tag:blogger.com,1999:blog-47128361372466465952024-03-08T00:00:31.159-08:00Hindi StoryUnknownnoreply@blogger.comBlogger119125tag:blogger.com,1999:blog-4712836137246646595.post-13282427052906468192015-02-19T07:42:00.000-08:002015-02-19T07:42:07.743-08:00आनन्दमय जीवन by शिवानन्द (5)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="http://a.wattpad.com/cover/2739170-256-k4c41fde2.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://a.wattpad.com/cover/2739170-256-k4c41fde2.jpg" height="640" width="408" /></a></div>
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ध्यान का प्रथम चरण मौन है। ध्यान के परिप्रेक्ष्य् में मौन का अर्थ केवल वाणी का मौन ही नहीं है बल्कि बाहर से मन को हटाकर भीतर अपने विचारों और भावों का तटस्थ दर्शन करना भी है। आधुनिक युग में खाद्य-पदार्थों के प्रदूषण के अतिरिक्त वायु प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण मानव के लिए अभिशाप बन गए हैं। सड़कों पर कार आदि वाहनों के हार्न तथा स्थान-स्थान पर ध्वनि विस्तार (लाउडस्पीकर) का प्रयोग वातावरण को अनावश्यक शोर से भर देता है। मनोवैज्ञानिक ध्वनि प्रदूषण के बढते हुए खतरों से हमें सावधान कर रहे हैं। ध्वनि विस्तारकों के अति प्रयोग के कारण अनेक धर्रमस्थल भी अशान्ति स्थल हो गए हैं। वैज्ञानिक हमें ध्वनि प्रदूषण के दुष्परिणामों के प्रति सचेत कर रहे हैं। तीव्र रक्त धमनियों को कठोर और संकरा बना देती है तथा स्नायविक विकार उत्पन्न करती है। ध्वनि प्रदूषण का कुप्रभाव यकृत और पाचन क्रिया पर भी पड़ता है। तीव्र धवनि शोर से कार्यक्षमता तथा एकाग्रता भी नष्ट होती है। बाह्यय शोर अथवा शान्ति का मन की अवस्था पर गहन प्रभाव होता है। मानसिक शान्ति की कामना करनेवाल व्यक्ति को प्राय: कुछ समय तक एकान्त में मौन होकर बैठना चाहिए। अनेक महापुरुष सप्ताह में एक दिन मौन का अभ्यास करते हैं। मन पर नियंत्रण रखने के लिए मौन का अभ्यास करना अत्यन्त आवश्यक है।<br />
ध्यान की सहज, सरल और सुगम विधि यह है कि मनुष्य को प्रात: तथा सांय एक शान्त स्थान पर शरीर को ढीला करके संविधाजनक मुद्रा में बीस-पच्चीस मिनिट तक सुखद आसन पर नेत्र मूंदकर सीधा बैठना चाहिए। पैरों को मोड़कर सीधा बैठने से शुद्ध रक्त का प्रवाह मस्तिष्क की ओर अधिक हो जाता है। मन को अन्तर्मुखी करने के लिए नेत्रों का मूंदना आवश्यक होता होता है क्योंकि नेत्रों के खुले रहने से मन बाह्यय जगत् की ओर सहज ही दौड़ता है तथा अन्तर्मुखी नहीं हो सकता है। नेत्र मूंदे हुए ही पहिले मन में यह कामना करनी चाहिए कि प्रत्येक अंग शिथिल हो सकता है। तत्पश्चात् अपने भीतर ही मन को केन्द्रित करके ॐ (अथवा किसी लघु मंत्र) का समान गति से धीरे-धीरे मानसिक उच्चारण करते हुए भीतर ही उसे सुनने का प्रत्यत्न करना चाहिए। ॐ के उच्चारण में लय होना अन्यन्त महत्वपूर्ण होता है। मस्तिष्क के लिए लयपूर्ण मन्द ध्वनि स्वास्थ्यप्रद एंव शान्तिप्रद होती है। ध्यान के समय जब कभी मन उच्चारण (जपत्र् से हटकर विचार में लग जाए, उसे पुन: मानसिक उच्चारण एंव श्रवण में ही लगा देना चाहिए। प्रारम्भ में अनेक बार मन को इधर-उधर दौड़ने से वापिस लाकर ॐ के उच्चारण एंव श्रवण में लगाना होता है, किन्तु धैर्यपूर्वक इसका अभ्यास करते रहने पर कालान्तर में उच्चारण और श्रवण सहज एंव निर्बाध हो जाता है।<br />
प्राय: सभी की शिकायत होती है कि ध्यान के अभ्यास में मन इधर-उधर भागता रहता है तथा स्थिर नहीं होता। वास्तव में ध्यान (मेडीटशन) हमारे अवधान (एटेनशन) की मात्र एकाग्रता (कान्सेंट्रेशन) ही नहीं होता। नेत्र मूंदकर ध्यान में बैठने पर मन, चेतन स्तर पर चचंल रहते हुए भी, अवचेतन स्तर शान्ति की दिशा में अग्रसर हो जाता है। ध्यान के समय जो भी भाव अथवा विचार उभर कर आता है, उसके संबंध में उतेजना का क्षय होने लगता है तथा अनासक्ति का उदय हो जाता है। ध्यान के समय बार-बार मंत्र पर लौटते हुए सूक्ष्म स्तर पर जाते हुए मंत्र और विचार दोनों लुप्त होने लगते हैं। मन की उछलकूद बन्द होने पर मन निश्चल हो जाता है तथा मानों वह बैठने लगता है। स्तब्ध्ता की अवस्था में शरीर भी मन के साथ ही तनावरहित और ढीला होने लगता है ताा परम विश्राम की अवस्था में भीतर शान्ति का मीठा आभास होने लगता है।<br />
पर्याप्त काल तक नित्य-प्रति ध्यान का नियमित अभ्यास करने से चेतन स्तर पर मन को दिव्य शान्ति का अनुभव होने लगता है। ध्यान के काल मे ऐसे अमृतमय क्षण आते हैं ॐ के उच्चारण और श्रवण का सहसा लोप हो जाने पर मनुष्य का निर्विचार मन अनिर्वचनीय आनन्द के सागर में निमग्न हो जाने पर मनुष्य को चैतन्य सता के अमृतमय संस्पर्श की गहन आनन्दनुभूति के अतिरिक्त अन्य कोई बोध नहीं होता। अमृतमय क्षणों का यह अनुभव मनुष्य को कुण्ठा, निराशा, आक्रोश एंव उतेजना से उन्मुक्त कर देता है तथा मन में सात्विक ओज का संचार हो जाता है। परिणामत: मनुष्य जीवन की संकरी डगर पर डगमगाता नहीं है और साहसपूर्ण सीधा चल सकता है। ध्यान के अभ्यास से कालान्तर में मन को दूषित करनेवाले काम, ईष्या, द्वेष्, घृणा, क्रोध, लोभ, मोह, निराशा, चिन्ता, भ्य इत्यादि विकारों का शमन होने पर मनुष्य सन्तुलित, सम और शान्त हो जाता है तथा चित की एकाग्रता-शक्ति बढ़ जाती है। पुरानी भूलों तथा शोक, हानि और अपमान की दु:खद घटनाओं के क्लेशप्रद संस्कार निष्प्रभाव हो जाते हैं तथा मनुष्य उनका स्मरण होने पर उद्विग्न नहीं होता। उतेजना और भय शान्त हो जाते हैं तथा क्रोध की अग्नि भी शान्त हो जाती है।<br />
ध्यान का अभ्यास करने से मनुष्य को अगणित लाभ होते हैं। ध्यान के अभ्यास द्वारा हाइपोथेलमस ग्रंथि के सक्रिय हो जाने से नाडियों की उतेजना शान्त हो जाती हे तथा पीयूष ग्रंथि (पिट्युटरी ग्रंथि) के सक्रिय हो जाने से नाडियों की कार्यक्षमता बढ जाती है जिससे अनेक रोग दूर हो जाते हैं। ध्यान का अभ्यास मनुष्यकी षबराहट, अकेलानप, भविष्य का भय, चिड़चिड़ापन, व्याकुलता और तनाव को दूर देता है तथा मन शान्त, सम और सन्तुलित हो जाता है। ध्यान का तत्काल फल यह होता है कि मनुष्य देर तक ताजगी का ऐसे ही अनुभव करता है जैसे जल में ड़बकी लगाने से देर तक शीतलता का अनुभव होता है। प्रात: काल ध्यान करने से मानों दिनभर के क्रियाकलापों के लिए तैयार हो जाता है। यथासंभव ध्यान का अभ्यास खालीपेट करना चाहिए। ध्यान का अभ्यास करने पर मनुष्य में आत्म-सुधार एंव आत्म-निर्माण के लिए आन्तरिक उत्साह उत्पन्न हो जाता है।<br />
