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Thursday, February 19, 2015

आनन्दमय जीवन by शिवानन्द (2)


मानसिक तनाव एंव अवसाद से जुड़ा हुआ ही ह्रदय-रोग है जो आज मनुष्य-जाति के सर्वाधिक प्राणलेवा रोगों में प्रमुख है। चिकित्सा-वैज्ञानिकों का मत है कि ह्रदय-रोग के कारणों के निवारण द्वारा इसकी रोकथाम करना अत्यन्त सरल है। यद्यपि दोषपूर्ण भोजन-विधि, मद्यपान, धूम्रपान, मादक पदार्थों का सेवन तथा विश्रामरहित परिश्रम इत्यादि ह्रदय-रोग के कारणों के निदान एंव जीवन-शैली में परिवर्तन लाने की आवश्यकता प्रमुख तथा प्रथम है क्योंकि चिन्तन द्वारा ही जीवन-शैली में परिर्वतन लाना और आदतों का नियंत्रण करना संभव हो सकता है।
मनुष्य चिन्तन एंव अभ्यास द्वारा अपने मन की उतेजना तथा विचारों के वेग को नियंत्रित करके अपने मन को स्थिर, सम और शान्त कर सकता है। जो मनुष्य खाते-पीते, बोलते-बैठते-उठते, मल-मूत्र विसर्जन करते अथवा कुछ भी करते हुए चिन्तन को स्वस्थ दिशा देने का प्रयत्न करता रहता है, उसका निरन्तर सुधार भी अवश्य होता रहता है और वह मानसिक उलझनों से मुक्त होकर शान्ति प्राप्त करने की दिशा में बढ़ता ही रहता है। मानसिक शान्ति सदैव स्वस्थ चिन्तन, विवेकपूर्ण आचरण एंव निरंन्तर सजगता का प्रतिफल होती है। अपने चिन्तन और जीवन-पद्धतिको सीधे रास्ते पर लगाकर अपने को संभालना और सुप्रसन्न रहना न केवल अपनी सच्ची सेवा है, बल्कि संसार का भी उपकार है। हमें इसके लिए कृतसंकल्प होकर आज और अभी से प्रसन्न करना चाहिए। जीवन को सवारंने के लिए अभी देर नहीं हुई है। चिन्तन-शैली एंव जीवन-शैली के परिवर्तन द्वारा ज्यों-ज्यों मानसिक शान्ति प्राप्त करने में सफलता मिलेगी, त्यों-त्यों आत्मविश्वास बढ़ेगा, दृढता आयेगी, व्यक्तित्व मे आकर्षण उत्पन्न होगा और मनुष्य का चतुर्दिक प्रभाव बढेगा।
मनुष्य के सामने ऐसी परिस्थिति प्राय: आती ही रहती है, जब उसका जीवन संकट में होता है तथा मानसिक दवाब (स्ट्रेस) के अतिरेक के कारण उसे यह निर्णय लेना होता है कि वह डटकर संघर्ष करे अथवा चुपके से भागकर कहीं मुंह छिपा ले। संकटमय परिस्थिति में मनुष्य का सम्पूर्ण देह-यन्त्र अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए सक्रिया हो जाता है। प्रकृति देहधारी प्राणी को आत्मरक्षा के लिए प्रेरित करती है। आत्मरक्षा करना जीवनमात्र का नैसर्गिक स्वभाव है तथा आत्मपीडन स्वभाव-प्रतिकूल है। वैज्ञानिकों का मत है कि हमारे स्वस्थ चिन्तन तथा आशा और विश्वास को जगाने से हमारी भव्य कल्पनाओं के द्वारा देह मे प्रबल जैविक रासयनिक प्रक्रियाएं प्रारम्भ हो जाती हैं जो मस्तिष्क तथा देह की सम्पूर्ण कोशिकाओं को जुझारु बनाकर प्रतिरक्षा करने में सक्रिय कर देती हैं। अतएव आवश्यकता है स्वस्थ चिन्तन, धैर्य तथा इच्छा-शक्ति की। मनुष्य समस्त प्राणियों में अग्रणी है, क्योंकि वह तर्कशक्ति से युक्त बुद्धि का धारक है। वह बुद्धि के सदुपयोग द्वारा न केवल स्वयं सुरक्षित एंव सुखी रह सकता है बल्कि समस्त जल-समाज को भी सुरक्षित एंव सुखी कर सकता है।
यद्यपि नई-नई परिस्थितियों के उत्पन्न होते रहने के कारण मानसिक दवाब का भी होते रहना जीवन का अपरिहार्य अंग है, मनुष्य बुद्धि के द्वारा अवश्य की उसका निराकरण कर सकता है तथा निरन्तर उंमग और उत्साह से परिपूर्ण होकर जीवन को आह्लादमय बना सकता है। आधुनिक सभ्यता का यह अभिशाप है कि मनुष्य के जीवन में केवल बाहय परिस्थिति ही दवाब उत्पन्न करके नहीं करती बल्कि वह स्वयं भी काल्पनिक एंव मिथ्या दवाब उत्पन्न करके अपने को अकारण ही पीड़ित करने लगता है। मनुष्य विवेकपूर्ण और निरन्तर सजगता से निश्चय ही उमंग भरा जीवन बिता सकता है।
