा करके बाहर निकलने का रास्ता ढूँढना। अन्धविश्वासी व्यक्ति अपने समय और शक्ति का क्षय़ का क्षय करके अपने दुःख को बढ़ा लेता है। रोग होने पर चिकित्सा का मार्ग छोड़कर स्वास्थ्य-प्राप्ति के लिए अथवा निर्धनता होने पर पुरुषार्थ का मार्ग छोड़कर धन-प्राप्ति के लिए मृतक लोगों ने दफनाये हुए स्थानों पर उनकी प्रार्थना करना भटकना ही है। असत् भूत-प्रेतों को प्रसन्न करना बौद्धिकता का अपमान है। हमारे मन के पुराने संस्कार और विश्वास ही भय का भूत बना देते है। अनेक लोग ईश्वर तथा देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए निरीह, मूक और असहाय पशुओं का वध करके धार्मिक उत्सव मनाते हैं तथा उसे पुण्य-कार्य समझते हैं। जिन लोगों में पशु-बध एक पवित्र धार्मिक परम्परा हो तथा जिन्हें पशुवध के लिए बर्बरता, निर्दयता एवं क्रूरता की दीक्षा दी जाए उनसे सद्भावना, करुणार्द्रता एवं मानवता का आशा कैसे की जा सकती है ? निरीह पशु-पक्षियों की हत्या करने एवं मांसाहार करने से मनुष्य की संवेदनशील नष्ट हो जाती है तथा मनुष्य निष्करण एवं कठोर हो जाता है। सभ्य समाज के लिए निर्दयता को पवित्र सिद्ध करना अशोभनीय है। अन्धविश्वास के कुचक्र में फँसे हुए कुछ लोग जिह्वा आदि काटकर देवता को प्रसन्न करने का यत्न करते है और अन्धविश्वास के कारण उन्हें सच्चा कर देने में अप्रत्यक्ष सहयोग देने लगते हैं तथा अपने भाग्य को दोष देने लगते हैं। अगणित लोग 'होनी' में विश्वास करके पुरुषार्थ का परित्याग कर देते हैं तथा ईश्वर को दोष देते हैं।
मानव-जीवन में कर्म की प्रधानता है तथा कर्तव्य-पालन अथवा पुरुषार्थ का विकल्प पूजा-पाठ भी नहीं है। संसार के समस्त मनीषीगण ने बार-बार कहा है कि मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है। इतिहास साक्षी है कि भाग्यवाद ने अगणित व्यक्तियों और राष्ट्रों की दुर्गति कर दी तथा दृढ़ संकल्प एवं पुरुषार्थ के सहारे असंख्य वीर पुरुषों ने जीवन के विविध क्षेत्रों में साहसपूर्ण चमत्कार कर दिखाये।
संसार के इतिहास में सैकड़ों उदाहरण हैं कि थोड़े-से लोगों ने बुद्धिबल और पराक्रम का कोई विकल्प नहीं है। मानसिक व्यक्ति से दूसरे के मन की बात का ज्ञान कर लेना सम्भव है तथा बुद्धिमान् व्यक्ति का अनुमान भी संयोग से कभी ठीक हो सता है किन्तु भविष्य निर्माणाधीन होने के कारण अज्ञात होता है। मानव के विचार और कर्म पर ग्रहों के प्रभाव को स्वीकार करना बुद्धि की पराजय है।
परमात्मा की गति और परमात्मा के विधान को कुछ सूत्रों की परिधि में नहीं बाँधा जा सकता है। विधाता स्वयं ही अपने विधान को जानता हूं, कोई अन्य नहीं। उसके विधान की व्याख्या तुच्छ ग्रह नहीं कर सकते । सूर्य तथा उसके ग्रहों का अस्तित्व इस अनन्त ब्रह्मण्ड के नगण्य है तथा मनुष्य के विचार एवं कर्म पर उनका प्रभाव स्वीकार करना बुद्धि की हार है। प्रायः ज्योतिषी की भविष्यवाणी उसके मनोभाव (मूड) पर निर्भर होती है तथा किसी भविष्यवक्ता को ज्योतिषियों को अपने भविष्य का ज्ञान नहीं होता। कायर व्यक्ति अपने भविष्य को ज्योतिषियों के हाथ में तथा बलवान् पुरुष अपने भविष्य को अपने ही हाथ में सफल मानते है, उनमें कुछ गुण होते हैं, जिन्हें भाग्य के कारण जीवन में सफल मानते हैं, उनमें कुछ गुण होते हें, जिन्हें हम अनदेखा कर देते हैं। हम