मौन ध्यान का आवश्यक तथा महत्वपूर्ण पूरक है जिसका अभ्यास ध्यान से पूर्व अथवा कभी-कभी स्वतंत्र रुप से एकान्त में सीधा बैठकर तथा नेत्र मूंदकर कुछ मिनिटों तक करना मन को सन्तुलित, सम और शान्त करने के लिए अत्यन्त सहायक होता है। मौन का एक उद्देश्य अपने विचारों और उद्वेगों का तटस्थ होकर देखना है तथा कभी-कभी आत्मनिरीक्षण द्वारा अपने विचारों, उद्वेगों को समझकर उन्हें दिशा भी देना है। विचारों और उद्वेगों के समाधान द्वारा ही मन का नियन्त्रण भी विचारों से ही हो सकता है। अतएंव मन को सन्तुलित, सम, शान्त तथा सशक्त करने के लिए एकान्त में विचारों को सुलझाना ही युक्तियुक्त है। मनुष्य अपने विचार, स्वभाव, गुण, दोष, सामर्थ्य, क्षमता आदि को भली प्रकार जानकर ही अपने व्यक्तित्व में आवश्यक परिवर्तन ला सकता है। अपने-आप जानना सारे संसार को जान लेने की अपेक्षा आवश्यक एंव उपयोगी है।<br />
अपने मन को नियन्त्रित कर लेना मनुष्य की एक महान् उपलब्धि होती है। मन को नियन्त्रित एंव एकाग्र करने का गुण जीवन के समस्त क्षेत्रों में सफलता प्राप्त करने का सशक्त मन्त्र है। मन क्या है ? वास्तव मे विचारों का निरन्तर प्रवाह ही मन है। प्राय: विचारों का जन्म ज्ञानेन्द्रियों (नेत्र, नासिका, कर्ण, जिह्वा और त्वचा) के साथ संसार के बाह्यय पदाथों का संस्पर्श होने पर मस्तिष्क में होता है। इसके अतिरिक्त मस्तिष्क के अवचेतन स्तर से बुलबुलों अथवा लहरों के स्पर्श नए-नण् विचार उठकर भी चेतन स्तर पर आते रहते है।</div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4712836137246646595.post-1052511299866726732015-02-19T07:41:00.002-08:002015-02-19T07:41:48.832-08:00आनन्दमय जीवन by शिवानन्द (4)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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गहन मानसिक शान्ति प्राप्त करने के लिए ‘ध्यान’ प्रक्रिया का अभ्यास ही श्रेष्ठ है। संसार में प्रगतिशील देशों के सभी ह्रदय-रोग विशेषज्ञ एकमत हैं कि नित्य-प्रति दो बार ध्यान का अभ्यास करना मनुष्य को न कवल मानसिक तनाव से मुक्त करके मस्तिष्क को शान्त एंव सशक्त बनाता है तथा ह्रदय को रोग-मुक्त एंव स्वस्थ कर देता है बल्कि जीवन में एक अनिर्वचनीय रसमयता का संचार भी कर देता है तथा मनुष्य का जीवन उंमग और उल्साह से भर जाता है। ध्यान का अभ्यास करनेवाला मनुष्य अपनी सभी समस्याओं का समाधान करने मे सक्षम हो जाता है। वह कभी उतेजित एंव उद्विग्न नहीं होता तथा कठिन परिस्थितियों के साथ घोर संघर्ष करने के लिए तैयार रहता है। वह दूसरों के साथ व्यवहार करने में झुंझलाता नहीं है तथा ककठिन दायित्व से भी नहीं घबराता है। वह स्वयं को कभी अकेला और असहाय नहीं करता तथा उत्साहपूर्ण रहता है।<br />
विकास क्रम के अन्तर्गत मानव-बुद्धि का प्रादुर्भाव एंव विकास एक जटिल प्रक्रिया से हुआ है। मानव का मस्तिष्क पशुओं की मस्तिष्क की अपेक्षा अधिक बड़ा होता है तिा उसका ढ़ांचा भी भिन्न है। शक्ति होना है। मानव-मस्तिष्क का नेत्रों से विशेष सम्बन्ध होता है तथा उसके क्रियाकलापों का प्रभाव ह्रदय पर तत्काल होता है। भव्य प्राकृतिक दृश्यों, सन्तों एंव प्रियजन का दर्शन, चिन्तन तथा ध्यान मस्तिष्क एंव ह्रदय की संजीवनी होता है।<br />
हमारे देश में ध्यान की अगणित पद्धतियां प्रचलित हैं तथा सभी उपयोगी हैं किन्तु कुछ पद्धतियां अत्यन्त सुगम और सरल हैं सभी का उद्देश्य अपने भीतर जागरण, आत्म-विश्वास एंव दृढ़ता की स्थिति उत्पन्न करना है। यद्यपि ध्यान-प्रक्रिया सीखने के लिए एक कुशल शिक्षक की सहायता लेना लाभकारी हाता तथापि मनुष्य स्वयं भी अभ्यास के द्वारा ध्यान की एक उतम अवस्था प्राप्त कर सकता है। ध्यान-प्रक्रिया का अभ्यास मानव-मस्तिष्क की परमौषधि है तथा इसके परिणाम कल्पनातीत हैं। ध्यान के अभ्यास से मनुष्य की जिजीविषा (जीने की इच्छा जो संकल्प-शक्ति अथवा इच्छा-शक्ति के साथ जुड़ी होती है) का सम्बन्ध अपने भीतर गहरे स्तर पर ऊर्जा क अक्षय एंव अजस्त्र स्त्रोत से हो जाता है जो मनुष्य के सर्वागीण विकास एंव आनन्द का एकमात्र रहस्य हैं। किसी आध्यात्मिक गुरु का समाश्रय प्राप्त करना तो घोर आतप में महान् वट वृक्ष की सुशीतल छाया में बैठने के सदृश होता है। ‘ध्यान’ के महत्व को सभी महान् धर्मों ने अपने-अपने ढंग से स्वीाकर किया है। सारे संसार में ध्यान की अगणित पद्धनियों का प्रचलन होने से ध्यान काक महत्व निर्विवाद है। बौद्ध ग्रन्थों में ध्यान की विपश्यना पद्धति का विस्तृत विवरण है तथा उसके कुशल प्रशिक्षक उसके प्रचार में जुटे हुए हैं। जैन सन्तों द्वारा प्रचारित प्रेक्षाध्यान पद्धति भी अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुई है। यह सुखद आश्चर्य है कि आस्तिक धर्माचार्यों की भांति ही अनेक घोर नास्तिक विद्वान भी अपने-अपने ढंग से ध्यान की उपादेयता को स्वीकार करके उसका उपदेश कर रहे हैं।<br />
ध्यान का अभ्यास मनुष्य के शारीरिक एंव मानसिक स्वास्थ्य के लिए निद्रा की भाति अन्यन्त महत्वपूर्ण एंव आवश्यक है। प्रगाढ निद्रा के सदृश ध्यान के द्वारा मनुष्य सब कुछ भूलकर तथा विचारशून्य होकर विश्राम का लाभ उठाता है। किन्तु वास्तव में ध्यान का अर्थ रिक्तता अथवा शून्यता नहीं है तथा उसका उद्देश्य गहन विश्राम प्राप्त करना भी नहीं है बल्कि मन की बाहर की ओर दौड़ने की क्रिया को विपरित दिशा में लाकर उसे भीतर ही दिव्य चैतन्यामृत अथवा विचारों के आनन्दमय मूल स्त्रोत से जोड़ना है। मनुष्य का मन अवचेतन स्तर से भी परे शुद्ध चेतना के सागर का संस्पर्श करके जीवन की भव्यता के दर्शन से संतृप्त हो जाता है। ध्यान चित की एकाग्रता भी नहीं है बल्कि बौद्धिक ज्ञत्श्र से परे उसका गहन आन्तरिक चेतना से जुड़ जाना है। ध्यान-प्रक्रिया में मन कुछ समय के लिए सम, स्थिर और सुशान्त हो जाता है जिसकी उपमा वायुरहित स्थान में सम, स्थिर और प्रशान्त से दी गई है। ध्यान-प्रक्रिया में मनुष्य आन्तरिक करता है।</div>
Unknownnoreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4712836137246646595.post-3667622949659040892015-02-19T07:41:00.001-08:002015-02-19T07:41:31.222-08:00आनन्दमय जीवन by शिवानन्द (3)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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परिवर्तन प्रकृति का नियम है। विश्व के कण-कण में प्रतिक्षण निरन्तर परिवर्तन होता रहता है तथा सर्वत्र उत्पति, विकास और विनाश का क्रम अबाध गति से चलता रहता है। मनुष्य के शरीर मे भीतर तो निरन्तर परिर्वतन होता ही रहता है, बाह्यय जगत् में भी परिस्थितियों में परिवर्तन चलता रहता है। यद्यपि परिवर्तन होना प्रकृति का एक अपरिहार्य नियम है, मनुष्य को उतम परिवर्तन में भी मानसिक दबाव का अनुभव होता है। मनुष्य नए अच्छे पद पर, नए अच्छे मकान मे जाते समय अथवा असाधारण सत्कार पाकर प्रसन्न होते हुए भी मानसिक दबाव का अनुभव करता है तथा परिस्थिति के दु:खद परिवर्तन (विफलता, आर्थिक हानि, अपमान, प्रियजन की मृत्यु इत्यादि) होने पर तो भयानक मानसिक दबाव का सामना करता है। <br />
प्राय: असाधारण मानसिक दबाव के कारण होते हैं : अपने विभाग मे उच्चस्थ अधिकारी का रुष्ट हो जाना, मुकदमा होना, अकसमात् धन-हानि होना, अपने पुत्र, पुत्री, मित्र आदि किसी प्रियजन का वियोग होना, किसी घनिष्ठ व्यक्ति की मृत्यु होना, अपने प्रति किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति के व्यवहार मे रुक्षता अथवा कटुता हो जाना, जीविका का साधन न होना, सेवा-निवृति होना, नौकरी छूट जाना, बेसहारा हो जाना, रोगग्रस्त् हो जाना, अपने परिवार में पति-पत्नी, भाई-बहन, भाई-भाई, पिता-पुत्र आदि में परस्पर मनमुटाव महो जाना, प्रेम-प्रसंग का सहसा टूट जाना, आशा भंग होना, विश्वासघात होना, विफलता होना, भविष्य अंधकारमय दीखना, उपेक्षा अथवा अपमान होना, कोईबड़ी भूल अथवा त्रुटि होना इत्यादि। विवेक द्वारा इनका समाधान करना बुद्धि की पराजय है।<br />
आधुनिक युग में निरन्तर अति व्यस्त रहनेवाला मनुष्य परिश्रम और विश्राम का सही सन्तुलन स्थापित न करने के कारण ह्रदयाघात को सहज ही आंमत्रित कर लेता है। परिश्रम करना मनुष्य के स्वास्थ्य, सुख और शान्ति के लिए आवश्यक होता है किन्तु थककर भी परिश्रम करने रहना अपने साथ अन्याय एंव अत्याचार करना है। मनुष्य को थकान होने पर तुरन्तकाम करना बन्द करके शिशिलन, कार्य-परिवर्तन अथवा मनोरंजन द्वारा विश्राम कर लेना चाहिए। कभी-कभी निर्धारित समय के भीतर ही कार्य को निपटाना होता है किन्तु ऐसी स्थिति में भी बीच-बीच में शिशिलन द्वारा विश्राम कर लेना अत्यन्त आशवश्यक होता है। अथक परिश्रम द्वारा पदोन्नति अथवा समृद्धि-प्राप्ति की जल्दबाजी में अगणित युवक ह्रदयघात के शिकार हो जाते हैं। क्षमता से अधिक कार्यभार वहन करते रहना घातक सिद्ध होता है। पशु-पक्षी भी शिशिलन एंव विश्राम करना जानते है। कुते और बिल्ली लम्बी-सी अगंड़ाई लेकर फैलते और सिकुड़ते हुए, गधे मिट्टी में लेटका बार-बार करवट लेते हुए तथा बन्दर नेत्र मूंदकर बैठे हुए मानो मनुष्य को शिशिलन की शिक्षा देते हैं।<br />
कार्य को निपटाते समय बीच-बीच में पांच-सात-मिनट के लिए अल्प निद्रा (झपकी) का अभ्यास होना अत्यन्त लाभकारी होता है। शिशिलन के अभ्यास से मानसिक दबाव, रक्तचाप-वृद्धि इत्यादि से तो मुक्ति मिलती ही है, मनुष्य की कार्य-दक्षता भी बढ़ती है। विश्राम खोयी हुई ऊर्जा को वापिस लाकर मनुष्य का तुरन्त ताजा बना देता है। मनुष्य यह अभ्यास कर सकता है कि जब भी उसे आवश्यकता हो, वह शिशिलन द्वारा लघु-विश्राम करके अपने मस्तिष्क को सचेतन बनाकर शरीर पर पूर्ण नियन्त्रण कर ले। लघु विश्राम की अनेक विधि हैं तथा मनुष्य किसी भी उपयुक्त विधि का अभ्यास कर सकता है। उदाहरणार्थ हम थकान का संकेत होने पर अल्प काल के लिए कात रोककर बैठे हुए ही शरीर को पर्याप्त विश्राम दे सकते हैं। लघु-विश्राम का दूसरा प्रकार यह हो सकता है कि हम कुर्सी अथवा सोफा पर ही सुखद मुद्रा में पीछे सहारा लेते हुए बैठे जायें, नेत्र बन्दकर किसी सुन्दर प्राकृतिक दृश्य की कल्पना द्वारा अपने मन तथा सारे देह में शान्ति-संचार का अनुभव करें और आठ-दस मिनिट बाद धीरे-धीरे नेत्र खोल लें। थकान का अनुभव होते ही किसी भी समय हम ऐसे लघु-विश्राम द्वारा देह में ऊर्जा का संचार तथा मन में शान्ति का अनुभव कर सकते हैं।<br />
नित्य-प्रति शिशिलन प्रक्रिया का प्रात: तथा सांय अभ्यास करने से मनुष्य मानसिक दबाव एंव तनाव से मुक्त रह सकता है।<br />
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1. दैनिक अभ्यास के लिए मनुष्य को एक नीरव एंव शान्त स्थान पर नेत्र बन्दकर विश्राम की मुद्रा में बैठना चाहिए तथा लगभग पन्द्रह मिनिट तक प्रत्येक लम्बे श्वास के साथ, श्वास पर ध्यान रखते हुए, एक से दस तक गिनना चाहिए।<br />
2. अथवा नेत्र मूंदकर लेटे पैर से सिर तक सब अंगों को मन से देखते हुए शिशिल करके लगभग पन्द्रह मिनिट तक किसी सुन्दर दृश्य की अथवा किसी महान् सन्त के शान्त स्परुप की कल्पना करनी चाहिए और शान्ति का अनुभव करते हुए, कभी-कभी मन में ही स्वयं से कहना चाहिए, "मैं चिन्ता विमुक्त हो गया हूं, मुझे गहन शान्ति मिल गई है, मैंने शान्ति प्राप्त करेन की विधि जान ली है। "ऐसा करते समय अल्प निद्रा आ सकती है जो मनुष्य को बहुत ताजगी दे सकती है।<br />
3. अथवा पन्द्रह-बीस मिनिट तक शव की भांति निस्स्पन्द लेटकर मन को विचारों से रिक्त करके चारों ओर प्रकाश देखने की कल्पना करते रहना चाहिए तथा यदि अल्प निद्रा आ जाए तो उसका स्वागत करना चाहिए। अल्प निद्रा के उपरान्त धीरे-धीरे नेत्र खोलते हुए और ताजगी का अनुभव करते हुए मनुष्य को कुछ उतम आशाजनक कल्पना करती चाहिए।</div>
Unknownnoreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4712836137246646595.post-1098153533916318322015-02-19T07:41:00.000-08:002015-02-19T07:41:12.110-08:00आनन्दमय जीवन by शिवानन्द (2)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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मानसिक तनाव एंव अवसाद से जुड़ा हुआ ही ह्रदय-रोग है जो आज मनुष्य-जाति के सर्वाधिक प्राणलेवा रोगों में प्रमुख है। चिकित्सा-वैज्ञानिकों का मत है कि ह्रदय-रोग के कारणों के निवारण द्वारा इसकी रोकथाम करना अत्यन्त सरल है। यद्यपि दोषपूर्ण भोजन-विधि, मद्यपान, धूम्रपान, मादक पदार्थों का सेवन तथा विश्रामरहित परिश्रम इत्यादि ह्रदय-रोग के कारणों के निदान एंव जीवन-शैली में परिवर्तन लाने की आवश्यकता प्रमुख तथा प्रथम है क्योंकि चिन्तन द्वारा ही जीवन-शैली में परिर्वतन लाना और आदतों का नियंत्रण करना संभव हो सकता है।<br />
