ध्यान का प्रथम चरण मौन है। ध्यान के परिप्रेक्ष्य् में मौन का अर्थ केवल वाणी का मौन ही नहीं है बल्कि बाहर से मन को हटाकर भीतर अपने विचारों और भावों का तटस्थ दर्शन करना भी है। आधुनिक युग में खाद्य-पदार्थों के प्रदूषण के अतिरिक्त वायु प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण मानव के लिए अभिशाप बन गए हैं। सड़कों पर कार आदि वाहनों के हार्न तथा स्थान-स्थान पर ध्वनि विस्तार (लाउडस्पीकर) का प्रयोग वातावरण को अनावश्यक शोर से भर देता है। मनोवैज्ञानिक ध्वनि प्रदूषण के बढते हुए खतरों से हमें सावधान कर रहे हैं। ध्वनि विस्तारकों के अति प्रयोग के कारण अनेक धर्रमस्थल भी अशान्ति स्थल हो गए हैं। वैज्ञानिक हमें ध्वनि प्रदूषण के दुष्परिणामों के प्रति सचेत कर रहे हैं। तीव्र रक्त धमनियों को कठोर और संकरा बना देती है तथा स्नायविक विकार उत्पन्न करती है। ध्वनि प्रदूषण का कुप्रभाव यकृत और पाचन क्रिया पर भी पड़ता है। तीव्र धवनि शोर से कार्यक्षमता तथा एकाग्रता भी नष्ट होती है। बाह्यय शोर अथवा शान्ति का मन की अवस्था पर गहन प्रभाव होता है। मानसिक शान्ति की कामना करनेवाल व्यक्ति को प्राय: कुछ समय तक एकान्त में मौन होकर बैठना चाहिए। अनेक महापुरुष सप्ताह में एक दिन मौन का अभ्यास करते हैं। मन पर नियंत्रण रखने के लिए मौन का अभ्यास करना अत्यन्त आवश्यक है।
ध्यान की सहज, सरल और सुगम विधि यह है कि मनुष्य को प्रात: तथा सांय एक शान्त स्थान पर शरीर को ढीला करके संविधाजनक मुद्रा में बीस-पच्चीस मिनिट तक सुखद आसन पर नेत्र मूंदकर सीधा बैठना चाहिए। पैरों को मोड़कर सीधा बैठने से शुद्ध रक्त का प्रवाह मस्तिष्क की ओर अधिक हो जाता है। मन को अन्तर्मुखी करने के लिए नेत्रों का मूंदना आवश्यक होता होता है क्योंकि नेत्रों के खुले रहने से मन बाह्यय जगत् की ओर सहज ही दौड़ता है तथा अन्तर्मुखी नहीं हो सकता है। नेत्र मूंदे हुए ही पहिले मन में यह कामना करनी चाहिए कि प्रत्येक अंग शिथिल हो सकता है। तत्पश्चात् अपने भीतर ही मन को केन्द्रित करके ॐ (अथवा किसी लघु मंत्र) का समान गति से धीरे-धीरे मानसिक उच्चारण करते हुए भीतर ही उसे सुनने का प्रत्यत्न करना चाहिए। ॐ के उच्चारण में लय होना अन्यन्त महत्वपूर्ण होता है। मस्तिष्क के लिए लयपूर्ण मन्द ध्वनि स्वास्थ्यप्रद एंव शान्तिप्रद होती है। ध्यान के समय जब कभी मन उच्चारण (जपत्र् से हटकर विचार में लग जाए, उसे पुन: मानसिक उच्चारण एंव श्रवण में ही लगा देना चाहिए। प्रारम्भ में अनेक बार मन को इधर-उधर दौड़ने से वापिस लाकर ॐ के उच्चारण एंव श्रवण में लगाना होता है, किन्तु धैर्यपूर्वक इसका अभ्यास करते रहने पर कालान्तर में उच्चारण और श्रवण सहज एंव निर्बाध हो जाता है।
प्राय: सभी की शिकायत होती है कि ध्यान के अभ्यास में मन इधर-उधर भागता रहता है तथा स्थिर नहीं होता। वास्तव में ध्यान (मेडीटशन) हमारे अवधान (एटेनशन) की मात्र एकाग्रता (कान्सेंट्रेशन) ही नहीं होता। नेत्र मूंदकर ध्यान में बैठने पर मन, चेतन स्तर पर चचंल रहते हुए भी, अवचेतन स्तर शान्ति की दिशा में अग्रसर हो जाता है। ध्यान के समय जो भी भाव अथवा विचार उभर कर आता है, उसके संबंध में उतेजना का क्षय होने लगता है तथा अनासक्ति का उदय हो जाता है। ध्यान के समय बार-बार मंत्र पर लौटते हुए सूक्ष्म स्तर पर जाते हुए मंत्र और विचार दोनों लुप्त होने लगते हैं। मन की उछलकूद बन्द होने पर मन निश्चल हो जाता है तथा मानों वह बैठने लगता है। स्तब्ध्ता की अवस्था में शरीर भी मन के साथ ही तनावरहित और ढीला होने लगता है ताा परम विश्राम की अवस्था में भीतर शान्ति का मीठा आभास होने लगता है।
