यदि सम्मानपूर्वक जीना है तथा जीवन में कुछ करना है तो साहस को जगाकर तथा भय और चिन्ता को परास्त करके लक्ष्य-प्राप्ति के लिए कर्म में जुट जाना चाहिए। साहस एक ऊर्जा है जो जीवन के रथ को गति प्रदान करती है। मनुष्य साहस और लग्नशीलता के सहारे उन्होंने जीवन की विविध दिशाओं में महान् चमत्कार कर दिखाए। संसार का इतिहास ऐसे असंख्य लोगों की महान् सफलताओं से भरा पड़ा है जो प्रारम्भ में दीन-दुःखी और संकटग्रस्त थे किन्तु उन्होंने जुझारू होकर लक्ष्य-प्राप्ति के लिए दिन-रात संघर्ष किया और वे मरकर भी अमर हो गये। उन्होंने किसी ज्योतिषी से कार्य प्रारम्भ करने के लिए शुभ मुहूर्त नहीं पूछा तथा अपने उत्साह से ही कर्म-प्रेरणा करके तत्काल पुरुषार्थरत हो गये।
जो मनुष्य जीवन में कुछ उत्तम लक्ष्य बनाकर उसे प्राप्त करने का पूरा प्रयत्न नहीं करता, उसकी समस्त शक्ति सड़कर नष्ट हो जाती है तथा वह कुत्ते-बिल्ली का घिनौना जीवन बिताकर सदा के लिए विलुप्त हो जाता है। अपनी आन्तरिक शक्ति के सदुपयोग से ही मनुष्य के प्रच्छन्न गुण प्रकट होते हैं तथा जीवन का पुष्प खिलकर चारों ओर सुगन्धि को प्रसारित करता है। अपनी शक्तियों का पूर्ण सदुपयोग करके ही मनुष्य अपने जीवन को सार्थक कर सकता है। कर्म करने से मनुष्य की कार्यकुशलता और दक्षता ही नहीं, बल्कि आत्मविश्वास भी बढ़ता है। कर्म करते हुए ही मनुष्य न केवल सम्मान और सुयश प्राप्त कर सकता है, बल्कि शान्ति भी प्राप्त कर लेता है। सम्मान, सुयश और शान्ति प्राप्त करने का मंत्र पुरुषार्थ द्वारा अपनी शक्तियों का सदुपयोग करना है। उत्तम लक्ष्य को सामने रखकर कर्म करते हुए ही शतायु होने की इच्चा की जाती है।
जीवन में प्रेरणाप्रद आदर्शों एवं मूल्यों की प्रस्थापना करना तथा लक्ष्य निर्धारित करना अत्यन्त आवश्यक होता है क्योंकि प्ररेणा के बिना पुरुषार्थ करना सम्भव नहीं होता तथा लक्ष्य के बिना पुरुषार्थ की दिशा का निर्धारण करना सम्भव नहीं होता। किन्तु तनावरहित और शान्त जीवन-यापन करने के लिए यह सावधानता होनी अत्यन्त आवश्यक है कि हम पूर्णता प्राप्त करने की दिशा में आगे बढ़ते हुए भी मात्र पूर्णतावादी न बनें तथा आदर्शों से प्रेरणा लेते हुए अथवा जीवन में कुछ आदर्श होते हुए भी मात्र आदर्शवादी न बने। इसका स्पष्ट कारण यह है कि जीवन में आकांक्षा तथा उपलब्धि का अन्तराल तनाव, निराशा और अशान्ति उत्पन्न करता है। वास्तव में पूर्णता मात्र कल्पना है जिसका साकार होना सम्भव नहीं होता। अनेक बार मनुष्य आदर्शवादी होने की धुन में अव्यावहारिक हो जाता है। वह प्रायः असन्तुष्ट रहकर चिन्ता में घुलने लगता है। मनुष्य प्रत्यन कर सकता है किन्तु फल तो सदैव ईश्वराधीन होता है। कर्म करने में ही अपना अधिकार मानकर पुरुषार्थ के साथ सन्तोष का समन्वय करना शान्ति प्राप्त करने का प्रधान सूत्र है।