मनुष्य चिन्तन एंव अभ्यास द्वारा अपने मन की उतेजना तथा विचारों के वेग को नियंत्रित करके अपने मन को स्थिर, सम और शान्त कर सकता है। जो मनुष्य खाते-पीते, बोलते-बैठते-उठते, मल-मूत्र विसर्जन करते अथवा कुछ भी करते हुए चिन्तन को स्वस्थ दिशा देने का प्रयत्न करता रहता है, उसका निरन्तर सुधार भी अवश्य होता रहता है और वह मानसिक उलझनों से मुक्त होकर शान्ति प्राप्त करने की दिशा में बढ़ता ही रहता है। मानसिक शान्ति सदैव स्वस्थ चिन्तन, विवेकपूर्ण आचरण एंव निरंन्तर सजगता का प्रतिफल होती है। अपने चिन्तन और जीवन-पद्धतिको सीधे रास्ते पर लगाकर अपने को संभालना और सुप्रसन्न रहना न केवल अपनी सच्ची सेवा है, बल्कि संसार का भी उपकार है। हमें इसके लिए कृतसंकल्प होकर आज और अभी से प्रसन्न करना चाहिए। जीवन को सवारंने के लिए अभी देर नहीं हुई है। चिन्तन-शैली एंव जीवन-शैली के परिवर्तन द्वारा ज्यों-ज्यों मानसिक शान्ति प्राप्त करने में सफलता मिलेगी, त्यों-त्यों आत्मविश्वास बढ़ेगा, दृढता आयेगी, व्यक्तित्व मे आकर्षण उत्पन्न होगा और मनुष्य का चतुर्दिक प्रभाव बढेगा।<br />
मनुष्य के सामने ऐसी परिस्थिति प्राय: आती ही रहती है, जब उसका जीवन संकट में होता है तथा मानसिक दवाब (स्ट्रेस) के अतिरेक के कारण उसे यह निर्णय लेना होता है कि वह डटकर संघर्ष करे अथवा चुपके से भागकर कहीं मुंह छिपा ले। संकटमय परिस्थिति में मनुष्य का सम्पूर्ण देह-यन्त्र अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए सक्रिया हो जाता है। प्रकृति देहधारी प्राणी को आत्मरक्षा के लिए प्रेरित करती है। आत्मरक्षा करना जीवनमात्र का नैसर्गिक स्वभाव है तथा आत्मपीडन स्वभाव-प्रतिकूल है। वैज्ञानिकों का मत है कि हमारे स्वस्थ चिन्तन तथा आशा और विश्वास को जगाने से हमारी भव्य कल्पनाओं के द्वारा देह मे प्रबल जैविक रासयनिक प्रक्रियाएं प्रारम्भ हो जाती हैं जो मस्तिष्क तथा देह की सम्पूर्ण कोशिकाओं को जुझारु बनाकर प्रतिरक्षा करने में सक्रिय कर देती हैं। अतएव आवश्यकता है स्वस्थ चिन्तन, धैर्य तथा इच्छा-शक्ति की। मनुष्य समस्त प्राणियों में अग्रणी है, क्योंकि वह तर्कशक्ति से युक्त बुद्धि का धारक है। वह बुद्धि के सदुपयोग द्वारा न केवल स्वयं सुरक्षित एंव सुखी रह सकता है बल्कि समस्त जल-समाज को भी सुरक्षित एंव सुखी कर सकता है।<br />
यद्यपि नई-नई परिस्थितियों के उत्पन्न होते रहने के कारण मानसिक दवाब का भी होते रहना जीवन का अपरिहार्य अंग है, मनुष्य बुद्धि के द्वारा अवश्य की उसका निराकरण कर सकता है तथा निरन्तर उंमग और उत्साह से परिपूर्ण होकर जीवन को आह्लादमय बना सकता है। आधुनिक सभ्यता का यह अभिशाप है कि मनुष्य के जीवन में केवल बाहय परिस्थिति ही दवाब उत्पन्न करके नहीं करती बल्कि वह स्वयं भी काल्पनिक एंव मिथ्या दवाब उत्पन्न करके अपने को अकारण ही पीड़ित करने लगता है। मनुष्य विवेकपूर्ण और निरन्तर सजगता से निश्चय ही उमंग भरा जीवन बिता सकता है।<br />
जब मानव मस्तिष्क को कोई उतेजनापूर्ण सन्देश मिलता है, कुछ ग्रन्थियों मे तत्काल स्राव प्रारम्भ हो जाता है जिसके प्रभाव से सारे देह यन्त्र में विशेषत: ह्रदय तथा रक्त-संचार में एक उथल-पुथल-सी मच जाती है जिसका आभास नाडी के भड़कने से होने लगता है। ह्रदय शरीर का अत्यन्त संवेदनशील अंग है तथा सारे जीवन बिना क्षणभर विश्राम किए हुए ही निरन्तर सक्रिय रहकर समस्त अवयवों को रक्त तथा पोषक तत्वों की आपूर्ति करता है। मस्तिष्क का अत्याधिक दवाब ह्रदय में इतनी धड़कन उत्पन्न कर देता है कि उसे सहसा आघात (हार्ट एटैक) हो जाता है। <br />
यद्यपि ह्रदय आघात के कारण अनेक हैं तथापि दवाब ही आघात का प्रमुख कारण है। पुष्टिप्रद भोजन लेते रहने पर भी मानसिक दवाब ह्रदय को आहत कर देता है। दीर्घकाल तक मानसिक दवाब एंव तनाव के रहने पर पेट में व्रण (पेप्टिक अल्सर), भयानक सिरदर्द (माइग्रेन), अम्लपित (हाइपर एसिडिटि), त्वचा-रोग इत्यादि भी उत्पन्न हो जाते हैं।<br />
मनुष्यों में व्यक्तिगत भेद होते हैं तथा बाहय परिस्थितियों को ही सारा दोष देना उचित नहीं है। कुछ लोग अन्यन्त विषम परिस्थिति में भी पर्याप्त सीमा तक सम और शान्त रहते हैं तथा कुछ अन्य साधारण-सी विषमता में भी अशान्त हो जाने के कारण सहसा भीषण ह्रदय-रोग से आहत हो जाते हैं। अतएव यह स्पष्ट है कि मनुष्य का दोषपूर्ण स्वभाव अथवा दोषपूर्ण चिन्तन ही ह्रदयघात का प्रमुख कारण है। कुछ लोगों के स्वभाव मे बहुत जल्दबाजी होती है। वे घर में हों अथवा कार्यालय में हों अथवा पिकनिक स्पाट पर कहीं मनोरंजन हेतु गए हों, उन्हें जल्दबाजी लगी रहती है और वे बार-बार घड़ी को देखकर समय का हिसाब लगाते हुए मानसिक तनाव में ही जाते हैं। उन्हें छोटी-छोटी बातों पर झुंझलाहट हो जाती है तथा वे थोड़ी-सी प्रतिकूलता में उतेजित, उद्विग्न ओर निराश हो जाते हैं। वे अपने परिवार अथवा पड़ोस के साथ मिलकर रहने के बजाए नित्य-नई समस्याएं उत्पन्न करते रहते है। वे बहुत तेजी से और जोर से बातें करते हैं तथा मनोरंजन अथवा किसी प्रकार के मानसिक शिथलीकरण में रुचि न लेकर तनावग्रस्त् ही बने रहते हैं। किन्तु इसके विपरित कुछ ऐसे लोग होते हैं जो अपने कर्तव्य-पालन में तत्पर एंव सावधान रहकर भी न कोई जल्दबाजी करते हैं और न बात-बात में अधीर एंव निराश होते है। ये अपने भीतर आश्वस्त होकर सहजभाव में व्यवहार करते है तथा कभी उद्विग्न होकर भड़कते नहीं हैं। ऐसे लोग मानसिक दवाब, दवाब से उत्पन्न तनाव और ह्रदयाघात से मुक्त रहते हैं। वास्तव में मानसिक दवाब होना ही बुद्धि की हार है, चिन्तन की हार है तथा अविवेक है जिसे छोड़कर मनुष्य को हठ खड़ा होना चाहिए।<br />
हमें यह समझ लेना चाहिए कि प्राय: मानसिक दवाब बाहय परिस्थिति की प्रतिक्रिया होता है किन्तु प्रत्येक व्यक्ति की मानसिक प्रतिक्रिया बौद्धिक-शक्ति के भेद के कारण भिन्न होतर है। अतएव प्रत्येक व्यक्ति को जीवन में अपनी चिन्तन-शक्ति एंव संकल्प-शक्ति के जगाते रहने का प्रत्यन्न निरन्तर करना चाहिए तथा अपने स्वाभाव एंव सामर्थ्य तथा परिस्थितियों के अनुसार ही व्यवहार करना चाहिए।<br />
