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Thursday, February 19, 2015

आनन्दमय जीवन by शिवानन्द (5)


ध्यान का प्रथम चरण मौन है। ध्यान के परिप्रेक्ष्य् में मौन का अर्थ केवल वाणी का मौन ही नहीं है बल्कि बाहर से मन को हटाकर भीतर अपने विचारों और भावों का तटस्थ दर्शन करना भी है। आधुनिक युग में खाद्य-पदार्थों के प्रदूषण के अतिरिक्त वायु प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण मानव के लिए अभिशाप बन गए हैं। सड़कों पर कार आदि वाहनों के हार्न तथा स्थान-स्थान पर ध्वनि विस्तार (लाउडस्पीकर) का प्रयोग वातावरण को अनावश्यक शोर से भर देता है। मनोवैज्ञानिक ध्वनि प्रदूषण के बढते हुए खतरों से हमें सावधान कर रहे हैं। ध्वनि विस्तारकों के अति प्रयोग के कारण अनेक धर्रमस्थल भी अशान्ति स्थल हो गए हैं। वैज्ञानिक हमें ध्वनि प्रदूषण के दुष्परिणामों के प्रति सचेत कर रहे हैं। तीव्र रक्त धमनियों को कठोर और संकरा बना देती है तथा स्नायविक विकार उत्पन्न करती है। ध्वनि प्रदूषण का कुप्रभाव यकृत और पाचन क्रिया पर भी पड़ता है। तीव्र धवनि शोर से कार्यक्षमता तथा एकाग्रता भी नष्ट होती है। बाह्यय शोर अथवा शान्ति का मन की अवस्था पर गहन प्रभाव होता है। मानसिक शान्ति की कामना करनेवाल व्यक्ति को प्राय: कुछ समय तक एकान्त में मौन होकर बैठना चाहिए। अनेक महापुरुष सप्ताह में एक दिन मौन का अभ्यास करते हैं। मन पर नियंत्रण रखने के लिए मौन का अभ्यास करना अत्यन्त आवश्यक है।
ध्यान की सहज, सरल और सुगम विधि यह है कि मनुष्य को प्रात: तथा सांय एक शान्त स्थान पर शरीर को ढीला करके संविधाजनक मुद्रा में बीस-पच्चीस मिनिट तक सुखद आसन पर नेत्र मूंदकर सीधा बैठना चाहिए। पैरों को मोड़कर सीधा बैठने से शुद्ध रक्त का प्रवाह मस्तिष्क की ओर अधिक हो जाता है। मन को अन्तर्मुखी करने के लिए नेत्रों का मूंदना आवश्यक होता होता है क्योंकि नेत्रों के खुले रहने से मन बाह्यय जगत् की ओर सहज ही दौड़ता है तथा अन्तर्मुखी नहीं हो सकता है। नेत्र मूंदे हुए ही पहिले मन में यह कामना करनी चाहिए कि प्रत्येक अंग शिथिल हो सकता है। तत्पश्चात् अपने भीतर ही मन को केन्द्रित करके ॐ (अथवा किसी लघु मंत्र) का समान गति से धीरे-धीरे मानसिक उच्चारण करते हुए भीतर ही उसे सुनने का प्रत्यत्न करना चाहिए। ॐ के उच्चारण में लय होना अन्यन्त महत्वपूर्ण होता है। मस्तिष्क के लिए लयपूर्ण मन्द ध्वनि स्वास्थ्यप्रद एंव शान्तिप्रद होती है। ध्यान के समय जब कभी मन उच्चारण (जपत्र् से हटकर विचार में लग जाए, उसे पुन: मानसिक उच्चारण एंव श्रवण में ही लगा देना चाहिए। प्रारम्भ में अनेक बार मन को इधर-उधर दौड़ने से वापिस लाकर ॐ के उच्चारण एंव श्रवण में लगाना होता है, किन्तु धैर्यपूर्वक इसका अभ्यास करते रहने पर कालान्तर में उच्चारण और श्रवण सहज एंव निर्बाध हो जाता है।
प्राय: सभी की शिकायत होती है कि ध्यान के अभ्यास में मन इधर-उधर भागता रहता है तथा स्थिर नहीं होता। वास्तव में ध्यान (मेडीटशन) हमारे अवधान (एटेनशन) की मात्र एकाग्रता (कान्सेंट्रेशन) ही नहीं होता। नेत्र मूंदकर ध्यान में बैठने पर मन, चेतन स्तर पर चचंल रहते हुए भी, अवचेतन स्तर शान्ति की दिशा में अग्रसर हो जाता है। ध्यान के समय जो भी भाव अथवा विचार उभर कर आता है, उसके संबंध में उतेजना का क्षय होने लगता है तथा अनासक्ति का उदय हो जाता है। ध्यान के समय बार-बार मंत्र पर लौटते हुए सूक्ष्म स्तर पर जाते हुए मंत्र और विचार दोनों लुप्त होने लगते हैं। मन की उछलकूद बन्द होने पर मन निश्चल हो जाता है तथा मानों वह बैठने लगता है। स्तब्ध्ता की अवस्था में शरीर भी मन के साथ ही तनावरहित और ढीला होने लगता है ताा परम विश्राम की अवस्था में भीतर शान्ति का मीठा आभास होने लगता है।
पर्याप्त काल तक नित्य-प्रति ध्यान का नियमित अभ्यास करने से चेतन स्तर पर मन को दिव्य शान्ति का अनुभव होने लगता है। ध्यान के काल मे ऐसे अमृतमय क्षण आते हैं ॐ के उच्चारण और श्रवण का सहसा लोप हो जाने पर मनुष्य का निर्विचार मन अनिर्वचनीय आनन्द के सागर में निमग्न हो जाने पर मनुष्य को चैतन्य सता के अमृतमय संस्पर्श की गहन आनन्दनुभूति के अतिरिक्त अन्य कोई बोध नहीं होता। अमृतमय क्षणों का यह अनुभव मनुष्य को कुण्ठा, निराशा, आक्रोश एंव उतेजना से उन्मुक्त कर देता है तथा मन में सात्विक ओज का संचार हो जाता है। परिणामत: मनुष्य जीवन की संकरी डगर पर डगमगाता नहीं है और साहसपूर्ण सीधा चल सकता है। ध्यान के अभ्यास से कालान्तर में मन को दूषित करनेवाले काम, ईष्या, द्वेष्, घृणा, क्रोध, लोभ, मोह, निराशा, चिन्ता, भ्य इत्यादि विकारों का शमन होने पर मनुष्य सन्तुलित, सम और शान्त हो जाता है तथा चित की एकाग्रता-शक्ति बढ़ जाती है। पुरानी भूलों तथा शोक, हानि और अपमान की दु:खद घटनाओं के क्लेशप्रद संस्कार निष्प्रभाव हो जाते हैं तथा मनुष्य उनका स्मरण होने पर उद्विग्न नहीं होता। उतेजना और भय शान्त हो जाते हैं तथा क्रोध की अग्नि भी शान्त हो जाती है।