जब मानव मस्तिष्क को कोई उतेजनापूर्ण सन्देश मिलता है, कुछ ग्रन्थियों मे तत्काल स्राव प्रारम्भ हो जाता है जिसके प्रभाव से सारे देह यन्त्र में विशेषत: ह्रदय तथा रक्त-संचार में एक उथल-पुथल-सी मच जाती है जिसका आभास नाडी के भड़कने से होने लगता है। ह्रदय शरीर का अत्यन्त संवेदनशील अंग है तथा सारे जीवन बिना क्षणभर विश्राम किए हुए ही निरन्तर सक्रिय रहकर समस्त अवयवों को रक्त तथा पोषक तत्वों की आपूर्ति करता है। मस्तिष्क का अत्याधिक दवाब ह्रदय में इतनी धड़कन उत्पन्न कर देता है कि उसे सहसा आघात (हार्ट एटैक) हो जाता है।
यद्यपि ह्रदय आघात के कारण अनेक हैं तथापि दवाब ही आघात का प्रमुख कारण है। पुष्टिप्रद भोजन लेते रहने पर भी मानसिक दवाब ह्रदय को आहत कर देता है। दीर्घकाल तक मानसिक दवाब एंव तनाव के रहने पर पेट में व्रण (पेप्टिक अल्सर), भयानक सिरदर्द (माइग्रेन), अम्लपित (हाइपर एसिडिटि), त्वचा-रोग इत्यादि भी उत्पन्न हो जाते हैं।
मनुष्यों में व्यक्तिगत भेद होते हैं तथा बाहय परिस्थितियों को ही सारा दोष देना उचित नहीं है। कुछ लोग अन्यन्त विषम परिस्थिति में भी पर्याप्त सीमा तक सम और शान्त रहते हैं तथा कुछ अन्य साधारण-सी विषमता में भी अशान्त हो जाने के कारण सहसा भीषण ह्रदय-रोग से आहत हो जाते हैं। अतएव यह स्पष्ट है कि मनुष्य का दोषपूर्ण स्वभाव अथवा दोषपूर्ण चिन्तन ही ह्रदयघात का प्रमुख कारण है। कुछ लोगों के स्वभाव मे बहुत जल्दबाजी होती है। वे घर में हों अथवा कार्यालय में हों अथवा पिकनिक स्पाट पर कहीं मनोरंजन हेतु गए हों, उन्हें जल्दबाजी लगी रहती है और वे बार-बार घड़ी को देखकर समय का हिसाब लगाते हुए मानसिक तनाव में ही जाते हैं। उन्हें छोटी-छोटी बातों पर झुंझलाहट हो जाती है तथा वे थोड़ी-सी प्रतिकूलता में उतेजित, उद्विग्न ओर निराश हो जाते हैं। वे अपने परिवार अथवा पड़ोस के साथ मिलकर रहने के बजाए नित्य-नई समस्याएं उत्पन्न करते रहते है। वे बहुत तेजी से और जोर से बातें करते हैं तथा मनोरंजन अथवा किसी प्रकार के मानसिक शिथलीकरण में रुचि न लेकर तनावग्रस्त् ही बने रहते हैं। किन्तु इसके विपरित कुछ ऐसे लोग होते हैं जो अपने कर्तव्य-पालन में तत्पर एंव सावधान रहकर भी न कोई जल्दबाजी करते हैं और न बात-बात में अधीर एंव निराश होते है। ये अपने भीतर आश्वस्त होकर सहजभाव में व्यवहार करते है तथा कभी उद्विग्न होकर भड़कते नहीं हैं। ऐसे लोग मानसिक दवाब, दवाब से उत्पन्न तनाव और ह्रदयाघात से मुक्त रहते हैं। वास्तव में मानसिक दवाब होना ही बुद्धि की हार है, चिन्तन की हार है तथा अविवेक है जिसे छोड़कर मनुष्य को हठ खड़ा होना चाहिए।
हमें यह समझ लेना चाहिए कि प्राय: मानसिक दवाब बाहय परिस्थिति की प्रतिक्रिया होता है किन्तु प्रत्येक व्यक्ति की मानसिक प्रतिक्रिया बौद्धिक-शक्ति के भेद के कारण भिन्न होतर है। अतएव प्रत्येक व्यक्ति को जीवन में अपनी चिन्तन-शक्ति एंव संकल्प-शक्ति के जगाते रहने का प्रत्यन्न निरन्तर करना चाहिए तथा अपने स्वाभाव एंव सामर्थ्य तथा परिस्थितियों के अनुसार ही व्यवहार करना चाहिए।
प्रत्येक मनुष्य को अपने मानसिक दबाव और उससे उत्पन्न् तनाव के मूल कारण को अपने भीतर ही अर्थात अपनी चिन्तन-शैली एंव स्वभाव के भीतर ही खोजकर उसके समाधान का बुद्धिमतापूर्ण उपाय करना चाहिए। अतएव यह अत्यन्त आवश्यक है कि हम अपने विचारों और स्वभाव को पूरी तरह से जानें जिससे कि हम विवेक के सदुपयोग द्वारा अपने मानसिक दबावों का नियन्त्रण एंव निराकरण कर सकें। हमें आत्म-विश्लेषण द्वारा अपने गुण, अपने दोष, अपने विश्वास, अपनी आस्थाएं, मान्यताएं, अपने भय और चिन्ताएं, अपनी दुर्बलताएं, हीनताएं, अपनी समस्याएं, अपने दायित्व, अपनी अभिरुचि, सामर्थ्य और सीमाएं और सीमाएं जानकर अपने चिन्तन, स्वाभाव एंव जीवन-शैली में आवश्यक परिर्वतन लाने का प्रयत्न करना चाहिए। निश्चय ही हम अपनी बुद्धि के उपयोग से अपने चिन्तन, स्वभाव एंव कार्य-शैली में स्वस्थे परिवर्तन लाकर न केवल तनाव-मुक्त एंव सुखमय हो सकते हैं बल्कि अपने जीवन में दिशा-बोध होने पर अपने जीवन को आनन्दपूर्ण एंव कृतार्थ कर सकते हैं।

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