Search This Blog

Wednesday, June 17, 2009

वासना की कडियॉँ by प्रेमचंद

बहादुर, भाग्यशाली क़ासिम मुलतान की लड़ाई जीतकर घमंउ के नशे से चूर चला आता था। शाम हो गयी थी, लश्कर के लोग आरामगाह की तलाश मे नज़रें दौड़ाते थे, लेकिन क़ासिम को अपने नामदार मालिक की ख़िदमत में पहुंचन का शौक उड़ाये लिये आता था। उन तैयारियों का ख़याल करके जो उसके स्वागत के लिए दिल्ली में की गयी होंगी, उसका दिल उमंगो से भरपूर हो रहा था। सड़कें बन्दनवारों और झंडियों से सजी होंगी, चौराहों पर नौबतखाने अपना सुहाना राग अलापेंगे, ज्योंहि मैं सरे शहर के अन्दर दाखिल हूँगा। शहर में शोर मच जाएगा, तोपें अगवानी के लिए जोर-शोर से अपनी आवाजें बूलंद करेंगी। हवेलियों के झरोखों पर शहर की चांद जैसी सुन्दर स्त्रियां ऑखें गड़ाकर मुझे देखेंगी और मुझ पर फूलों की बारिश करेंगी। जड़ाऊ हौदों पर दरबार के लोग मेरी अगवानी को आयेंगे। इस शान से दीवाने खास तक जाने के बद जब मैं अपने हुजुर की ख़िदमत में पहुँचूँगा तो वह बॉँहे खोले हुए मुझे सीने से लगाने के लिए उठेंगे और मैं बड़े आदर से उनके पैरों को चूम लूंगा। आह, वह शुभ घड़ी कब आयेगी? क़ासिम मतवाला हो गया, उसने अपने चाव की बेसुधी में घोड़े को एड़ लगायी।
कासिम लश्कर के पीछे था। घोड़ा एड़ लगाते ही आगे बढा, कैदियों का झुण्ड पीछे छूट गया। घायल सिपाहियों की डोलियां पीछे छूटीं, सवारों का दस्ता पीछे रहा। सवारों के आगे मुलतान के राजा की बेगमों और मैं उन्हें और शहजादियों की पनसें और सुखपाल थे। इन सवारियों के आगे-पीछे हथियारबन्द ख्व़ाजासराओं की एक बड़ी जमात थी। क़ासिम अपने रौ में घोड़ा बढाये चला आता था। यकायक उसे एक सजी हुई पालकी में से दो आंखें झांकती हुई नजर आयीं। क्रासिंग ठिठक गया, उसे मालूम हुआ कि मेरे हाथों के तोते उड़ गये, उसे अपने दिल में एक कंपकंपी, एक कमजोरी और बुद्धि पर एक उन्माद-सा अनुभव हुआ। उसका आसन खुद-ब-खुद ढ़ीला पड़ गया। तनी हुई गर्दन झुक गयी। नजरें नीची हुईं। वह दोनों आंखें दो चमकते और नाचते हुए सितारों की तरह, जिनमें जादू का-सा आकर्षण था, उसके आदिल के गोशे में बैठीं। वह जिधर ताकता था वहीं दोनों उमंग की रोशनी से चमकते हुए तारे नजर आते थे। उसे बर्छी नहीं लगी, कटार नहीं लगी, किसी ने उस पर जादू नहीं किया, मंतर नहीं किया, नहीं उसे अपने दिल में इस वक्त एक मजेदार बेसुधी, दर्द की एक लज्जत, मीठी-मीठी-सी एक कैफ्रियत और एक सुहानी चुभन से भरी हुई रोने की-सी हालत महसूस हो रही थी। उसका रोने को जी चाहता था, किसी दर्द की पुकार सुनकर शायद वह रो पड़ता, बेताब हो जाता। उसका दर्द का एहसास जाग उठा था जो इश्क की पहली मंजिल है।
क्षण-भर बाद उसने हुक्म दिया—आज हमारा यहीं कयाम होगा।