ध्यान का अभ्यास करने से मनुष्य को अगणित लाभ होते हैं। ध्यान के अभ्यास द्वारा हाइपोथेलमस ग्रंथि के सक्रिय हो जाने से नाडियों की उतेजना शान्त हो जाती हे तथा पीयूष ग्रंथि (पिट्युटरी ग्रंथि) के सक्रिय हो जाने से नाडियों की कार्यक्षमता बढ जाती है जिससे अनेक रोग दूर हो जाते हैं। ध्यान का अभ्यास मनुष्यकी षबराहट, अकेलानप, भविष्य का भय, चिड़चिड़ापन, व्याकुलता और तनाव को दूर देता है तथा मन शान्त, सम और सन्तुलित हो जाता है। ध्यान का तत्काल फल यह होता है कि मनुष्य देर तक ताजगी का ऐसे ही अनुभव करता है जैसे जल में ड़बकी लगाने से देर तक शीतलता का अनुभव होता है। प्रात: काल ध्यान करने से मानों दिनभर के क्रियाकलापों के लिए तैयार हो जाता है। यथासंभव ध्यान का अभ्यास खालीपेट करना चाहिए। ध्यान का अभ्यास करने पर मनुष्य में आत्म-सुधार एंव आत्म-निर्माण के लिए आन्तरिक उत्साह उत्पन्न हो जाता है।
मौन ध्यान का आवश्यक तथा महत्वपूर्ण पूरक है जिसका अभ्यास ध्यान से पूर्व अथवा कभी-कभी स्वतंत्र रुप से एकान्त में सीधा बैठकर तथा नेत्र मूंदकर कुछ मिनिटों तक करना मन को सन्तुलित, सम और शान्त करने के लिए अत्यन्त सहायक होता है। मौन का एक उद्देश्य अपने विचारों और उद्वेगों का तटस्थ होकर देखना है तथा कभी-कभी आत्मनिरीक्षण द्वारा अपने विचारों, उद्वेगों को समझकर उन्हें दिशा भी देना है। विचारों और उद्वेगों के समाधान द्वारा ही मन का नियन्त्रण भी विचारों से ही हो सकता है। अतएंव मन को सन्तुलित, सम, शान्त तथा सशक्त करने के लिए एकान्त में विचारों को सुलझाना ही युक्तियुक्त है। मनुष्य अपने विचार, स्वभाव, गुण, दोष, सामर्थ्य, क्षमता आदि को भली प्रकार जानकर ही अपने व्यक्तित्व में आवश्यक परिवर्तन ला सकता है। अपने-आप जानना सारे संसार को जान लेने की अपेक्षा आवश्यक एंव उपयोगी है।
अपने मन को नियन्त्रित कर लेना मनुष्य की एक महान् उपलब्धि होती है। मन को नियन्त्रित एंव एकाग्र करने का गुण जीवन के समस्त क्षेत्रों में सफलता प्राप्त करने का सशक्त मन्त्र है। मन क्या है ? वास्तव मे विचारों का निरन्तर प्रवाह ही मन है। प्राय: विचारों का जन्म ज्ञानेन्द्रियों (नेत्र, नासिका, कर्ण, जिह्वा और त्वचा) के साथ संसार के बाह्यय पदाथों का संस्पर्श होने पर मस्तिष्क में होता है। इसके अतिरिक्त मस्तिष्क के अवचेतन स्तर से बुलबुलों अथवा लहरों के स्पर्श नए-नण् विचार उठकर भी चेतन स्तर पर आते रहते है।

आनन्दमय जीवन by शिवानन्द (4)


गहन मानसिक शान्ति प्राप्त करने के लिए ‘ध्यान’ प्रक्रिया का अभ्यास ही श्रेष्ठ है। संसार में प्रगतिशील देशों के सभी ह्रदय-रोग विशेषज्ञ एकमत हैं कि नित्य-प्रति दो बार ध्यान का अभ्यास करना मनुष्य को न कवल मानसिक तनाव से मुक्त करके मस्तिष्क को शान्त एंव सशक्त बनाता है तथा ह्रदय को रोग-मुक्त एंव स्वस्थ कर देता है बल्कि जीवन में एक अनिर्वचनीय रसमयता का संचार भी कर देता है तथा मनुष्य का जीवन उंमग और उल्साह से भर जाता है। ध्यान का अभ्यास करनेवाला मनुष्य अपनी सभी समस्याओं का समाधान करने मे सक्षम हो जाता है। वह कभी उतेजित एंव उद्विग्न नहीं होता तथा कठिन परिस्थितियों के साथ घोर संघर्ष करने के लिए तैयार रहता है। वह दूसरों के साथ व्यवहार करने में झुंझलाता नहीं है तथा ककठिन दायित्व से भी नहीं घबराता है। वह स्वयं को कभी अकेला और असहाय नहीं करता तथा उत्साहपूर्ण रहता है।
विकास क्रम के अन्तर्गत मानव-बुद्धि का प्रादुर्भाव एंव विकास एक जटिल प्रक्रिया से हुआ है। मानव का मस्तिष्क पशुओं की मस्तिष्क की अपेक्षा अधिक बड़ा होता है तिा उसका ढ़ांचा भी भिन्न है। शक्ति होना है। मानव-मस्तिष्क का नेत्रों से विशेष सम्बन्ध होता है तथा उसके क्रियाकलापों का प्रभाव ह्रदय पर तत्काल होता है। भव्य प्राकृतिक दृश्यों, सन्तों एंव प्रियजन का दर्शन, चिन्तन तथा ध्यान मस्तिष्क एंव ह्रदय की संजीवनी होता है।