पर्याप्त काल तक नित्य-प्रति ध्यान का नियमित अभ्यास करने से चेतन स्तर पर मन को दिव्य शान्ति का अनुभव होने लगता है। ध्यान के काल मे ऐसे अमृतमय क्षण आते हैं ॐ के उच्चारण और श्रवण का सहसा लोप हो जाने पर मनुष्य का निर्विचार मन अनिर्वचनीय आनन्द के सागर में निमग्न हो जाने पर मनुष्य को चैतन्य सता के अमृतमय संस्पर्श की गहन आनन्दनुभूति के अतिरिक्त अन्य कोई बोध नहीं होता। अमृतमय क्षणों का यह अनुभव मनुष्य को कुण्ठा, निराशा, आक्रोश एंव उतेजना से उन्मुक्त कर देता है तथा मन में सात्विक ओज का संचार हो जाता है। परिणामत: मनुष्य जीवन की संकरी डगर पर डगमगाता नहीं है और साहसपूर्ण सीधा चल सकता है। ध्यान के अभ्यास से कालान्तर में मन को दूषित करनेवाले काम, ईष्या, द्वेष्, घृणा, क्रोध, लोभ, मोह, निराशा, चिन्ता, भ्य इत्यादि विकारों का शमन होने पर मनुष्य सन्तुलित, सम और शान्त हो जाता है तथा चित की एकाग्रता-शक्ति बढ़ जाती है। पुरानी भूलों तथा शोक, हानि और अपमान की दु:खद घटनाओं के क्लेशप्रद संस्कार निष्प्रभाव हो जाते हैं तथा मनुष्य उनका स्मरण होने पर उद्विग्न नहीं होता। उतेजना और भय शान्त हो जाते हैं तथा क्रोध की अग्नि भी शान्त हो जाती है।
ध्यान का अभ्यास करने से मनुष्य को अगणित लाभ होते हैं। ध्यान के अभ्यास द्वारा हाइपोथेलमस ग्रंथि के सक्रिय हो जाने से नाडियों की उतेजना शान्त हो जाती हे तथा पीयूष ग्रंथि (पिट्युटरी ग्रंथि) के सक्रिय हो जाने से नाडियों की कार्यक्षमता बढ जाती है जिससे अनेक रोग दूर हो जाते हैं। ध्यान का अभ्यास मनुष्यकी षबराहट, अकेलानप, भविष्य का भय, चिड़चिड़ापन, व्याकुलता और तनाव को दूर देता है तथा मन शान्त, सम और सन्तुलित हो जाता है। ध्यान का तत्काल फल यह होता है कि मनुष्य देर तक ताजगी का ऐसे ही अनुभव करता है जैसे जल में ड़बकी लगाने से देर तक शीतलता का अनुभव होता है। प्रात: काल ध्यान करने से मानों दिनभर के क्रियाकलापों के लिए तैयार हो जाता है। यथासंभव ध्यान का अभ्यास खालीपेट करना चाहिए। ध्यान का अभ्यास करने पर मनुष्य में आत्म-सुधार एंव आत्म-निर्माण के लिए आन्तरिक उत्साह उत्पन्न हो जाता है।
मौन ध्यान का आवश्यक तथा महत्वपूर्ण पूरक है जिसका अभ्यास ध्यान से पूर्व अथवा कभी-कभी स्वतंत्र रुप से एकान्त में सीधा बैठकर तथा नेत्र मूंदकर कुछ मिनिटों तक करना मन को सन्तुलित, सम और शान्त करने के लिए अत्यन्त सहायक होता है। मौन का एक उद्देश्य अपने विचारों और उद्वेगों का तटस्थ होकर देखना है तथा कभी-कभी आत्मनिरीक्षण द्वारा अपने विचारों, उद्वेगों को समझकर उन्हें दिशा भी देना है। विचारों और उद्वेगों के समाधान द्वारा ही मन का नियन्त्रण भी विचारों से ही हो सकता है। अतएंव मन को सन्तुलित, सम, शान्त तथा सशक्त करने के लिए एकान्त में विचारों को सुलझाना ही युक्तियुक्त है। मनुष्य अपने विचार, स्वभाव, गुण, दोष, सामर्थ्य, क्षमता आदि को भली प्रकार जानकर ही अपने व्यक्तित्व में आवश्यक परिवर्तन ला सकता है। अपने-आप जानना सारे संसार को जान लेने की अपेक्षा आवश्यक एंव उपयोगी है।
अपने मन को नियन्त्रित कर लेना मनुष्य की एक महान् उपलब्धि होती है। मन को नियन्त्रित एंव एकाग्र करने का गुण जीवन के समस्त क्षेत्रों में सफलता प्राप्त करने का सशक्त मन्त्र है। मन क्या है ? वास्तव मे विचारों का निरन्तर प्रवाह ही मन है। प्राय: विचारों का जन्म ज्ञानेन्द्रियों (नेत्र, नासिका, कर्ण, जिह्वा और त्वचा) के साथ संसार के बाह्यय पदाथों का संस्पर्श होने पर मस्तिष्क में होता है। इसके अतिरिक्त मस्तिष्क के अवचेतन स्तर से बुलबुलों अथवा लहरों के स्पर्श नए-नण् विचार उठकर भी चेतन स्तर पर आते रहते है।