जो मनुष्य जीवन में कुछ उत्तम लक्ष्य बनाकर उसे प्राप्त करने का पूरा प्रयत्न नहीं करता, उसकी समस्त शक्ति सड़कर नष्ट हो जाती है तथा वह कुत्ते-बिल्ली का घिनौना जीवन बिताकर सदा के लिए विलुप्त हो जाता है। अपनी आन्तरिक शक्ति के सदुपयोग से ही मनुष्य के प्रच्छन्न गुण प्रकट होते हैं तथा जीवन का पुष्प खिलकर चारों ओर सुगन्धि को प्रसारित करता है। अपनी शक्तियों का पूर्ण सदुपयोग करके ही मनुष्य अपने जीवन को सार्थक कर सकता है। कर्म करने से मनुष्य की कार्यकुशलता और दक्षता ही नहीं, बल्कि आत्मविश्वास भी बढ़ता है। कर्म करते हुए ही मनुष्य न केवल सम्मान और सुयश प्राप्त कर सकता है, बल्कि शान्ति भी प्राप्त कर लेता है। सम्मान, सुयश और शान्ति प्राप्त करने का मंत्र पुरुषार्थ द्वारा अपनी शक्तियों का सदुपयोग करना है। उत्तम लक्ष्य को सामने रखकर कर्म करते हुए ही शतायु होने की इच्चा की जाती है।
जीवन में प्रेरणाप्रद आदर्शों एवं मूल्यों की प्रस्थापना करना तथा लक्ष्य निर्धारित करना अत्यन्त आवश्यक होता है क्योंकि प्ररेणा के बिना पुरुषार्थ करना सम्भव नहीं होता तथा लक्ष्य के बिना पुरुषार्थ की दिशा का निर्धारण करना सम्भव नहीं होता। किन्तु तनावरहित और शान्त जीवन-यापन करने के लिए यह सावधानता होनी अत्यन्त आवश्यक है कि हम पूर्णता प्राप्त करने की दिशा में आगे बढ़ते हुए भी मात्र पूर्णतावादी न बनें तथा आदर्शों से प्रेरणा लेते हुए अथवा जीवन में कुछ आदर्श होते हुए भी मात्र आदर्शवादी न बने। इसका स्पष्ट कारण यह है कि जीवन में आकांक्षा तथा उपलब्धि का अन्तराल तनाव, निराशा और अशान्ति उत्पन्न करता है। वास्तव में पूर्णता मात्र कल्पना है जिसका साकार होना सम्भव नहीं होता। अनेक बार मनुष्य आदर्शवादी होने की धुन में अव्यावहारिक हो जाता है। वह प्रायः असन्तुष्ट रहकर चिन्ता में घुलने लगता है। मनुष्य प्रत्यन कर सकता है किन्तु फल तो सदैव ईश्वराधीन होता है। कर्म करने में ही अपना अधिकार मानकर पुरुषार्थ के साथ सन्तोष का समन्वय करना शान्ति प्राप्त करने का प्रधान सूत्र है।
किसी कार्यक्षेत्र में अपनी उपलब्धि का मूल्यांकन मनुष्य स्वयं ही कर सकता है। मनुष्य को आत्म-मूल्यांकन को ही सर्वाधिक महत्त्व देना चाहिए तथा दूसरों से सर्टिफेकेट और सम्मान प्राप्त करने की इच्छा का विवेकपूर्वक शमन कर देना चाहिए। प्रायः दूसरे लोग उपलब्धि के मह्त्व को समझते ही नहीं हैं अथवा विद्वेष के कारण सम्मान दें तो उनकी गुणग्रहाकता और उदारता के लिए उनका कृतज्ञ होना चाहिए तथा यदि कुछ लोग अज्ञान अथवा विद्वेष के कारण निन्दा करें तो उत्तेजित न होकर अपने मन में उन्हें क्षमा कर देना चाहिए।
वास्तव में प्रयत्न करना ही अपने में एक उपलब्धित होती है तथा उद्देश्य होते हुए भी उद्देश्य-पूर्ति को ही अपने सुख का आधार बनाना अविवेक होता है। सिपाही का काम कुशलतापूर्वक लड़ना होता है। विजय एवं पराजय तो अनेक कारणों पर निर्भर होते हैं। हमने उद्देश्य-पूर्ति के लिए कर्म किया, यह पर्याप्त है तथा हमें इस आत्म-सन्तोष मे अविचलि रहना चाहिए। समर्पित होकर कर्म करना सृजन-कार्य के सदृश्य स्वयं में एक महान् सुख होता है तथा उसके लिए किसी से प्रशंसा की अपेक्षा नहीं होती।
Le Traitement des Arméniens dans l'Empire Ottoman (1915-1916) (Toynbee)
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Le Traitement des Arméniens dans l'Empire Ottoman (1915-1916): Documents
Présentés au Vicomte Grey of Fallodon, Secrétaire d'État aux Affaires
Étrangères p...
1 hour ago
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