हमारे देश में ध्यान की अगणित पद्धतियां प्रचलित हैं तथा सभी उपयोगी हैं किन्तु कुछ पद्धतियां अत्यन्त सुगम और सरल हैं सभी का उद्देश्य अपने भीतर जागरण, आत्म-विश्वास एंव दृढ़ता की स्थिति उत्पन्न करना है। यद्यपि ध्यान-प्रक्रिया सीखने के लिए एक कुशल शिक्षक की सहायता लेना लाभकारी हाता तथापि मनुष्य स्वयं भी अभ्यास के द्वारा ध्यान की एक उतम अवस्था प्राप्त कर सकता है। ध्यान-प्रक्रिया का अभ्यास मानव-मस्तिष्क की परमौषधि है तथा इसके परिणाम कल्पनातीत हैं। ध्यान के अभ्यास से मनुष्य की जिजीविषा (जीने की इच्छा जो संकल्प-शक्ति अथवा इच्छा-शक्ति के साथ जुड़ी होती है) का सम्बन्ध अपने भीतर गहरे स्तर पर ऊर्जा क अक्षय एंव अजस्त्र स्त्रोत से हो जाता है जो मनुष्य के सर्वागीण विकास एंव आनन्द का एकमात्र रहस्य हैं। किसी आध्यात्मिक गुरु का समाश्रय प्राप्त करना तो घोर आतप में महान् वट वृक्ष की सुशीतल छाया में बैठने के सदृश होता है। ‘ध्यान’ के महत्व को सभी महान् धर्मों ने अपने-अपने ढंग से स्वीाकर किया है। सारे संसार में ध्यान की अगणित पद्धनियों का प्रचलन होने से ध्यान काक महत्व निर्विवाद है। बौद्ध ग्रन्थों में ध्यान की विपश्यना पद्धति का विस्तृत विवरण है तथा उसके कुशल प्रशिक्षक उसके प्रचार में जुटे हुए हैं। जैन सन्तों द्वारा प्रचारित प्रेक्षाध्यान पद्धति भी अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुई है। यह सुखद आश्चर्य है कि आस्तिक धर्माचार्यों की भांति ही अनेक घोर नास्तिक विद्वान भी अपने-अपने ढंग से ध्यान की उपादेयता को स्वीकार करके उसका उपदेश कर रहे हैं।
ध्यान का अभ्यास मनुष्य के शारीरिक एंव मानसिक स्वास्थ्य के लिए निद्रा की भाति अन्यन्त महत्वपूर्ण एंव आवश्यक है। प्रगाढ निद्रा के सदृश ध्यान के द्वारा मनुष्य सब कुछ भूलकर तथा विचारशून्य होकर विश्राम का लाभ उठाता है। किन्तु वास्तव में ध्यान का अर्थ रिक्तता अथवा शून्यता नहीं है तथा उसका उद्देश्य गहन विश्राम प्राप्त करना भी नहीं है बल्कि मन की बाहर की ओर दौड़ने की क्रिया को विपरित दिशा में लाकर उसे भीतर ही दिव्य चैतन्यामृत अथवा विचारों के आनन्दमय मूल स्त्रोत से जोड़ना है। मनुष्य का मन अवचेतन स्तर से भी परे शुद्ध चेतना के सागर का संस्पर्श करके जीवन की भव्यता के दर्शन से संतृप्त हो जाता है। ध्यान चित की एकाग्रता भी नहीं है बल्कि बौद्धिक ज्ञत्श्र से परे उसका गहन आन्तरिक चेतना से जुड़ जाना है। ध्यान-प्रक्रिया में मन कुछ समय के लिए सम, स्थिर और सुशान्त हो जाता है जिसकी उपमा वायुरहित स्थान में सम, स्थिर और प्रशान्त से दी गई है। ध्यान-प्रक्रिया में मनुष्य आन्तरिक करता है।

आनन्दमय जीवन by शिवानन्द (3)


परिवर्तन प्रकृति का नियम है। विश्व के कण-कण में प्रतिक्षण निरन्तर परिवर्तन होता रहता है तथा सर्वत्र उत्पति, विकास और विनाश का क्रम अबाध गति से चलता रहता है। मनुष्य के शरीर मे भीतर तो निरन्तर परिर्वतन होता ही रहता है, बाह्यय जगत् में भी परिस्थितियों में परिवर्तन चलता रहता है। यद्यपि परिवर्तन होना प्रकृति का एक अपरिहार्य नियम है, मनुष्य को उतम परिवर्तन में भी मानसिक दबाव का अनुभव होता है। मनुष्य नए अच्छे पद पर, नए अच्छे मकान मे जाते समय अथवा असाधारण सत्कार पाकर प्रसन्न होते हुए भी मानसिक दबाव का अनुभव करता है तथा परिस्थिति के दु:खद परिवर्तन (विफलता, आर्थिक हानि, अपमान, प्रियजन की मृत्यु इत्यादि) होने पर तो भयानक मानसिक दबाव का सामना करता है।
प्राय: असाधारण मानसिक दबाव के कारण होते हैं : अपने विभाग मे उच्चस्थ अधिकारी का रुष्ट हो जाना, मुकदमा होना, अकसमात् धन-हानि होना, अपने पुत्र, पुत्री, मित्र आदि किसी प्रियजन का वियोग होना, किसी घनिष्ठ व्यक्ति की मृत्यु होना, अपने प्रति किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति के व्यवहार मे रुक्षता अथवा कटुता हो जाना, जीविका का साधन न होना, सेवा-निवृति होना, नौकरी छूट जाना, बेसहारा हो जाना, रोगग्रस्त् हो जाना, अपने परिवार में पति-पत्नी, भाई-बहन, भाई-भाई, पिता-पुत्र आदि में परस्पर मनमुटाव महो जाना, प्रेम-प्रसंग का सहसा टूट जाना, आशा भंग होना, विश्वासघात होना, विफलता होना, भविष्य अंधकारमय दीखना, उपेक्षा अथवा अपमान होना, कोईबड़ी भूल अथवा त्रुटि होना इत्यादि। विवेक द्वारा इनका समाधान करना बुद्धि की पराजय है।
आधुनिक युग में निरन्तर अति व्यस्त रहनेवाला मनुष्य परिश्रम और विश्राम का सही सन्तुलन स्थापित न करने के कारण ह्रदयाघात को सहज ही आंमत्रित कर लेता है। परिश्रम करना मनुष्य के स्वास्थ्य, सुख और शान्ति के लिए आवश्यक होता है किन्तु थककर भी परिश्रम करने रहना अपने साथ अन्याय एंव अत्याचार करना है। मनुष्य को थकान होने पर तुरन्तकाम करना बन्द करके शिशिलन, कार्य-परिवर्तन अथवा मनोरंजन द्वारा विश्राम कर लेना चाहिए। कभी-कभी निर्धारित समय के भीतर ही कार्य को निपटाना होता है किन्तु ऐसी स्थिति में भी बीच-बीच में शिशिलन द्वारा विश्राम कर लेना अत्यन्त आशवश्यक होता है। अथक परिश्रम द्वारा पदोन्नति अथवा समृद्धि-प्राप्ति की जल्दबाजी में अगणित युवक ह्रदयघात के शिकार हो जाते हैं। क्षमता से अधिक कार्यभार वहन करते रहना घातक सिद्ध होता है। पशु-पक्षी भी शिशिलन एंव विश्राम करना जानते है। कुते और बिल्ली लम्बी-सी अगंड़ाई लेकर फैलते और सिकुड़ते हुए, गधे मिट्टी में लेटका बार-बार करवट लेते हुए तथा बन्दर नेत्र मूंदकर बैठे हुए मानो मनुष्य को शिशिलन की शिक्षा देते हैं।