आधी रात गुजर चुकी थी, लश्कर के आदमी मीटी नींद सो रहे थे। चारों तरफ़ मशालें जलती थीं और तिलासे के जवान जगह-जगह बैठे जम्हाइयां लेते थे। लेकिन क़ासिम की आंखों में नींद न थी। वह अपने लम्बे-चौड़े पुरलुत्फ़ ख़ेमे में बैठा हुआ सोच रहा था—क्या इस जवान औरत को एक नजर देख लेना कोई बड़ा गुनाह है? माना कि वह मुलतान के राजा की शहजादी है और मेरे बादशाह अपने हरम को उससे रोशन करना चाहते हैं लेकिन मेरी आरजू तो सिर्फ इतनी है कि उसे एक निगाह देख लूँ और वह भी इस तरह कि किसी को खबर न हो। बस। और मान लो यह गुनाह भी हो तो मैं इस वक्त वह गुनाह करूँगा। अभी हजारों बेगुनाहों को इन्हीं हाथों से क़त्ल कर आया हूँ। क्या खुदा के दरबार में गुनाहों की माफ़ी सिर्फ़ इसलिए हो जाएगी कि बादशाह के हुक्म से किये गये? कुछ भी हो, किसी नाज़नीन को एक नजर देख लेना किसी की जान लेने से बड़ा गुनाह नहीं। कम से कम मैं ऐसा नहीं समझता।
क़ासिम दीनदार नौजवान था। वह देर तक इस काम के नैतिक पहलू पर ग़ौर करता रहा। मुलतान को फ़तेह करने वाला हीरो दूसरी बाधाओं को क्यों खयाल में लाता?
उसने अपने खेमे से बाहर निकलकर देखा, बेगमों के खेमे थोड़ी ही दूर पर गड़े हुए थे। क़ासिम ने तजान-बूझकर अपना खेमा उसके पास लगाया था। इन खेमों के चारों तरफ़ कई मशालें जल रही थीं और पांच हब्शी ख्वाजासरा रंगी तलवारें लिये टहल रहे थे। कासिम आकर मसनद पर लेट गया और सोचने लगा—इन कम्बख्त़ों को क्या नींद न आयेगी? और चारों तरफ़ इतनी मशाले क्यों जला रक्खी हैं? इनका गुल होना जरूरी है। इसलिए पुकारा—मसरूर।
-हुजुर, फ़रमाइए?
-मशालें बुझा दो, मुझे नींद नहीं आती।
-हुजूर, रात अंधेरी है।
-हां।
-जैसी हुजूर की मर्जी।
ख्व़ाजासरा चला गया और एक पल में सब की सब मशालें गुल हो गयीं, अंधेरा छा गया। थोड़ी देर में एक औरत शहजादी के खेमे से निकलकर पूछा-मसरूम, सरकमार पूछती हैं, यह मशालें क्यों बुझा दी गयीं?
मशरूम बोला-सिपहदार साहब की मर्जी। तुम लोग होशियार रहना, मुझे उनकी नियत साफ़ नहीं मालूम होती।

कासिम उत्सुकता से व्यग्र होकर कभी लेटता था, कभी उठ बैठता था, कभी टहलने लगता था। बार-बार दरवाजे पर आकर देखता, लेकिन पांचों ख्व़ाजासरा देंवों की तरह खडें नजर आते थे। क़ासिम को इस वक्त यही धुन थी कि शाहजादी का दर्शन क्योंकर हो। अंजाम की फ़िक्र, बदनामी का डर और शाही गुस्से का ख़तरा उस पुरज़ोर ख्वाहिश के नीचे दब गया था।
घड़ियाल ने एक बजाया। क़ासिम यों चौकं पड़ा गोया कोई अनहोनी बात हो गयी। जैसे कचहरी में बैठा हुआ कोई फ़रियाद अपने नाम की पुकार सुनकर चौंक पड़ता है। ओ हो, तीन घंटों से सुबह हो जाएगी। खेमे उखड़ जाएगें। लश्कर कूच कर देगा। वक्त तंग है, अब देर करने की, हिचकचाने की गुंजाइश नहीं। कल दिल्ली पहुँच जायेंगे। आरमान दिल में क्यों रह जाये, किसी तरह इन हरामखोर ख्वाजासराओं को चकमा देना चाहिए। उसने बाहर निकल आवाज़ दी-मसरूर।
--हुजूर, फ़रमाइए।
--होशियार हो न?