प्रत्येक मनुष्य को अपने मानसिक दबाव और उससे उत्पन्न् तनाव के मूल कारण को अपने भीतर ही अर्थात अपनी चिन्तन-शैली एंव स्वभाव के भीतर ही खोजकर उसके समाधान का बुद्धिमतापूर्ण उपाय करना चाहिए। अतएव यह अत्यन्त आवश्यक है कि हम अपने विचारों और स्वभाव को पूरी तरह से जानें जिससे कि हम विवेक के सदुपयोग द्वारा अपने मानसिक दबावों का नियन्त्रण एंव निराकरण कर सकें। हमें आत्म-विश्लेषण द्वारा अपने गुण, अपने दोष, अपने विश्वास, अपनी आस्थाएं, मान्यताएं, अपने भय और चिन्ताएं, अपनी दुर्बलताएं, हीनताएं, अपनी समस्याएं, अपने दायित्व, अपनी अभिरुचि, सामर्थ्य और सीमाएं और सीमाएं जानकर अपने चिन्तन, स्वाभाव एंव जीवन-शैली में आवश्यक परिर्वतन लाने का प्रयत्न करना चाहिए। निश्चय ही हम अपनी बुद्धि के उपयोग से अपने चिन्तन, स्वभाव एंव कार्य-शैली में स्वस्थे परिवर्तन लाकर न केवल तनाव-मुक्त एंव सुखमय हो सकते हैं बल्कि अपने जीवन में दिशा-बोध होने पर अपने जीवन को आनन्दपूर्ण एंव कृतार्थ कर सकते हैं।</div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4712836137246646595.post-50474853733160055692015-02-19T07:40:00.000-08:002015-02-19T07:40:53.354-08:00आनन्दमय जीवन by शिवानन्द<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://a.wattpad.com/cover/2739170-256-k4c41fde2.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://a.wattpad.com/cover/2739170-256-k4c41fde2.jpg" height="640" width="408" /></a></div>
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जीवन इस सृष्टि का सबसे बड़ा चमत्कार है। जीवन पाकर असंख्य पक्षी विशाल व्योम में पंख फैलाकर उड़ते हैं और आनन्दमय होकर कलवर करते हैं। जीवन का स्फृरण होने पर ही अगणित पशु वनों में विहार करते हैं। और वन की शोभा बन जाते हैं। जीवन-स्फुरण से उल्लसित होकर ही कोटि-कोटि जलचर जल में विचरण करते हैं तथा सागरों की श्रीवृद्धि करते हैं।<br />
जीवन सृष्टि का सर्वोतम धन है तथा अनुपम तत्व है। यदि जीवनधारी प्राणी न हों तो इस विशाल सृष्टि में जल, थल और नभ की उपादेयता ही क्या रहेगी ? सृष्टि जीवन का अस्तित्व होने के कारण ही कृतार्थ है। जीवन से बढ़कर कहीं भी कुछ और गौरवमय नहीं है।<br />
सृष्टि के श्रृंगारभूत मानव को यह सौभाग्य मिला है कि जीवन उसके माध्यम से ही चरमोत्कर्ष को प्राप्त हसे सका तथा वह जल, थल और नभ पर शासन करने में समर्थ हो गया। प्रकृति नटी मानव की रचना द्वारा कृत-कृत्य हुई। मानव ने बुद्धिमता से प्रकृति के मूलभूत तत्वों तथा जीवन के रहस्यों की खोज में सलंग्न होकर अपनी अस्मिता को प्रतिष्ठि कर दिया। मानव ने बौद्धिक शक्ति के द्वारा विज्ञान और दर्शन की असीमराशि का संचय किया, सौन्दर्यबोध, संवेदनशीलता और कल्पना-शक्ति के द्वारा साहित्य एंव विविध कलाओं का सर्जन किया, करुणार्द्रता रहस्मय दिव्य वृति के द्वारा अनेक धर्मों को उदभूत किया। समस्त संस्कृति और सभ्यता का प्रादुर्भाव मानव की बुद्धि के आधार पर ही हुआ है। मानव ने संस्कृति और सभ्यता के विकास द्वारा जीवन में सौन्दर्य समावेश कर दिया है।<br />
जीवन एक परम सुन्दर एंव परम भव्य ततव हैं। जीवन की संरक्षा तथा जीवन का सौन्दर्यीकरण करना मानव का न केवल दायित्व है बल्कि उसकी एक गहरी मांग भी है। ज्ञान, विज्ञान, दर्शन, कला, साहित्य इत्यादि विविध क्षेत्रों में जीवन को सुन्दर एंव भव्य बनाने का प्रयत्न करनेवाले मनुष्यों के प्रति समस्त मानव-जाति ऋणी है। अनन्त है मानव-जीवन का आकर्षण और अनन्त है उसकी भव्यता।<br />
वास्तव में समस्त सृष्टि सौन्दर्य से परिपूर्ण है तथा मानव-जीवन में आकर्षण और भव्यता का कोई अन्त नहीं है। प्रकृति ने मनुष्य को अपना जीवन संवार कर उसे सौन्दर्य से भरपूर करने की अनन्त क्षमता भी दी है। जीवन अनमोल है और उल्लासमय एंव भव्य होने की असीम संभावनाओं से भरा पड़ा है। मनुष्य और जन-समाज इस धराधाम को जीता-जागता स्वर्ग बना सकते हैं। जीवन एक ऐसा दुर्लभ तत्व है कि वैज्ञानिकों के अथक प्रयास होने पर भी उन्हें पृथ्वी के अतिरिक्त इस विशाल विश्व में कहीं किसी अन्य ग्रह पर जीवन का अस्तित्व होने के लक्षण अभी तक नहीं मिले हैं। मनुष्य को यह विशेषाधिकार प्राप्त है कि वह जीवन के तथा सृष्टि के रहस्यों की खोज कर जीवन को समृद्ध बना सकता है।<br />
जीवन सचमुच एक वरदान है, प्रकृति का अनुपम उपहार है जिसके बुद्धिसंगत उपयोग द्वारा मनुष्य उसे सार्थक एंव आनन्दमय बना सकता है। जीवन एक ऐसी निधि है जिसका अल्प सदुपयोग भी मनुष्य को गहन तृप्ति देकर धन्य बना सकता है किन्तु किसी अमूल्य हीरे का महत्व न समझकार अविवेकी मनुष्य दीन और दरिद्र रहकर दयनीय हो जाता है। अनएव प्रथम आवश्यकता है इस अप्रतिम जीवननिधि की महता जानने और समझने की तथा उसका सम्मान और सुरक्षा करने की।<br />
इस संसार में केवल प्रकृति में ही आकर्षणों और सौन्दर्य-बिन्दुओं का सर्जन किया है। यदि हम तनिक नेत्र खोलकर देखें तो चारों ओर अनन्त चिताकर्षक एंव सौन्दर्यपूर्ण दृश्यावली की नयनाभिराम छटा दृष्टिगोचर होगी। कहीं प्राकृतिक शोभा के भण्डार, विशाल एंव विस्तीर्ण पर्वतों की ध्यानाविष्ट-सी शैलमाला हैं जिनके धवल हिमाच्छादित उच्च शिखर उदीयमान सूर्य की प्रखर रश्मियों के स्पर्श से उदभासित होकर स्वर्णिम प्रतीत होते हैं। कहीं वनों में विविध प्रकार के बृहद्काय एंव लघुकाय वृक्ष और विविध स्वादयुक्त फल, उपवनों में विविध प्रकार के रंग-बिरंगे पुष्पगुच्छ, कोमल लताओं के विस्तृत जाल और मदमत भ्रमरो का मधुर गुंजन तथा कहीं कलकल निनादिनी पयस्विनी नदियां, नद और निर्झर हमारे चित का हरण कर लेते हैं। कहीं दुग्धतुल्य श्वेत फेन से सुशोभित उताल तरंगों को असंख्य भुजाओं के सदृश निरन्तर उठाते और गिराते हुए अथाह समुद्रों में अनन्त प्रकार के जलचर तथा विलक्षण रत्न मन को मुग्ध कर देते हैं। उषाकालहन तथा अस्तकालीन ताम्रवर्ण सूर्य अत्यन्त मनोहारी प्रतीत होता है। नील गगन मे नाना आकृति धारण किये हुए श्वेत और श्याम मेघों की कलाएं अत्यन्त मनोरम दृश्य प्रस्तुत करती हैं। रात्रि के निरभ्र आकाश में असंख्य तारागण के मध्य में संचरण करता हुआ चारु चन्द्र चित का हरण कर लेता है।<br />
मनुष्य ने भी अपनी सौन्दर्यप्रियता एंव सर्जकता से धरती पर अनोखे आश्चर्यों का प्रणयन किया है। कहीं मानवनिर्मित गगनचुम्बी भव्य सौध हैं, कहीं भिति, वस्त्र, कागज इत्यादि पर अंकित चित्र-विचित्र कला-कृतियां हैं, कहीं विविध रसों से सिक्त आह्लादकारी काव्य है, कहीं संगीत सरोवर की मादक गहराई हैं, तथा कहीं थिरकते पैरों का मनोमुग्धकारी नृत्य। इतिहास केवल रण क्षेत्र की शौर्यपूर्ण गाथाओं से ही नहीं बल्कि जीवन के विविध क्षेत्रों में मानव की साहसिक उपलब्धियों से भी भरा पड़ा है।<br />