कार्य को निपटाते समय बीच-बीच में पांच-सात-मिनट के लिए अल्प निद्रा (झपकी) का अभ्यास होना अत्यन्त लाभकारी होता है। शिशिलन के अभ्यास से मानसिक दबाव, रक्तचाप-वृद्धि इत्यादि से तो मुक्ति मिलती ही है, मनुष्य की कार्य-दक्षता भी बढ़ती है। विश्राम खोयी हुई ऊर्जा को वापिस लाकर मनुष्य का तुरन्त ताजा बना देता है। मनुष्य यह अभ्यास कर सकता है कि जब भी उसे आवश्यकता हो, वह शिशिलन द्वारा लघु-विश्राम करके अपने मस्तिष्क को सचेतन बनाकर शरीर पर पूर्ण नियन्त्रण कर ले। लघु विश्राम की अनेक विधि हैं तथा मनुष्य किसी भी उपयुक्त विधि का अभ्यास कर सकता है। उदाहरणार्थ हम थकान का संकेत होने पर अल्प काल के लिए कात रोककर बैठे हुए ही शरीर को पर्याप्त विश्राम दे सकते हैं। लघु-विश्राम का दूसरा प्रकार यह हो सकता है कि हम कुर्सी अथवा सोफा पर ही सुखद मुद्रा में पीछे सहारा लेते हुए बैठे जायें, नेत्र बन्दकर किसी सुन्दर प्राकृतिक दृश्य की कल्पना द्वारा अपने मन तथा सारे देह में शान्ति-संचार का अनुभव करें और आठ-दस मिनिट बाद धीरे-धीरे नेत्र खोल लें। थकान का अनुभव होते ही किसी भी समय हम ऐसे लघु-विश्राम द्वारा देह में ऊर्जा का संचार तथा मन में शान्ति का अनुभव कर सकते हैं।
नित्य-प्रति शिशिलन प्रक्रिया का प्रात: तथा सांय अभ्यास करने से मनुष्य मानसिक दबाव एंव तनाव से मुक्त रह सकता है।

1. दैनिक अभ्यास के लिए मनुष्य को एक नीरव एंव शान्त स्थान पर नेत्र बन्दकर विश्राम की मुद्रा में बैठना चाहिए तथा लगभग पन्द्रह मिनिट तक प्रत्येक लम्बे श्वास के साथ, श्वास पर ध्यान रखते हुए, एक से दस तक गिनना चाहिए।
2. अथवा नेत्र मूंदकर लेटे पैर से सिर तक सब अंगों को मन से देखते हुए शिशिल करके लगभग पन्द्रह मिनिट तक किसी सुन्दर दृश्य की अथवा किसी महान् सन्त के शान्त स्परुप की कल्पना करनी चाहिए और शान्ति का अनुभव करते हुए, कभी-कभी मन में ही स्वयं से कहना चाहिए, "मैं चिन्ता विमुक्त हो गया हूं, मुझे गहन शान्ति मिल गई है, मैंने शान्ति प्राप्त करेन की विधि जान ली है। "ऐसा करते समय अल्प निद्रा आ सकती है जो मनुष्य को बहुत ताजगी दे सकती है।
3. अथवा पन्द्रह-बीस मिनिट तक शव की भांति निस्स्पन्द लेटकर मन को विचारों से रिक्त करके चारों ओर प्रकाश देखने की कल्पना करते रहना चाहिए तथा यदि अल्प निद्रा आ जाए तो उसका स्वागत करना चाहिए। अल्प निद्रा के उपरान्त धीरे-धीरे नेत्र खोलते हुए और ताजगी का अनुभव करते हुए मनुष्य को कुछ उतम आशाजनक कल्पना करती चाहिए।

आनन्दमय जीवन by शिवानन्द (2)


मानसिक तनाव एंव अवसाद से जुड़ा हुआ ही ह्रदय-रोग है जो आज मनुष्य-जाति के सर्वाधिक प्राणलेवा रोगों में प्रमुख है। चिकित्सा-वैज्ञानिकों का मत है कि ह्रदय-रोग के कारणों के निवारण द्वारा इसकी रोकथाम करना अत्यन्त सरल है। यद्यपि दोषपूर्ण भोजन-विधि, मद्यपान, धूम्रपान, मादक पदार्थों का सेवन तथा विश्रामरहित परिश्रम इत्यादि ह्रदय-रोग के कारणों के निदान एंव जीवन-शैली में परिवर्तन लाने की आवश्यकता प्रमुख तथा प्रथम है क्योंकि चिन्तन द्वारा ही जीवन-शैली में परिर्वतन लाना और आदतों का नियंत्रण करना संभव हो सकता है।
मनुष्य चिन्तन एंव अभ्यास द्वारा अपने मन की उतेजना तथा विचारों के वेग को नियंत्रित करके अपने मन को स्थिर, सम और शान्त कर सकता है। जो मनुष्य खाते-पीते, बोलते-बैठते-उठते, मल-मूत्र विसर्जन करते अथवा कुछ भी करते हुए चिन्तन को स्वस्थ दिशा देने का प्रयत्न करता रहता है, उसका निरन्तर सुधार भी अवश्य होता रहता है और वह मानसिक उलझनों से मुक्त होकर शान्ति प्राप्त करने की दिशा में बढ़ता ही रहता है। मानसिक शान्ति सदैव स्वस्थ चिन्तन, विवेकपूर्ण आचरण एंव निरंन्तर सजगता का प्रतिफल होती है। अपने चिन्तन और जीवन-पद्धतिको सीधे रास्ते पर लगाकर अपने को संभालना और सुप्रसन्न रहना न केवल अपनी सच्ची सेवा है, बल्कि संसार का भी उपकार है। हमें इसके लिए कृतसंकल्प होकर आज और अभी से प्रसन्न करना चाहिए। जीवन को सवारंने के लिए अभी देर नहीं हुई है। चिन्तन-शैली एंव जीवन-शैली के परिवर्तन द्वारा ज्यों-ज्यों मानसिक शान्ति प्राप्त करने में सफलता मिलेगी, त्यों-त्यों आत्मविश्वास बढ़ेगा, दृढता आयेगी, व्यक्तित्व मे आकर्षण उत्पन्न होगा और मनुष्य का चतुर्दिक प्रभाव बढेगा।