-हुजूर पलक तक नहीं झपकी।
-नींद तो आती ही होगी, कैसी ठंड़ी हवा चल रही है।
-जब हुजूर ही ने अभी तक आराम नहीं फ़रमाया तो गुलामों को क्योंकर नींद आती।
-मै तुम्हें कुछ तकलीफ़ देना चाहता हूँ।
-कहिए।
-तुम्हारे साथ पांच आदमी है, उन्हें लेकर जरा एक बार लश्कर का चक्कर लगा आओ। देखो, लोग क्या कर रहे हैं। अक्सर सिपाही रात को जुआ खेलते हैं। बाज आस-पास के इलाक़ों में जाकर ख़रमस्ती किया करते हैं। जरा होशियारी से काम करना।
मसरूर- मगर यहां मैदान खाली हो जाएगा।
क़ासिम- मे तुम्हारे आने तक खबरदार रहूँगा।
मसरूर- जो मर्जी हुजूर।
क़ासिम- मैने तुम्हें मोतबर समझकर यह ख़िदमत सुपुर्द की है, इसका मुआवजा इंशाअल्ला तुम्हें साकर से अता होगा।
मसरूम ने दबी ज़बान से कहा-बन्दा आपकी यह चालें सब समझता है। इंशाअल्ला सरकार से आपको भी इसका इनाम मिलेगा। और तब जोर बोला-आपकी बड़ी मेहरबानी है।
एक लम्हें में पॉँचों ख्वाजासरा लश्कर की तरफ़ चले। क़ासिम ने उन्हें जाते देखा। मैदान साफ़ हो गया। अब वह बेधड़क खेमें में जा सकता था। लेकिन अब क़ासिम को मालूम हुआ कि अन्दर जाना इतना आसान नहीं है जितना वह समझा था। गुनाह का पहलू उसकी नजर से ओझल हो गया था। अब सिर्फ ज़ाहिरी मुश्किलों पर निगाह थी।

क़ासिम दबे पांव शहज़ादी के खेमे के पास आया, हालांकि दबे पांव आने की जरूरत न थी। उस सन्नाटे में वह दौड़ता हुआ चलता तो भी किसी को खबर न होती। उसने ख़ेमे से कान लगाकर सुना, किसी की आहट न मिली। इत्मीनान हो गया। तब उसने कमर से चाकू निकाला और कांपते हुए हाथों से खेमे की दो-तीन रस्सियां काट डालीं। अन्दर जाने का रास्ता निकल आया। उसने अन्दर की तरफ़ झांका। एक दीपक जल रहा था। दो बांदियां फ़र्श पर लेटी हुई थीं और शहज़ादी एक मख़मली गद्दे पर सो रही थी। क़ासिम की हिम्मत बढ़ी। वह सरककर अन्दर चला गया, और दबे पांव शहजादी के क़रीब जाकर उसके दिल-फ़रेब हुस्न का अमृत पीने लगा। उसे अब वह भय न था जो ख़ेमे में आते वक्त हुआ था। उसने जरूरत पड़ने पर अपनी भागने की राह सोच ली थी।
क़ासिम एक मिनट तक मूरत की तरह खड़ा शहजादी को देखता रहा। काली-काली लटें खुलकर उसके गालों को छिपाये हुए थी। गोया काले-काले अक्षरों में एक चमकता हुआ शायराना खयाल छिपा हुआ था। मिट्टी की अस दुनिया में यह मजा, यह घुलावट, वह दीप्ति कहां? कासिम की आंखें इस दृश्य के नशे में चूर हो गयीं। उसके दिल पर एक उमंग बढाने वाला उन्माद सा छा गया, जो नतीजों से नहीं डरता था। उत्कण्ठा ने इच्छा का रूप धारण किया। उत्कण्ठा में अधिरता थी और आवेश, इच्छा में एक उन्माद और पीड़ा का आनन्द। उसके दिल में इस सुन्दरी के पैरों पर सर मलने की, उसके सामने रोने की, उसके क़दमों पर जान दे देने की, प्रेम का निवेदन करने की , अपने गम का बयान करने की एक लहर-सी उठने लगी वह वासना के भवंर मे पड़ गया।

क़ासिम आध घंटे तक उस रूप की रानी के पैरो के पास सर झुकाये सोचता रहा कि उसे कैसे जगाऊँ। ज्यों ही वह करवट बदलती वह ड़र के मारे थरथरा जाता। वह बहादुरी जिसने मुलतान को जीता था, उसका साथ छोड़े देती थी।