जिन्हें भाग्यहीनता के कारण जीवन में विफल अनदेखा कर देते हैं। हम जिन्हें भाग्यहीनता के कारण जीवन में विफल मानते हैं, उनमें कुछ दोष होते हैं जो उन्हें आगे बढ़ने नहीं देते। मनुष्य की हाथों और मस्तक की रेखाएँ बदलती रहती हैं तथा वे कभी भविष्य की निश्चित सूचना नहीं दे सकतीं। ग्रह और रेखाएँ जीवन की व्याख्या नहीं कर सकते तथा हमें समस्त समाधान अपने भीतर ही टटोलना चाहिए। अनेक बार मनुष्य स्वयं ही किसी प्रच्छन्न अपराध-बोध अथवा कुण्ठा के कारण अपने लिए अशुभ की आशंका करने लगता है जो वास्तव में निराधार एवं मिथ्या होती है।
सभी प्रकार के अन्धविश्वासों के मूल में अज्ञान और भय होते हैं। स्वाध्याय, चिन्तन और मनन से अज्ञान का निराकरण करना चाहिए तथा विवेक द्वारा भय का शमन करना चाहिए। वास्तव में हम भय को अपने से चिपटाते हैं और उसे छोड़ते नहीं है तथा मानते हैं कि भय ने हमें जकड़ रखा है। हम अपने मन के स्वामी स्वयं हैं किन्तु हमने ही इसे बाहरी दुनिया के प्रलोभन और भय से ग्रस्त कर लिया है तथा हम ही उसे उनसे क्षणभर में मुक्त कर सकते हैं। बस, एक बार, दृढ़ संकल्प करके मन की कमजोरियों के मन से निकाल फेंकना है और अपने भीतर निरन्तर जागरण की अवस्था बनाए रखना है।
हमें दृढ़ संकल्प लेना चाहिए कि जिन बातों से मानसिक अथवा शारीरिक दुर्बलता होती हो, हमें उनको सदा दूर ही रखना है। बुद्धि की विश्लेषण-शक्ति को छोड़ने पर हम स्वयं को दुर्बल बना देते हैं। सत्य का अवलम्बन हमें अन्धविश्वासों तथा भयों से मुक्त करके स्वाधीन और सुखी बना देता है। हम अन्धविश्वासों और भयों को छोड़कर शक्तिशाली बनें और बन्धनमुक्त होकर जीवन में आगे बढ़ते ही जायें। मनुष्य अपने भविष्य का निर्माण करने में सक्षम है, बस, बढ़ते ही जायें। मनुष्य अपने भविष्य का निर्माण करने में सक्षम है, बस, विवेक का निरन्तर जागरण तथा सत्य का अवलम्बन होना चाहिए। सत्य को अपनाने से हमारे भीतर ऊर्जा का अवलम्बन होना चाहिए। सत्य को अपनाने से हमारे भीतर ऊर्जा जागकर जीवन-चक्र को तीव्रगामी बना देगी । यदि हम भय त्यागकर समस्त संकट का सामना करेंगे तो सफलतापूर्वक पार कर लेंगे। अतएव सर्वप्रथम मन को सबल और सशक्त करने का सच्चा प्रयत्न करना चाहिए। निश्चय ही, ध्यानयोगी तथा सच्चे सन्त में अकल्पनीय शक्ति होती है और उनके आशीर्वाद से कष्ट निवारण भी संभव हो जाता है।
धर्म का उद्देश्य उत्तम होने पर भी धर्मक्षेत्र में अनेक जंजाल आ गे हैं। समाज की व्यवस्था के हित में कुछ मूल्यों को पुण्य की तथा उनके उल्लंघन को पाप की संज्ञा दी गई किन्तु कालान्तर में परिस्थितियों के परिवर्तन तथा वैज्ञानिक तथ्यों की बाढ़ आ जाने के कारण जन-समाज में मूल्य ही बदल गए हैं और पुराने मूल्यों को ज्यों-का-त्यों मानने की उपयोगिता एवं उपदेयता पर प्रश्न चिन्ह्न लग गया है। इसके अतिरिक्त पाप का भय विवेक को ध्वस्त कर देता है। बाल्यकाल से ही बालक के कोमल मन पर बय के संस्कार डाल देना विवेकसम्म्त नहीं है। मनुष्य बुद्धिमान प्राणी है तथा मनुष्य को समाज-विरोधी आचरण से रोकने के लिए उचित शिक्षा दी जानी चाहिए। पारलौकिक दण्ड के भय ने मनुष्य को अवांछित आचरण से उतना नहीं रोका जितना उसने मनुष्य को कुण्ठाग्रस्त करके पंगु ही बना दिया।

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