मनुष्य के सामने ऐसी परिस्थिति प्राय: आती ही रहती है, जब उसका जीवन संकट में होता है तथा मानसिक दवाब (स्ट्रेस) के अतिरेक के कारण उसे यह निर्णय लेना होता है कि वह डटकर संघर्ष करे अथवा चुपके से भागकर कहीं मुंह छिपा ले। संकटमय परिस्थिति में मनुष्य का सम्पूर्ण देह-यन्त्र अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए सक्रिया हो जाता है। प्रकृति देहधारी प्राणी को आत्मरक्षा के लिए प्रेरित करती है। आत्मरक्षा करना जीवनमात्र का नैसर्गिक स्वभाव है तथा आत्मपीडन स्वभाव-प्रतिकूल है। वैज्ञानिकों का मत है कि हमारे स्वस्थ चिन्तन तथा आशा और विश्वास को जगाने से हमारी भव्य कल्पनाओं के द्वारा देह मे प्रबल जैविक रासयनिक प्रक्रियाएं प्रारम्भ हो जाती हैं जो मस्तिष्क तथा देह की सम्पूर्ण कोशिकाओं को जुझारु बनाकर प्रतिरक्षा करने में सक्रिय कर देती हैं। अतएव आवश्यकता है स्वस्थ चिन्तन, धैर्य तथा इच्छा-शक्ति की। मनुष्य समस्त प्राणियों में अग्रणी है, क्योंकि वह तर्कशक्ति से युक्त बुद्धि का धारक है। वह बुद्धि के सदुपयोग द्वारा न केवल स्वयं सुरक्षित एंव सुखी रह सकता है बल्कि समस्त जल-समाज को भी सुरक्षित एंव सुखी कर सकता है।
यद्यपि नई-नई परिस्थितियों के उत्पन्न होते रहने के कारण मानसिक दवाब का भी होते रहना जीवन का अपरिहार्य अंग है, मनुष्य बुद्धि के द्वारा अवश्य की उसका निराकरण कर सकता है तथा निरन्तर उंमग और उत्साह से परिपूर्ण होकर जीवन को आह्लादमय बना सकता है। आधुनिक सभ्यता का यह अभिशाप है कि मनुष्य के जीवन में केवल बाहय परिस्थिति ही दवाब उत्पन्न करके नहीं करती बल्कि वह स्वयं भी काल्पनिक एंव मिथ्या दवाब उत्पन्न करके अपने को अकारण ही पीड़ित करने लगता है। मनुष्य विवेकपूर्ण और निरन्तर सजगता से निश्चय ही उमंग भरा जीवन बिता सकता है।
जब मानव मस्तिष्क को कोई उतेजनापूर्ण सन्देश मिलता है, कुछ ग्रन्थियों मे तत्काल स्राव प्रारम्भ हो जाता है जिसके प्रभाव से सारे देह यन्त्र में विशेषत: ह्रदय तथा रक्त-संचार में एक उथल-पुथल-सी मच जाती है जिसका आभास नाडी के भड़कने से होने लगता है। ह्रदय शरीर का अत्यन्त संवेदनशील अंग है तथा सारे जीवन बिना क्षणभर विश्राम किए हुए ही निरन्तर सक्रिय रहकर समस्त अवयवों को रक्त तथा पोषक तत्वों की आपूर्ति करता है। मस्तिष्क का अत्याधिक दवाब ह्रदय में इतनी धड़कन उत्पन्न कर देता है कि उसे सहसा आघात (हार्ट एटैक) हो जाता है।
यद्यपि ह्रदय आघात के कारण अनेक हैं तथापि दवाब ही आघात का प्रमुख कारण है। पुष्टिप्रद भोजन लेते रहने पर भी मानसिक दवाब ह्रदय को आहत कर देता है। दीर्घकाल तक मानसिक दवाब एंव तनाव के रहने पर पेट में व्रण (पेप्टिक अल्सर), भयानक सिरदर्द (माइग्रेन), अम्लपित (हाइपर एसिडिटि), त्वचा-रोग इत्यादि भी उत्पन्न हो जाते हैं।
मनुष्यों में व्यक्तिगत भेद होते हैं तथा बाहय परिस्थितियों को ही सारा दोष देना उचित नहीं है। कुछ लोग अन्यन्त विषम परिस्थिति में भी पर्याप्त सीमा तक सम और शान्त रहते हैं तथा कुछ अन्य साधारण-सी विषमता में भी अशान्त हो जाने के कारण सहसा भीषण ह्रदय-रोग से आहत हो जाते हैं। अतएव यह स्पष्ट है कि मनुष्य का दोषपूर्ण स्वभाव अथवा दोषपूर्ण चिन्तन ही ह्रदयघात का प्रमुख कारण है। कुछ लोगों के स्वभाव मे बहुत जल्दबाजी होती है। वे घर में हों अथवा कार्यालय में हों अथवा पिकनिक स्पाट पर कहीं मनोरंजन हेतु गए हों, उन्हें जल्दबाजी लगी रहती है और वे बार-बार घड़ी को देखकर समय का हिसाब लगाते हुए मानसिक तनाव में ही जाते हैं। उन्हें छोटी-छोटी बातों पर झुंझलाहट हो जाती है तथा वे थोड़ी-सी प्रतिकूलता में उतेजित, उद्विग्न ओर निराश हो जाते हैं। वे अपने परिवार अथवा पड़ोस के साथ मिलकर रहने के बजाए नित्य-नई समस्याएं उत्पन्न करते रहते है। वे बहुत तेजी से और जोर से बातें करते हैं तथा मनोरंजन अथवा किसी प्रकार के मानसिक शिथलीकरण में रुचि न लेकर तनावग्रस्त् ही बने रहते हैं। किन्तु इसके विपरित कुछ ऐसे लोग होते हैं जो अपने कर्तव्य-पालन में तत्पर एंव सावधान रहकर भी न कोई जल्दबाजी करते हैं और न बात-बात में अधीर एंव निराश होते है। ये अपने भीतर आश्वस्त होकर सहजभाव में व्यवहार करते है तथा कभी उद्विग्न होकर भड़कते नहीं हैं। ऐसे लोग मानसिक दवाब, दवाब से उत्पन्न तनाव और ह्रदयाघात से मुक्त रहते हैं। वास्तव में मानसिक दवाब होना ही बुद्धि की हार है, चिन्तन की हार है तथा अविवेक है जिसे छोड़कर मनुष्य को हठ खड़ा होना चाहिए।