एकाएक कसिम की निगाह एक सुनहरे गुलाबपोश पर पड़ी जो करीब ही एक चौकी पर रखा हुआ था। उसने गुलाबपोश उठा लिया और खड़ा सोचता रहा कि शहज़ादी को जगाऊँ या न जगाऊँ या न जगाउँ? सेने की डली पड़ी हुई देखकर हमं उसके उठाने में आगा-पीछा होता है, वही इस वक्त उसे हो रहा था। आखिरकार उसने कलेजा मजबूत करके शहजादी के कान्तिमान मुखमंण्डल पर गुलाब के कई छींटे दिये। दीपक मोतियों की लड़ी से सज उठा।
शहज़ादी ने चौंकर आंखें खोलीं और क़ासिम को सामने खड़ा देखकर फौरन मुंह पर नक़ाब खींच लिया और धीरे से बोली-मसरूर।
क़ासिम ने कहा-मसरूर तो यहां नही है, लेकिन मुझे अपना एक अदना जांबाज़ ख़ादिम समझिए। जो हुक्त होगा उसकी तामील में बाल बराबर उज्र न होगा।
शहज़ादी ने नक़ाब और खींच लिया और ख़ेमे के एक कोने में जाकर खड़ी हो गयी।
क़ासिम को अपनी वाक्-शक्ति का आज पहली बार अनुभव हुआ। वह बहुत कम बोलने वाला और गम्भीर आदमी था। अपने हृउय के भावों को प्रकट करने में उसे हमेशा झिझक होती थी लेकिन इस वक्त़ शब्द बारिश की बूंदो की तरह उसकी जबान पर आने लगे। गहरे पानी के बहाव में एक दर्द का स्वर पैदा हो जाता है। बोला-मैं जानता हूँ कि मेरी यह गुस्ताखी आपकी नाजुक तबियत पर नागवार गुज़री है। हुजूर, इसकी जो सजा मुनाशिब समझें उसके लिए यह सर झुका हुआ है। आह, मै ही वह बदनसीब, काले दिल का इंसान हूँ जिसने आपके बुजुर्ग बाप और प्यारे भाईंयों के खून से अपना दामन नापाक किया है। मेरे ही हाथों मुलतान के हजारो जवान मारे गये, सल्तनत तबाह हो गयी, शाही खानदान पर मुसीबत आयी और आपको यह स्याह दिन देखना पडा। लेकिन इस वक्त़ आपका यह मुजरिम आपके सामने हाथ बांधे हाज़िर है। आपके एक इशारे पर वह आपके कदमों पर न्योठावर हो जायेगा और उसकी नापाक जिन्दगी से दुनिया पाक हो जायेगी। मुझे आज मालूम हुआ कि बहादुरी के परदे में वासना आदमी से कैसे-कैसे पाप करवाती है। यह महज लालच की आग है, राख में छिपी हुईं सिर्फ़ एक कातिल जहर है, खुशनुमा शीशे में बन्द! काश मेरी आंखें पहले खुली होतीं तो एक नामवर शाही ख़ानदान यों खाक में न मिल जाता। पर इस मुहब्बत की शमा ने, जो कल शाम को मेरे सीने में रोशन हुई, इस अंधेरे कोने को रोशनी से भर दिया। यह उन रूहानी जज्ब़ात का फैज है, जो कल मेरे दिल में जाग उठे, जिन्होंने मुझे लाजच की कैद से आज़ाद कर दिया।
इसके बाद क़ासिम ने अपनी बेक़रारी और दर्दे दिल और वियोग की पीड़ा का बहुत ही करूण शदों में वर्णन किया, यहां तक कि उसके शब्दों का भण्डार खत्म हो गया। अपना हाल कह सुनाने की लालसा पूरी हो गयी।