हमारे चारों ओर आकर्षण ही आकर्षण हैं। पारिवारिक जीवन की रसमयता, घनिष्ठ मित्रगण के मध्य परस्पर सलांप, मनोरंजक हास-परिहास, क्रीड़ामग्न बालकों की मृग्धकारी किलकररियां तथा उनके रुचिर हाव-भाव, क्रीड़ा प्रांगण में युवकों के स्पर्धापूर्ण खेल, शारीरिक करतब और साहसिक कार्य, एकान्त में स्नेहीजन का परस्पर प्रेमपूर्ण वार्तालाप एंव व्यवहार, रमणीय स्थलों का पर्यटन, प्राकृतिक सौंन्दर्य का रसास्वादन, ऐतिहासिक स्थलों का निरीक्षण, समाज में दीन-दुखीजन के दु:ख निवारण हेतु सेवाकार्य, तीर्थटन, भजन-कीर्तन, संत्संग इत्यादि मन को सुख और शान्ति देनेवाले अनेक क्रियाकलापा हैं। यह सृष्टि सौन्दर्य का अनन्त निधान है तथा जीवन भव्य आकर्षणों से परिपूर्ण है किन्तु मनुष्य अविवेक के कारण संसार को कष्टमय तथा जीवन को भारमय मान बैठता है। अपने जूते में चुभनेवाले कंकर या कांटा होने पर उसे निकाल फेंकने के बजाए मार्ग को कठिन कहना अपनी ही भूल है।<br />
जीवन के आकर्षणपूर्ण तथा उपलब्धियों एंव अनान्द की अनन्त संभावानओं से भरपूर होने पर भी अगधित मनुष्य् मानसिक दाब एंव तनाव के कारण ह्रदयघातों से पीड़ित होते हैं तथा दु:ख एंव आश्चर्य तो यह है कि भयंकर ह्रदयाघातों का शिकार होनेवाले लोगों में तीस और चालीस वर्ष के बीच की आयुवाले तरुणों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है और बड़े-बड़े नर्सिग होम और यद्यपि उनका उपचार तत्काल होना अत्यन्त आवश्यक होता है। नित्य-प्रति अगणित लोग अल्पायु मे ही सहसा ह्रदयाघात होने पर स्वयं भरपूर जीवन जीने से वंचित होकर तथा मित्रों एंव कुटुम्बीजन को रोता हुआ छोड़कर काजकवलित हो जाते हैं। अगणित लोग जीवन की किसी उलझन और कुचल देनेवाले भयानक बोझ कहते हुए उतेजनावश जीवनलीला का अन्त कर देते हैं। दु:खपूर्ण आश्वर्य तो यह है कि जीवनान्त कर देनेवाले ऐसे तरुणों की संख्या बढ़ती जा रही जो उच्च शिक्षा प्राप्त कर चुके होते हैं अथवा महत्वपूर्ण वैज्ञानिक खोज में संलग्न होते हैं।<br />
जीवन एक अनजाने क्षेत्र में और अनजानी दिशा में यात्रा के सदृश है। मनुष्य यात्रा के साधनों को जानकर और उनको समझकर ही उसे सुखमय एंव सार्थक बना सकता है। कुशल यात्री अपने साधनों, रुचि और क्षमता को तथा यात्रा की संभावनाओं को समझकर यात्रा को रोमांचकारी और आनन्दपूर्ण बना सकता है तथा ज्ञान एंव अनुभव से युक्त होकर अन्य यात्रियों के लिए भी प्रेरणप्रद एंव उपयोगी हो सकता है।<br />
जीवन में माधुर्य है, सरसता है और आनन्दमयता है। प्रकृति ने जीवन की अनन्त संभावनाओं को तथा संसार के आकर्षणों को सर्वसुलभ बनाया है तथा किसीके लिए भी निराश एंव हतोत्साह होने का कारण नहीं है। मनुष्य के जीवन में इतनी अधिक सामग्री देखने, सुनने, पढ़ने के लिए तथा इतना विशाल क्षेत्र कार्य<br />
करने के लिए है कि जीवन की अवधि अत्यल्प एंव अपर्याप्त प्रतीत होती है। किन्तु खेद है कि मनुष्य भटक जाने के कारण जीवन-वरदान को अभिशाप तथा रमणीक संसार को भयावह स्थल मानकर न केवल अपने छोटे-से जीवन को ही बल्कि समाज के जीवन को भी तानवपूर्ण बना देता है। वास्तव में आवश्यकता है आन्तरिक स्वभाव एंव व्यवहार के परिष्कार की। विवेकशील व्यक्ति के लिए यह सरल है तथा विवेकहीन व्यक्ति के लिए कठिन। <br />
मनुष्य न केवल दृश्यमान बाहय जगत् में जीता है, बल्कि अपने भीतर स्व-रचित मनोजगत् में भी जीता है। वास्तव में मनुष्य का सुख और दु:ख इस बहिर्रजगत् पर निर्भर नहीं होता बल्कि अपने अन्तर्मन पर निर्भर होता है। हमारे सुख का कारण संसार के अन्य व्यक्ति और वस्तु नहीं होते बल्कि हमारी वैचारिक और भावानात्म्क् क्रिया तथा प्रतिक्रिया ही हमारे सुख का कारण होती हैं। हमारी जीवन-शैली ऐसी चिन्तन-शैली के अनुरुप होनी चाहिए कि वह हमें भय, चिन्ता और शोक से मुक्त रख सके। अतएव हमें संकल्प लेकर अपने मनोजगत् में एक स्वस्थ चिन्तन-शैली के निर्माण करने का तथा बहिर्जगत् में उसके अनुरुप व्यवहार करने का प्रयत्न करना चाहिए।<br />
इस युग की विडम्बना यह है कि आधुनिक मानव की दृष्टि में प्रगति एंव उन्नति का अर्थ केवल एक है—धनवान्, समृद्धिशील, ऐयवर्यशाली एंव वैभवशाली होना। आज विज्ञान एंव तकनीकी के आधार पर भैतिक समृद्धि होना ही सभ्यता के विकास का सूचक बन गया है। मानव के आन्तरिक जीवन का सन्तुलन बिगड़ गया है और फलत: शान्ति का अनुभव दुर्लभ हो गया है। जीवन में जीवन्तता विलुप्त् हो गयी है तथा जीवन दिशाहीन, भ्रमित और नीरस हो गया है। किसीभी प्रकार से धन कमाना, ऐश्वर्य सामग्री का संचय करना और ‘बड़ा आदमी’ बनकर समाज पर छा जाना मानों जीवन का लक्ष्य है। दिनचर्या में शान्ति के कुछ क्षण निकालकर चिन्तन करना मनुष्य की कल्पना से बाहर है। आज के मशीनी जीवन में चारों ओर जल्दबाजी, परस्पर गला काटकर आगे बढ़ने की होड़, भौतिक समृद्धि के लिए अन्धी दौड़, निरन्तर स्वार्थपूर्ण सकिगयता, भटकन, बेचैनी, दवाब और तनाव के कारण व्यक्ति अपने को अकेला मानकर दुखी और परेशान हो रहा है। इस सतही जीवन में विचार और कर्म का सामंजस्य लुप्त हो गया है।<br />
आज मानव को सबसे बढ़कर शान्ति चाहिए जिससे वह जीवन की प्रतिष्ठा को समझकर जीवन का समादा कर सके तथा जीवन के सदुपयोग द्वारा जीवन को उदात, सौन्दर्यपूर्ण और आनन्दमय बना सके। मनुष्य तथा समाज के जीवन को शान्तिमय और सार्थक बनाने के लिए गहन चिन्तन की आवश्यकता स्पष्ट है। विचारपूर्ण चिन्तन का समावेश होने पर ही मनुष्य तथा समाज का जीवन आकर्षणपूर्ण एंव सुन्दर हो सकेगा। मन की भूमि पर वसन्त की प्रस्थापना होने पर बहिर्जगत् में भी वसत्न छा जायगा। आज भौतिक क्षेत्र में प्रगति के साथ ही मनुष्य के स्वार्थ, संकीर्णता, भोगलिप्सा, वैर और वैमनस्य का भी विस्तार हो गया है तथा जीवन-वाटिका मे असमय ही पतझड़ के घुस जाने से सारा संसार दुरुह एंव भ्यावह मरुस्थल प्रतीत होता है।<br />