हमें यह समझ लेना चाहिए कि प्राय: मानसिक दवाब बाहय परिस्थिति की प्रतिक्रिया होता है किन्तु प्रत्येक व्यक्ति की मानसिक प्रतिक्रिया बौद्धिक-शक्ति के भेद के कारण भिन्न होतर है। अतएव प्रत्येक व्यक्ति को जीवन में अपनी चिन्तन-शक्ति एंव संकल्प-शक्ति के जगाते रहने का प्रत्यन्न निरन्तर करना चाहिए तथा अपने स्वाभाव एंव सामर्थ्य तथा परिस्थितियों के अनुसार ही व्यवहार करना चाहिए।
प्रत्येक मनुष्य को अपने मानसिक दबाव और उससे उत्पन्न् तनाव के मूल कारण को अपने भीतर ही अर्थात अपनी चिन्तन-शैली एंव स्वभाव के भीतर ही खोजकर उसके समाधान का बुद्धिमतापूर्ण उपाय करना चाहिए। अतएव यह अत्यन्त आवश्यक है कि हम अपने विचारों और स्वभाव को पूरी तरह से जानें जिससे कि हम विवेक के सदुपयोग द्वारा अपने मानसिक दबावों का नियन्त्रण एंव निराकरण कर सकें। हमें आत्म-विश्लेषण द्वारा अपने गुण, अपने दोष, अपने विश्वास, अपनी आस्थाएं, मान्यताएं, अपने भय और चिन्ताएं, अपनी दुर्बलताएं, हीनताएं, अपनी समस्याएं, अपने दायित्व, अपनी अभिरुचि, सामर्थ्य और सीमाएं और सीमाएं जानकर अपने चिन्तन, स्वाभाव एंव जीवन-शैली में आवश्यक परिर्वतन लाने का प्रयत्न करना चाहिए। निश्चय ही हम अपनी बुद्धि के उपयोग से अपने चिन्तन, स्वभाव एंव कार्य-शैली में स्वस्थे परिवर्तन लाकर न केवल तनाव-मुक्त एंव सुखमय हो सकते हैं बल्कि अपने जीवन में दिशा-बोध होने पर अपने जीवन को आनन्दपूर्ण एंव कृतार्थ कर सकते हैं।

आनन्दमय जीवन by शिवानन्द


जीवन इस सृष्टि का सबसे बड़ा चमत्कार है। जीवन पाकर असंख्य पक्षी विशाल व्योम में पंख फैलाकर उड़ते हैं और आनन्दमय होकर कलवर करते हैं। जीवन का स्फृरण होने पर ही अगणित पशु वनों में विहार करते हैं। और वन की शोभा बन जाते हैं। जीवन-स्फुरण से उल्लसित होकर ही कोटि-कोटि जलचर जल में विचरण करते हैं तथा सागरों की श्रीवृद्धि करते हैं।
जीवन सृष्टि का सर्वोतम धन है तथा अनुपम तत्व है। यदि जीवनधारी प्राणी न हों तो इस विशाल सृष्टि में जल, थल और नभ की उपादेयता ही क्या रहेगी ? सृष्टि जीवन का अस्तित्व होने के कारण ही कृतार्थ है। जीवन से बढ़कर कहीं भी कुछ और गौरवमय नहीं है।
सृष्टि के श्रृंगारभूत मानव को यह सौभाग्य मिला है कि जीवन उसके माध्यम से ही चरमोत्कर्ष को प्राप्त हसे सका तथा वह जल, थल और नभ पर शासन करने में समर्थ हो गया। प्रकृति नटी मानव की रचना द्वारा कृत-कृत्य हुई। मानव ने बुद्धिमता से प्रकृति के मूलभूत तत्वों तथा जीवन के रहस्यों की खोज में सलंग्न होकर अपनी अस्मिता को प्रतिष्ठि कर दिया। मानव ने बौद्धिक शक्ति के द्वारा विज्ञान और दर्शन की असीमराशि का संचय किया, सौन्दर्यबोध, संवेदनशीलता और कल्पना-शक्ति के द्वारा साहित्य एंव विविध कलाओं का सर्जन किया, करुणार्द्रता रहस्मय दिव्य वृति के द्वारा अनेक धर्मों को उदभूत किया। समस्त संस्कृति और सभ्यता का प्रादुर्भाव मानव की बुद्धि के आधार पर ही हुआ है। मानव ने संस्कृति और सभ्यता के विकास द्वारा जीवन में सौन्दर्य समावेश कर दिया है।
जीवन एक परम सुन्दर एंव परम भव्य ततव हैं। जीवन की संरक्षा तथा जीवन का सौन्दर्यीकरण करना मानव का न केवल दायित्व है बल्कि उसकी एक गहरी मांग भी है। ज्ञान, विज्ञान, दर्शन, कला, साहित्य इत्यादि विविध क्षेत्रों में जीवन को सुन्दर एंव भव्य बनाने का प्रयत्न करनेवाले मनुष्यों के प्रति समस्त मानव-जाति ऋणी है। अनन्त है मानव-जीवन का आकर्षण और अनन्त है उसकी भव्यता।
वास्तव में समस्त सृष्टि सौन्दर्य से परिपूर्ण है तथा मानव-जीवन में आकर्षण और भव्यता का कोई अन्त नहीं है। प्रकृति ने मनुष्य को अपना जीवन संवार कर उसे सौन्दर्य से भरपूर करने की अनन्त क्षमता भी दी है। जीवन अनमोल है और उल्लासमय एंव भव्य होने की असीम संभावनाओं से भरा पड़ा है। मनुष्य और जन-समाज इस धराधाम को जीता-जागता स्वर्ग बना सकते हैं। जीवन एक ऐसा दुर्लभ तत्व है कि वैज्ञानिकों के अथक प्रयास होने पर भी उन्हें पृथ्वी के अतिरिक्त इस विशाल विश्व में कहीं किसी अन्य ग्रह पर जीवन का अस्तित्व होने के लक्षण अभी तक नहीं मिले हैं। मनुष्य को यह विशेषाधिकार प्राप्त है कि वह जीवन के तथा सृष्टि के रहस्यों की खोज कर जीवन को समृद्ध बना सकता है।
जीवन सचमुच एक वरदान है, प्रकृति का अनुपम उपहार है जिसके बुद्धिसंगत उपयोग द्वारा मनुष्य उसे सार्थक एंव आनन्दमय बना सकता है। जीवन एक ऐसी निधि है जिसका अल्प सदुपयोग भी मनुष्य को गहन तृप्ति देकर धन्य बना सकता है किन्तु किसी अमूल्य हीरे का महत्व न समझकार अविवेकी मनुष्य दीन और दरिद्र रहकर दयनीय हो जाता है। अनएव प्रथम आवश्यकता है इस अप्रतिम जीवननिधि की महता जानने और समझने की तथा उसका सम्मान और सुरक्षा करने की।