लेकिन वह वासना बन्दी वहां से हिला नहीं। उसकी आरजुओं ने एक कदम और आगे बढाया। मेरी इस रामकहानी का हासिल क्या? अगर सिर्फ़ दर्दे दिल ही सुनाना था, तो किसी तसवीर को, सुना सकता था। वह तसवीर इससे ज्यादा ध्यान से और ख़ामाशी से मेरे ग़म की दास्तान सुनती। काश, मैं भी इस रूप की रानी की मिठी आवाज सुनता, वह भी मुझसे कुछ अपने दिल का हाल कहती, मुझे मालूम होता कि मेरे इस दर्द के किस्से का उसके दिल पर क्या असर हुआ। काश, मुझे मालूत होता कि जिस आग में मैं फुंका जा रहा हूँ, कुछ उसकी आंच उधर भी पहुँचती है या नहीं। कौन जाने यह सच हो कि मुहब्बत पहले माशूक के दिल में पैदा होती है। ऐसा न होता तो वह सब्र को तोड़ने वाली निगाह मुझ पर पड़ती ही क्यों? आह, इस हुस्न की देवी की बातों में कितना लुत्फ़ आयेगा। बुलबुल का गाना सुन सकता, उसकी आवाज कितनी दिलकश होगी, कितनी पाकीजा, कितनी नूरानी, अमृत में डूबीं हुई और जो कहीं वह भी मुझसे प्यार करती हो तो फिर मुझसे ज्यादा खुशनसीब दुनिया में और कौन होगा?
इस ख़याल से क़ासिम का दिल उछलने लगा। रगों में एक हरकत-सी महसूस हुई। इसके बावजूद कि बांदियों के जग जाने और मसरूर की वापसी का धड़का लगा हुआ था, आपसी बातचीत की इच्छा ने उसे अधीर कर दिया, बोला-हुस्न की मलका, यह जख्म़ी दिल आपकी इनायत की नज़र की मुस्तहक है। कुड़ उसके हाल पर रहम न कीजिएगा?
शहज़ादी ने नकाब की ओट से उसकी तरफ़ ताका और बोली–जो खुद रहम का मुस्तहक हो, वह दूसरों के साथ क्या रहम कर सकता है? क़ैद में तड़पते हुए पंछी से, जिसके न बोल हैं न पर, गाने की उम्मीद रखना बेकार है। मैं जानती हूँ कि कल शाम को दिल्ली के ज़ालिम बादशाह के सामने बांदियों की तरह हाथ बांधे खड़ी हूंगी। मेरी इज्जत, मेरे रूतबे और मेरी शान का दारोमदार खानदानी इज्जत पर नहीं बल्कि मेरी सूरत पर होगा। नसीब का हक पूरा हा जायेगा। कौन ऐसा आदमी है जो इस जिन्दगी की आरजू रक्खेगा? आह, मुल्तान की शहजादी आज एक जालिम, चालबाज, पापी आदमी की वासना का शिकार बनने पर मजबूर है। जाइए, मुझे मेरे हाल पर छोड़ दीजिए। मैं बदनसीब हूँ, ऐसा न हो कि मेरे साथ आपको भी शाही गुस्से का शिकार बनना पड़े। दिल मे कितनी ही बातें है मगर क्यों कहूँ, क्या हासिल? इस भेद का भेद बना रहना ही अच्छा है। आपमें सच्ची बहादुरी और खुद्दारी है। आप दुनिया में अपना नाम पैदा करेंगे, बड़े-बड़े काम करेगें, खुदा आपके इरादों में बरकत दे–यही इस आफ़प की मारी हुई औरत की दुआ है। मैं सच्चे दिल से कहती हूँ कि मुझे आपसे कोई शिकायत नहीं है। आज मुझे मालूम हुआ कि मुहब्बत बैर से कितनी पाक होती है। वह उस दामन में मुंह छिपाने से भी परहेज नहीं करती जो उसके अजीजों के खून से लिथड़ा हुआ हो। आह, यह कम्बख्त दिल उबला पड़ता है। अपने काल बन्द कर लीजिए, वह अपने आपे में नहीं है, उसकी बातें न सुनिए। सिर्फ़ आपसे यही बिनती है कि इस ग़रीब को भूल न जाइएगा। मेरे दिल में उस मीठे सपने की याद हमेशा ताजा रहेगी, हरम की क़ैद में यही सपना दिल को तसकीन देता रहेगा, इस सपने को तोड़िए मत। अब खुदा के वास्ते यहां से जाइए, ऐसा न हो कि मसरूर आ जाए, वह एक ज़ालिम है। मुझे अंदेशा है कि उसने आपको धोखा दिया, अजब नहीं कि यहीं कहीं छुपा बैठा हो, उससे होथियार रहिएगा। खुदा हाफ़िज!