मनुष्य के चिन्तन का सीधा प्रभाव सर्वप्रथम मस्तिष्क तथा ह्रदय पर होता है। स्वस्थ चिन्तन से मस्तिष्क में ऊर्जा, उत्साह और उमंग उत्पन्न होते है। मनुष्य का मुखमंडल चमक उठता है और नेत्रों में उल्लास एंव जीवन्तता छलकने लगते हैं। इसके विपरित दूषित चिन्तन से मनुष्य के मस्तिष्क में ऊर्जा का क्षय होने लगता है, जीवन मे नीरसता आ जाती है, तनाव उत्पन्न हो जाता है, मुखमण्डल तेजहीन हो जाता है और नेत्रों में उदासी और निर्जीवता छा जाती है। यह दोषमय चिन्तन का ही परिणाम है कि अवसाद और अशान्ति संक्रामक रोग की भांति फैल रहे हैं तथा अगणित तरुणी और तरुण घर और परिवार मे सब सुख होते हुए भी असहाय-से होकर, मानसिक उच्चाटन और बेचैनी के कारण जीवन को क्लेशप्रद बोझ मानकर उतेजना के क्षणों में अपना प्राणान्त ही कर देते हैं तथा अपना उपवन स्वयं ही उजाड़कर परिवार और मित्रगण के लिए भी घोर दु:ख का कारण बन जाते हैं। वास्तव में दवाब (स्ट्रेस) तथा अवसाद (डिप्रेशन) कोई असाध्य रोग नहीं है बल्कि त्रुटिपूर्ण चिन्तन का सीधा दुष्परिणाम हैं जिन्हें विवेक द्वारा अवश्य ही सदा के लिए दूर किया जा सकता है। हमें अपने दु:ख, परेशानी और झुंझलाहट के कारणों को अपनी चिन्तन-शैली एंव जीवन-शैली में ही खोजकर धैर्यपूर्वक उनका उपाय करना चाहिए। हम प्राय: महत्वहीन बातों को महत्व देकर और महत्वपूर्ण बातों की उपेक्षा करके झंझट मोल ले लेते हैं। क्या हो गया और क्या होना चाहिए था, इस पर पछताते रहने के बजाए हम इस पर ध्यान दें कि हमें क्या बनना है और क्या करना है।</div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4712836137246646595.post-18339619124135589052011-02-26T12:35:00.000-08:002011-02-26T12:35:20.123-08:00प्रेमचंद की 'मंदिर और मस्जिद'<embed width="404" src="http://www.archive.org/download/MandirAurMasjid/Premchand-Mandir.mp3" autostart="true" loop="true" height="70"></embed>Unknownnoreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4712836137246646595.post-80908721103484824852011-02-26T12:34:00.001-08:002011-02-26T12:34:44.701-08:00प्रेमचंद की 'माँ'<embed width="404" src="http://www.archive.org/download/MaaByPremchand/Premchand-Maa.mp3" autostart="true" loop="true" height="70"></embed>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4712836137246646595.post-8109954813104376842011-02-26T12:34:00.000-08:002011-02-26T12:34:08.890-08:00प्रेमचंद की "वरदान"<embed width="404" src="http://www.archive.org/download/VardaanByPremchand/Premchand-Vardaan.mp3" autostart="true" loop="true" 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height="70"></embed>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4712836137246646595.post-36055756844911394702011-02-26T12:30:00.000-08:002011-02-26T12:30:53.752-08:00प्रेमचंद की 'समस्या'<embed width="404" src="http://www.archive.org/download/Samasya/Premchand-Samasya.mp3" autostart="true" loop="true" height="70"></embed>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4712836137246646595.post-28635180339364229532009-06-26T02:51:00.002-07:002009-06-26T02:52:02.173-07:00११/ईश्वर की खोइब्राहीम आधी रात में अपने महल में सो रहा था। सिपही कोठे पर पहरा दे रहे थे। बादशाह का यह उद्देश्य नहीं था कि सिपाहियों की सहायता से चोरों और दुष्ट मनुष्यों से बचा रहे, क्योंकि वह अच्छी तरह जानता था कि जो बादशाह न्यायप्रिय है, उसपर कोई विपत्ति नहीं आ सकती, वह तो ईश्वर से साक्षात्कार करना चाहता था। <br /> एक दिन उसने सिंहासन पर सोते हुए किसके कुछ शब्द और धमाधम होने की आवाज सुनी। <br /> वह अपने दिल में विचारने लगा कि यह किसीकी हिम्मत है, जो महल के ऊपर चढ़कर इस तरह धामाके से पैरे रक्खे! उसने झरोखों से डांटकर कहा, ‘कौन है?’’<br /> ऊपर से लोगों ने सिर झुकाकर कहा, ‘‘रात में हम यहां कुछ ढूंढ़ने निकले हैं।’’<br /> बादशाह ने पूछा, ‘‘क्या ढूंढ़ने निकले हैं?’’<br /> लोगों ने उत्तर दिया, ‘‘हमारा ऊंट खो गया है उसे।’’<br /> बादशाह ने कहा, ‘‘ऊपर कैसे आ सकता है?’’<br /> उन लोगों ने उत्तर दिया, ‘‘यदि इस सिंहासन पर बैठकर, ईश्वर से मिलने की इच्छा की जा सकती है तो महल के ऊपर ऊंट भी मिल सकता हैं।’’<br /> इस घटना के बाद बादशाह को किसीने महल में नहीं देखा। वह लोगों की नजर से गायब हो गया।<br /> <br />[इब्राहीम का आन्तरिक गुण गुप्त था और उसकी सूरत लोगों के सामने थी। लोग दाढ़ी और गुदड़ी के अलावा और क्या देखते हैं?]1Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4712836137246646595.post-64666381403318126532009-06-26T02:51:00.001-07:002009-06-26T02:51:32.171-07:00१०/ मूसा और चरवाहाएक दिन हजरत मूसा ने रास्ता चलते एक चरवाहे को यह कहते सुना, ‘‘ऐ प्यारे खुदा तू कहां है? बता, जिससे मैं तेरी खिदमत करुं। तेरे मोजे सीऊं और सिर में कंघी करुं। मैं तेरी सेवा में जाऊं। तेरे कपड़ों में थेगली लगाऊं। तेरे कपड़े धोऊं और ऐ प्यारे, तेरे और तेरे आगे दूध रक्खूं और अगर तू बीमार हो जाये तो संबंधियों से अधिक तेरी सेवा-टहल करुं। तेरे हाथ चूमूं, पैरों की मालिश करुं और जब सोने का वक्त हो तो तेरे बिछौने को झाड़कर साफ करुं और तेरे लिए रोज घी और दूध पहुंचाया करुं। चुपड़ी हुई रोटियां और पीने के लिए बढ़िया दही और मठा तैयार करके सांझ-सवेरे लाता रहूं। मतलब यह है कि मेरा काम मेरा काम लाना हो और तेरा काम खना हो। तेरे दर्शनों के लिए मेरी उत्सुकता हद से ज्यादा बढ़ गयी है।’’<br /> यह चरवाह इस तरह की बेबुनियाद बातें कर रहा था। मूसा ने पूछा, ‘‘अरे भाई, <br />तू ये बातें किससे कह रहा है?’’<br /> उस आदमी ने जवाब दिया, ‘‘उसने, जिससे, हमको पैदा किया है, यह पृथ्वी और आकाश बनाये हैं।’’<br /> हजरत मूसा ने कहा, ‘‘अरे आभागे! तू धर्म-शील होने के बजाय काफिर हो गया है क्या? काफिरों जैसी बेकार की बातें कर रहा है। अपने मुंह में रुई ठूंस। तेरे कुफ्र की दुर्गंध सारे ससार में फैल रही है। तेरे धर्म-रूपी कमख्वाब में थेगली लगा दी। मोजे और कपड़े तुझे ही शोभा देते हैं। भला सूर्य को इन चीजों की क्या आवश्यकता है? अगर तू ऐसी बातें करने से नहीं रुकेगा तो शर्म के कारण सारी सृष्टि जलकर राख हो जायेगी। अगर तू खुदा को न्यायकारी और सर्वशक्तिमान मानता है तो इस बेहूदी बकवास से क्या लाभ? खुदा को ऐसी सेवा की आवश्यकता नहीं । अरे गंवार! ऐसी<br /><br /><br /> <br /> <br /> बातें तू किससे कर रहा है? वह ज्योतिस्वरुप (परमेश्वर) तो शरीर और आवश्यकताओं से रहित है। दूध तो वह पिये, जिसका शरीर और आयु घटे-बढ़े और मोजे वह पहने, जो पैरों के अधीन हो।’’<br /> चरवाहे ने कहा, ‘‘ऐ मूसा! तूने मेरा मुंह बन्द कर दिया। पछतावे के कारण मेरा शरीर भुनने लगा है।’’