इस संसार में केवल प्रकृति में ही आकर्षणों और सौन्दर्य-बिन्दुओं का सर्जन किया है। यदि हम तनिक नेत्र खोलकर देखें तो चारों ओर अनन्त चिताकर्षक एंव सौन्दर्यपूर्ण दृश्यावली की नयनाभिराम छटा दृष्टिगोचर होगी। कहीं प्राकृतिक शोभा के भण्डार, विशाल एंव विस्तीर्ण पर्वतों की ध्यानाविष्ट-सी शैलमाला हैं जिनके धवल हिमाच्छादित उच्च शिखर उदीयमान सूर्य की प्रखर रश्मियों के स्पर्श से उदभासित होकर स्वर्णिम प्रतीत होते हैं। कहीं वनों में विविध प्रकार के बृहद्काय एंव लघुकाय वृक्ष और विविध स्वादयुक्त फल, उपवनों में विविध प्रकार के रंग-बिरंगे पुष्पगुच्छ, कोमल लताओं के विस्तृत जाल और मदमत भ्रमरो का मधुर गुंजन तथा कहीं कलकल निनादिनी पयस्विनी नदियां, नद और निर्झर हमारे चित का हरण कर लेते हैं। कहीं दुग्धतुल्य श्वेत फेन से सुशोभित उताल तरंगों को असंख्य भुजाओं के सदृश निरन्तर उठाते और गिराते हुए अथाह समुद्रों में अनन्त प्रकार के जलचर तथा विलक्षण रत्न मन को मुग्ध कर देते हैं। उषाकालहन तथा अस्तकालीन ताम्रवर्ण सूर्य अत्यन्त मनोहारी प्रतीत होता है। नील गगन मे नाना आकृति धारण किये हुए श्वेत और श्याम मेघों की कलाएं अत्यन्त मनोरम दृश्य प्रस्तुत करती हैं। रात्रि के निरभ्र आकाश में असंख्य तारागण के मध्य में संचरण करता हुआ चारु चन्द्र चित का हरण कर लेता है।
मनुष्य ने भी अपनी सौन्दर्यप्रियता एंव सर्जकता से धरती पर अनोखे आश्चर्यों का प्रणयन किया है। कहीं मानवनिर्मित गगनचुम्बी भव्य सौध हैं, कहीं भिति, वस्त्र, कागज इत्यादि पर अंकित चित्र-विचित्र कला-कृतियां हैं, कहीं विविध रसों से सिक्त आह्लादकारी काव्य है, कहीं संगीत सरोवर की मादक गहराई हैं, तथा कहीं थिरकते पैरों का मनोमुग्धकारी नृत्य। इतिहास केवल रण क्षेत्र की शौर्यपूर्ण गाथाओं से ही नहीं बल्कि जीवन के विविध क्षेत्रों में मानव की साहसिक उपलब्धियों से भी भरा पड़ा है।
हमारे चारों ओर आकर्षण ही आकर्षण हैं। पारिवारिक जीवन की रसमयता, घनिष्ठ मित्रगण के मध्य परस्पर सलांप, मनोरंजक हास-परिहास, क्रीड़ामग्न बालकों की मृग्धकारी किलकररियां तथा उनके रुचिर हाव-भाव, क्रीड़ा प्रांगण में युवकों के स्पर्धापूर्ण खेल, शारीरिक करतब और साहसिक कार्य, एकान्त में स्नेहीजन का परस्पर प्रेमपूर्ण वार्तालाप एंव व्यवहार, रमणीय स्थलों का पर्यटन, प्राकृतिक सौंन्दर्य का रसास्वादन, ऐतिहासिक स्थलों का निरीक्षण, समाज में दीन-दुखीजन के दु:ख निवारण हेतु सेवाकार्य, तीर्थटन, भजन-कीर्तन, संत्संग इत्यादि मन को सुख और शान्ति देनेवाले अनेक क्रियाकलापा हैं। यह सृष्टि सौन्दर्य का अनन्त निधान है तथा जीवन भव्य आकर्षणों से परिपूर्ण है किन्तु मनुष्य अविवेक के कारण संसार को कष्टमय तथा जीवन को भारमय मान बैठता है। अपने जूते में चुभनेवाले कंकर या कांटा होने पर उसे निकाल फेंकने के बजाए मार्ग को कठिन कहना अपनी ही भूल है।
जीवन के आकर्षणपूर्ण तथा उपलब्धियों एंव अनान्द की अनन्त संभावानओं से भरपूर होने पर भी अगधित मनुष्य् मानसिक दाब एंव तनाव के कारण ह्रदयघातों से पीड़ित होते हैं तथा दु:ख एंव आश्चर्य तो यह है कि भयंकर ह्रदयाघातों का शिकार होनेवाले लोगों में तीस और चालीस वर्ष के बीच की आयुवाले तरुणों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है और बड़े-बड़े नर्सिग होम और यद्यपि उनका उपचार तत्काल होना अत्यन्त आवश्यक होता है। नित्य-प्रति अगणित लोग अल्पायु मे ही सहसा ह्रदयाघात होने पर स्वयं भरपूर जीवन जीने से वंचित होकर तथा मित्रों एंव कुटुम्बीजन को रोता हुआ छोड़कर काजकवलित हो जाते हैं। अगणित लोग जीवन की किसी उलझन और कुचल देनेवाले भयानक बोझ कहते हुए उतेजनावश जीवनलीला का अन्त कर देते हैं। दु:खपूर्ण आश्वर्य तो यह है कि जीवनान्त कर देनेवाले ऐसे तरुणों की संख्या बढ़ती जा रही जो उच्च शिक्षा प्राप्त कर चुके होते हैं अथवा महत्वपूर्ण वैज्ञानिक खोज में संलग्न होते हैं।
जीवन एक अनजाने क्षेत्र में और अनजानी दिशा में यात्रा के सदृश है। मनुष्य यात्रा के साधनों को जानकर और उनको समझकर ही उसे सुखमय एंव सार्थक बना सकता है। कुशल यात्री अपने साधनों, रुचि और क्षमता को तथा यात्रा की संभावनाओं को समझकर यात्रा को रोमांचकारी और आनन्दपूर्ण बना सकता है तथा ज्ञान एंव अनुभव से युक्त होकर अन्य यात्रियों के लिए भी प्रेरणप्रद एंव उपयोगी हो सकता है।
जीवन में माधुर्य है, सरसता है और आनन्दमयता है। प्रकृति ने जीवन की अनन्त संभावनाओं को तथा संसार के आकर्षणों को सर्वसुलभ बनाया है तथा किसीके लिए भी निराश एंव हतोत्साह होने का कारण नहीं है। मनुष्य के जीवन में इतनी अधिक सामग्री देखने, सुनने, पढ़ने के लिए तथा इतना विशाल क्षेत्र कार्य