क़ासिम पर एक बेसुधी की सी हालत छा गयी। जैसे आत्मा का गीत सुनने के बाद किसी योगी की होती है। उसे सपने में भी जो उम्मीद न हो सकती थी, वह पूरी हो गयी थी। गर्व से उसकी गर्दन की रगें तन गयीं, उसे मालूम हुआ कि दुनिया में मुझसे ज्यादा भाग्यशाली दूसरा नहीं है। मैं चाहूँ तो इस रूप की वाटिका की बहार लूट सकता हूँ, इस प्याले से मस्त हो सकता हूँ। आह वह कितनी नशीली, कितनी मुबारक जिन्दगी होती! अब तक क़ासिम की मुहब्बत ग्वाले का दूध थी, पानी से मिली हुई; शहज़ादी के दिल की तड़प ने पानी को जलाकर सच्चाई का रंग पैदा कर दिया। उसके दिल ने कहा-मैं इस रूप की रानी के लिए क्या कुछ नहीं कर सकता? कोई ऐसी मुसीबत नहीं है जो झेल न सकूँ, कोई आग नहीं, जिसमें कूद न सकूं, मुझे किसका डर है! बादशाह का? मैं बादशाह का गुलाम नहीं, उसके सामने हाथ फैलानेवाला नहीं, उसका मोहताज नहीं। मेरे जौहर की हर एक दरबार में कद्र हो सकती है। मैं आज इस गूलामी की जंजीर को तोड़ डालूँगा और उस देश में जा बसूँगा, जहां बादशाह के फ़रिश्ते भी पर नहीं मार सकते। हुस्न की नेमत पाकर अब मुझे और किसी चीज़ की इच्छा नहीं। अब अपनी आरजुओं का क्यों गला घोटूं? कामनाओं को क्यों निराशा का ग्रास बनने दूँ? उसने उन्माद की-सी स्थिति में कमर से तलवार निकाली और जोश के साथ बोला–जब तक मेरे बाजूओ में दम है, कोई आपकी तरफ़ आंख उठाकर देख भी नहीं सकता। चाहे वह दिल्ली का बादशाह ही क्यो ने हो! मैं दिल्ली के कूचे और बाजार में खून की नदी बहा दुंगा, सल्तनत की जड़े हिलाउ दुँगा, शाही तख्त को उल्ट-पलट रख दूँगा, और कुछ न कर सकूंगा तो मर मिटूंगा। पर अपनी आंखो से आपकी याह जिल्लत न देखूँगा।
शहज़ादी आहिस्ता-आहिस्ता उसके क़रीब आयी बोली-मुझे आप पर पूरा भरोसा है, लेकिन आपको मेरी ख़ातिर से जब्त और सब्र करना होगा। आपके लिए मैं महलहरा की तकलीफ़ें और जुल्म सब सह लूंगी। आपकी मुहब्बत ही मेरी जिन्दगी का सहारा होगी। यह यक़ीन कि आप मुझे अपनी लौंडी समझते हैं, मुझे हमेशा सम्हालता रहेगा। कौन जाने तक़दीर हमें फिर मिलाये।
क़ासिम ने अकड़कर कहा-आप दिल्ली जायें ही क्यों! हम सबुह होते-होते भरतपुर पहुँच सकते हैं।
शहजादी–मगर हिन्दोस्तान के बाहर तो नहीं जा सकते। दिल्ली की आंख का कांटा बनकर मुमकिन है हम जंगलों और वीरानों में जिन्दगी के दिन काटें पर चैन नसीब न होगा। असलियत की तरफ से आंखे न बन्द की जिए, खुदा न आपकी बहादुरी दी है, पर तेगे इस्फ़हानी भी तो पहाड़ से टकराकर टुट ही जाएगी।