करने के लिए है कि जीवन की अवधि अत्यल्प एंव अपर्याप्त प्रतीत होती है। किन्तु खेद है कि मनुष्य भटक जाने के कारण जीवन-वरदान को अभिशाप तथा रमणीक संसार को भयावह स्थल मानकर न केवल अपने छोटे-से जीवन को ही बल्कि समाज के जीवन को भी तानवपूर्ण बना देता है। वास्तव में आवश्यकता है आन्तरिक स्वभाव एंव व्यवहार के परिष्कार की। विवेकशील व्यक्ति के लिए यह सरल है तथा विवेकहीन व्यक्ति के लिए कठिन।
मनुष्य न केवल दृश्यमान बाहय जगत् में जीता है, बल्कि अपने भीतर स्व-रचित मनोजगत् में भी जीता है। वास्तव में मनुष्य का सुख और दु:ख इस बहिर्रजगत् पर निर्भर नहीं होता बल्कि अपने अन्तर्मन पर निर्भर होता है। हमारे सुख का कारण संसार के अन्य व्यक्ति और वस्तु नहीं होते बल्कि हमारी वैचारिक और भावानात्म्क् क्रिया तथा प्रतिक्रिया ही हमारे सुख का कारण होती हैं। हमारी जीवन-शैली ऐसी चिन्तन-शैली के अनुरुप होनी चाहिए कि वह हमें भय, चिन्ता और शोक से मुक्त रख सके। अतएव हमें संकल्प लेकर अपने मनोजगत् में एक स्वस्थ चिन्तन-शैली के निर्माण करने का तथा बहिर्जगत् में उसके अनुरुप व्यवहार करने का प्रयत्न करना चाहिए।
इस युग की विडम्बना यह है कि आधुनिक मानव की दृष्टि में प्रगति एंव उन्नति का अर्थ केवल एक है—धनवान्, समृद्धिशील, ऐयवर्यशाली एंव वैभवशाली होना। आज विज्ञान एंव तकनीकी के आधार पर भैतिक समृद्धि होना ही सभ्यता के विकास का सूचक बन गया है। मानव के आन्तरिक जीवन का सन्तुलन बिगड़ गया है और फलत: शान्ति का अनुभव दुर्लभ हो गया है। जीवन में जीवन्तता विलुप्त् हो गयी है तथा जीवन दिशाहीन, भ्रमित और नीरस हो गया है। किसीभी प्रकार से धन कमाना, ऐश्वर्य सामग्री का संचय करना और ‘बड़ा आदमी’ बनकर समाज पर छा जाना मानों जीवन का लक्ष्य है। दिनचर्या में शान्ति के कुछ क्षण निकालकर चिन्तन करना मनुष्य की कल्पना से बाहर है। आज के मशीनी जीवन में चारों ओर जल्दबाजी, परस्पर गला काटकर आगे बढ़ने की होड़, भौतिक समृद्धि के लिए अन्धी दौड़, निरन्तर स्वार्थपूर्ण सकिगयता, भटकन, बेचैनी, दवाब और तनाव के कारण व्यक्ति अपने को अकेला मानकर दुखी और परेशान हो रहा है। इस सतही जीवन में विचार और कर्म का सामंजस्य लुप्त हो गया है।
आज मानव को सबसे बढ़कर शान्ति चाहिए जिससे वह जीवन की प्रतिष्ठा को समझकर जीवन का समादा कर सके तथा जीवन के सदुपयोग द्वारा जीवन को उदात, सौन्दर्यपूर्ण और आनन्दमय बना सके। मनुष्य तथा समाज के जीवन को शान्तिमय और सार्थक बनाने के लिए गहन चिन्तन की आवश्यकता स्पष्ट है। विचारपूर्ण चिन्तन का समावेश होने पर ही मनुष्य तथा समाज का जीवन आकर्षणपूर्ण एंव सुन्दर हो सकेगा। मन की भूमि पर वसन्त की प्रस्थापना होने पर बहिर्जगत् में भी वसत्न छा जायगा। आज भौतिक क्षेत्र में प्रगति के साथ ही मनुष्य के स्वार्थ, संकीर्णता, भोगलिप्सा, वैर और वैमनस्य का भी विस्तार हो गया है तथा जीवन-वाटिका मे असमय ही पतझड़ के घुस जाने से सारा संसार दुरुह एंव भ्यावह मरुस्थल प्रतीत होता है।
मनुष्य के चिन्तन का सीधा प्रभाव सर्वप्रथम मस्तिष्क तथा ह्रदय पर होता है। स्वस्थ चिन्तन से मस्तिष्क में ऊर्जा, उत्साह और उमंग उत्पन्न होते है। मनुष्य का मुखमंडल चमक उठता है और नेत्रों में उल्लास एंव जीवन्तता छलकने लगते हैं। इसके विपरित दूषित चिन्तन से मनुष्य के मस्तिष्क में ऊर्जा का क्षय होने लगता है, जीवन मे नीरसता आ जाती है, तनाव उत्पन्न हो जाता है, मुखमण्डल तेजहीन हो जाता है और नेत्रों में उदासी और निर्जीवता छा जाती है। यह दोषमय चिन्तन का ही परिणाम है कि अवसाद और अशान्ति संक्रामक रोग की भांति फैल रहे हैं तथा अगणित तरुणी और तरुण घर और परिवार मे सब सुख होते हुए भी असहाय-से होकर, मानसिक उच्चाटन और बेचैनी के कारण जीवन को क्लेशप्रद बोझ मानकर उतेजना के क्षणों में अपना प्राणान्त ही कर देते हैं तथा अपना उपवन स्वयं ही उजाड़कर परिवार और मित्रगण के लिए भी घोर दु:ख का कारण बन जाते हैं। वास्तव में दवाब (स्ट्रेस) तथा अवसाद (डिप्रेशन) कोई असाध्य रोग नहीं है बल्कि त्रुटिपूर्ण चिन्तन का सीधा दुष्परिणाम हैं जिन्हें विवेक द्वारा अवश्य ही सदा के लिए दूर किया जा सकता है। हमें अपने दु:ख, परेशानी और झुंझलाहट के कारणों को अपनी चिन्तन-शैली एंव जीवन-शैली में ही खोजकर धैर्यपूर्वक उनका उपाय करना चाहिए। हम प्राय: महत्वहीन बातों को महत्व देकर और महत्वपूर्ण बातों की उपेक्षा करके झंझट मोल ले लेते हैं। क्या हो गया और क्या होना चाहिए था, इस पर पछताते रहने के बजाए हम इस पर ध्यान दें कि हमें क्या बनना है और क्या करना है।