कासिम का जोश कुछ धीमा हुआ। भ्रम का परदा नजरों से हट गया। कल्पना की दुनिया में बढ़-बढ़कर बातें करना बाते करना आदमी का गुण है। क़ासिम को अपनी बेबसी साफ़ दिखाई पड़ने लगी। बेशक मेरी यह लनतरानियां मज़ाक की चीज़ हैं। दिल्ली के शाह के मुक़ाबिलें में मेरी क्या हस्ती है? उनका एक इशारा मेरी हस्ती को मिटा सकता है। हसरत-भरे लहजे में बोला-मान लीजिए, हमको जंगलो और बीरानों में ही जिन्दगी के दिन काटने पड़ें तो क्या? मुहब्बत करनेवाले अंधेरे कोने में भी चमन की सैर का लुफ़्त उठाते हैं। मुहब्बत में वह फ़क़ीरों और दरवेशों जैसा अलगाव है, जो दुनिया की नेमतों की तरफ आंख उठाकर भी नहीं देखता।
शहज़ादी–मगर मुझ से यह कब मुमकिन है कि अपनी भलाई के लिए आपको इन खतरों में डालूँ? मै शाहे दिल्ली के जुल्मों की कहानियां सुन चुकी हूँ, उन्हें याद करके रोंगेटे खड़े हो जाते हैं। खुदा वह दिन न लाये कि मेरी वजह से आपका बाल भी बांका हो। आपकी लड़ाइयों के चर्चे, आपकी खैरियत की खबरे, उस क़ैद में मुझको तसकीन और ताक़त देंगी। मैं मुसीबते झेलूंगी और हंस–हंसकर आग में जलूँगी और माथे पर बल न आने दूँगी। हॉँ, मै शाहे दिल्ली के दिल को अपना बनाऊँगी, सिर्फ आपकी खातिर से ताकि आपके लिए मौक़ा पड़ने पर दो-चार अच्छी बातें कह सकूँ।

लेकिन क़ासिम अब भी वहां से न हिला। उसकर आरजूएं उम्मीद से बढ़कर पूरी होती जाती थीं, फिर हवस भी उसी अन्दाज से बढ़ती जाती थी। उसने सोचा अगर हमारी मुहब्बत की बहार सिर्फ़ कुछ लमहों की मेहमान है, तो फिर उन मुबारकबाद लमहों को आगे की चिन्ता से क्यों बेमज़ा करें। अगर तक़दीर में इस हुस्न की नेमत को पाना नहीं लिखा है, तो इस मौक़े को हाथ से क्यों जाने दूँ। कौन जाने फिर मुलाकात हो या न हो? यह मुहब्बत रहे या न रहें? बोला-शहज़ादी, अगर आपका यही आखिरी फ़ैसाल है, तो मेरे लिए सिवाय हसरत और मायूसी के और क्या चारा है? दूख होगा, कुढूंगा, पर सब्र करूंगा। अब एक दम के लिए यहां आकर मेरे पहलू में बैठ जाइए ताकि इस बेकरार दिल को तस्कीन हो। आइए, एक लमहे के लिए भूल जाएं कि जुदाई की घड़ी हमारे सर पर खड़ी है। कौन जाने यह दिन कब आयें? शान-शौकत ग़रीबों की याद भूला देती है, आइए एक घड़ी मिलकर बैठें। अपनी जल्फ़ो की अम्बरी खुशबू से इस जलती हुई रूह को तरावट पहुँचाइए। यह बांहें, गलो की जंजीरे बने जाएं। अपने बिल्लौर जैसे हाथों से प्रेम के प्याले भर-भरकर पिलाइए। साग़र के ऐसे दौर चलें कि हम छक जाएं! दिलो पर सुरूर को ऐसा गाढ़ा रंग चढ़े जिस पर जुदाई की तुर्शियों का असर न हो। वह रंगीन शराब पिलाइए जो इस झुलसी हुई आरजूओं की खेती को सींच दे और यह रूह की प्यास हमेशा के लिए बुझ जाए।
मए अग़वानी के दौर चलने लगे। शहज़ादी की बिल्लौरी हथेली में सुर्ख शराब का प्याला ऐसा मालूम होता था जैसे पानी की बिल्लौरी सतह पर कमल का फूल खिला हो क़ासिम दीनो दुनिया से बेख़बर प्याले पर प्याले चढ़ाता जाता था जैसे कोई डाकू लूट के माल पर टूटा हुआ हो। यहां तक कि उसकी आंखे लाल हो गयीं, गर्दन झ़ुक गयी, पी-पीकर मदहोश हो गया। शहजादी की तरफ़ वसाना-भरी आंखो से ताकता हुआ। बाहें खोले बढा कि घड़ियाल ने चार बजाये और कूच के डंके की दिल छेद देनेवाली आवाजें कान में आयीं। बाँहें खुली की खुली रह गयीं। लौडियां उठ बैठी, शहजादी उठ खड़ी हुई और बदनसीब क़ासिम दिल की आरजुएं लिये खेमे से बाहर निकला, जैसे तक़दीर के फ़ैलादी पंजे ने उसे ढकेलकर बाहर निकाल दिया हो। जब अपने खेमे में आया तो दिल आरजूओं से भरा हुआ था। कुछ देर के बाद आरजुओं ने हवस का रूप भरा और अब बाहर निकला तो दिल हरसतों से पामाल था, हवस का मकड़ी-जाल उसकी रूह के लिए लोहे की जंजीरें बना हुआ था।

शा
म का सुहाना वक़्त था। सुबह की ठण्डी-ठण्डी हवा से सागर में धीरे धीरे लहरें उठ रही थीं। बहादुर, क़िस्मत का धनी क़ासिम मुलतान के मोर्चे को सर करके गर्व की मादिरा पिये उसके नशे में चूर चला आता था। दिल्ली की सड़के बन्दनवारों और झंडियों से सजी हुई थीं। गुलाब और केवड़े की खुशब चारों तरफ उड़ रही थी। जगह-जगह नौबतखाने अपना सुहाना राग गया। तोपों ने अगवानी की घनगरज सदांए बुलन्द कीं। ऊपर झरोखों में नगर की सुन्दरियां सितारों की तरह चमकने लगीं। कासिम पर फूलों की बरखा होने लगी। वह शाही महल के क़रीब पहुँचार तो बड़े-बड़े अमीर-उमरा उसकी अगवानी के लिए क़तार बांधे खड़े थे। इस शान से वह दीवाने खास तक पहुँचा। उसका दिमाग इस वक्त सातवें आसमान पर था। चाव-भरी आंखों से ताकता हुआ बादशाह के पास पहुँचा और शाही तख्त को चूम लिया। बादशाह मुस्काराकर तख़्त से उतरे और बांहें खोले हुए क़ासिम को सीने से लगाने के लिए बढ़े। क़ासिम आदर से उनके पैरों को चूमने के लिए झुका कि यकायक उसके सिर पर एक बिजली-सी गिरी। बादशाह को तेज खंजर उसकी गर्दन पर पड़ा और सर तन से जुदा होकर अलग जा गिरा। खून के फ़ौवारे बादशाह के क़दमो की तरफ़, तख्त की तरफ़ और तख़्त के पीछे खड़े होने वाले मसरूर की तरफ़ लपके, गोया कोई झल्लाया हुआ आग का सांप है।
घायल शरीर एक पल में ठंडा हो गया। मगर दोनों आंखे हसरत की मारी हुई दो मूरतों की तरह देर तक दीवारों की तरफ़ ताकती रहीं। आखिर वह भी बन्द हो गयीं। हवस ने अपना काम पूरा कर दिया। अब सिर्फ़ हसरत बाक़ी थी। जो बरसों तक दीवाने खास के दरोदीवार पर छायी रही और जिसकी झलक अभी तक क़ासिम के मज़ार पर घास-फूस की सूरत में नज़र आती है।
-‘प्रेम बत्तीसी’ से

No comments:

Post a Comment