<br /> यह कहकर उस चरवाहे ने कपड़े फाड़ डाले, एक ठंडी सांस ली और जंगल में घुसकर गायब हो गया। इधर मूसा को आकाशावाणी सुनायी दी, ‘‘ऐ मूसा! तूने हमारे बन्देको हमसे क्यों जुदा कर दिया? तू संसार में मनुष्यों को मिलाने आया है या अलग करने? जहां तक सम्भव हो, जुदा करने का इरादा न कर। हमने हर एक आदमी का स्वभाव अलग-अलग बनाया है और प्रत्येक मनुष्य को भिन्न-भिन्न की बोलियां दी हैं। जों बात इसके लिए अच्छी है, वह तेर लिए बुरी है। एक बात इसके हक में शहद का असर रखती है और वही तेरे लिए विष का। जो इसके लिए प्रकाश है, वह तेरे लिए आग है। इसके हक में गुलाब का फूल और तेरे लिए कांटा हैं। हम पवित्रता, अपवित्रता, कठोरता और कोमलता सबसे अलग हैं। मैंने इस सृष्टि की रचना इसलिए नहीं की कि कोई लाभ उठाऊं, बल्कि मेरा उद्देश्य तो केवल यह है कि संसार के लोगों पर अपनी शक्ति और उपकार प्रकट करुगं। इनके जाप और भजन से मैं कुछ पवित्र नहीं हो जाता, बल्कि जो मोती इनके मुंह से झड़ते हैं, उनसे स्वयं ही इनकी आत्मा शुद्ध होती है। हम किसीके वचन या प्रकट आचरणों को नहीं देखते। हम तो ह्दय के <br /><br />आन्तरिक भावों को देखते हैं। ऐ मूसा, बुद्धिमान मनुष्यों की प्रार्थनाएं और हैं और दिलजलों की इबादत दूसरी है। इनका ढंग ही निराला है।’’<br /> जब मूसा ने अदृष्ट से ये शब्द सुने तो व्याकुल होकर जंगल की तरफ चरवाहे की तलाश में निकले। उसके पद-चिह्नों को देखते हुए सारे जंगल की खाक छान डाली। आखिर उसे तलाश कर लिया। मिलन पर कहा, ‘‘तू बड़ा भाग्यवान है। तुझे आज्ञा मिल गयी। तुझे किसा शिष्टाचार या नियम की आवश्यकता नहीं। जो तेरे जी में आये, कहा। तेरा कुफ्र धर्म और तेरा धर्म ईश्वर-प्रेम है। इसलिए तेरे लिए सबकुछ माफ है बल्कि तेरे दम से ही सृष्टि कायम है। ऐ मनुष्य! खुदा की मर्जी से माफी मिल गयी। अब तू निस्संकोच होकर जो मुंह आये, कह दे।’’<br /> चरवाहे ने जवाब दिया, ‘‘ऐ मूसा! अब मैं इस तरह की बातें मुंह से नहीं निकालूंगा। तूने जो मेरे बुद्धि-रुपी घोड़े को कोड़ा लगाया तो वह एक छलांग में सातवे आसमान पर जा पहुंचा। अब मेरी दशा बयान से बाहर है, बल्कि मेरे ये शब्द भी मरे हार्दिक दशा को प्रकट नहीं करते।’’ <br /> <br /> [ऐ मनुष्य! तो जो ईश्वर की प्रशंसा और स्तुति करता है, तेरी दशा भी इस चरवाहे से अच्छी नहीं है। मू महा अधर्मी और संसार में लिप्त है। तेरे कर्म और वचन भी निकृष्ट हैं। यह केवल उस दयालु परामात्मा की कृपा है कि वह तेरे अपवित्र उपहार को भी स्वीकार कर लेता है।]1Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4712836137246646595.post-19211270146765704842009-06-26T02:50:00.002-07:002009-06-26T02:51:10.168-07:00९/ मूर्खों से भागोहजरत ईसा एक बार पहाड़ की तरफ इस तरह दौड़े जा रहे थे कि जैसे कोई शेर उनपर हमला करने के लिए पीछे से आ रहा हो। एक आदमी उनके पीछे दौड़ा और पूछा, ‘‘खैर तो है? हजरत, आपके पीछे तो कोई भी नहीं, फिर परिन्दे की तरह क्यों उड़े चले जा रहे हो?’’ परन्तु ईसा ऐसी जल्दी में थे कि कोई जवाब नहीं दिया। कुछ दुर तक वह आदमी उनके पीछे-पीछे दौड़ा और आखिर बड़े जोर की आवाज देकर उनको पुकार, ‘‘खुदा के वास्ते जरा तो ठहरिये। मुझे आपकी इस भाग-दौड़ से बड़ी परेशानी हो रही है। आप इधर से क्यों भागे जा रहे हैं? आपके पीछे न शेर है, दुश्मन!’’<br /> हजरत ईसा बोलो, ‘‘तेरा कहना सच है। परन्तु मैं एक मूर्ख मनुष्य से भाग रहा हूं।’’<br />उसने कहा, ‘‘क्या तुम मसीहा नहीं हो, जिनके चमत्कार से अन्धे देखने लगते हैं और बहरों को सुनायी देने लगता है?’’<br /> वह बोले, ‘‘हां।’’<br /> उसने पूछा, ‘‘क्या तुम वह बादशाह नहीं कि जिनमें ऐसी शक्ति है कि यदि मुर्दे पर मन्त्र फंक दे तो वह मुर्दा भी जिंदा पकड़ें गए शेर की तरह उठा खड़ा होता है।’’<br /> ईसा ने कहा, ‘‘हां, मैं वही हूं।’’<br /> फिर उसने पूछा, ‘‘क्या आप वह नहीं कि मिट्टी को पक्षी बनाकर जरा मन्त्र पढ़े तो जान पड़ जाये और उसी वक्त हव में उड़ने लगे?’’<br /> ईसा ने जवाब दिया, ‘‘बेशक, वही हूं।’’<br /> फिर उसने निवदन किया। ‘‘ऐ पवित्र आत्मा! आप जो चाहें कर सकते हैं, फिर आपको किसका डर है?’’<br /> हजरत ईसा ने कहा, ‘‘ईश्वर की कसम, जो और जीव का पैदा करनेवाला है, <br />और जिसकी महान् शक्ति के मुकाबले में आकाश भी तुच्छ हैं, जब उसके पवित्र नाम को मैंने बहारों और अन्धों पर पढ़ा तो वे अच्छे हो गये, पहाड़ों पर चढ़ा तो उनके टुकड़े-टुकड़े हो गये, मृत शरीरों पर पढ़ा तो जीवित हो गये, परन्तु मैंने बड़ी श्रद्धा से वही पवित्र नाम जब मूर्ख पर पढ़ा और लाखों बार पढ़ा तो अफसोस कि कोई लाभ नहीं हुआ!’’<br /> <br /><br />उस आदमी ने आश्चर्य से पूछा कि हजरत, यह क्या बात है कि ईश्वर का नाम वहां फायदा करता है और यहां कोई असर नहीं करता? हालांकि यह भी एक बीमारी है और वह भी। फिर क्या कारण है कि उस सृष्टि-कर्ता का पवित्र नाम दोनों पर समान असर नहीं करता?<br /> हजरत ईसा ने कहा, ‘‘मूर्खता का रोग ईश्वर की ओर से दिया हुआ दंड है और अन्धेपन की बीमारी दंड नहीं, बल्कि परीक्षा के तौर पर जो बीमारी है, उसपर दया आती है, और मूर्खता वह रोग है, जिससे दिल में जलन होती है।’’<br />[हजरत ईसा की तरह मूर्खों से दूर भागना चाहिए। मूर्खों के संग ने बड़े-बड़े झगड़े पैदा किये है। जिस तरह हवा आहिस्ता-आहिस्ता पानी को खुश्क कर देती हैं, उसी तरह मूर्ख मनुष्य भी धीरे-धीरे प्रभाव डालते है और इसका अनुभव नहीं होता।]1Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4712836137246646595.post-69544522894441246802009-06-26T02:50:00.001-07:002009-06-26T02:50:47.067-07:00८/स्वच्छ ह्रदयचीनियों को अपनी चित्रकला पर घमंड था और रुमियों को अपने हुनर पर गर्व था। सुलतान ने आज्ञा दी कि मैं तुम दोनों की परीक्षा करुंगा। चीनियों ने कहा, ‘‘बहुत अच्छा, हम अपना हुनर दिखायेंगे।’’ रुमियों ने कहा, ‘‘हम अपना कमाल दिखायेंगे।’’ मतलब यह कि चीनी और रुमियों में अपनी-अपनी कला दिखाने के लिए होड़ लग गई। <br /> चीनियों ने रुमियों से कहा, ‘‘अच्छा, एक कमरा हम ले लें और एक तुम ले लो।’’ दो कमरे आमने-सामने थे। इनमें एक चीनियों को मिला और दूसरा रुमियों कों चीनियों ने सैकड़ों तरह के रंग मांगें बादशाह ने खजाने का दरवाज खोल दिया। चीनियों को मुंह मांगे रंग मिलने लगे। रुमियों ने कहा, ‘‘हम न तो कोई चित्र बनाएंगे और न रंग लगायेगे, बल्कि अपना हुनर इस तरह दिखायेंगे कि पिछला रंग भी बाकी न रहें।’’<br /> उन्हों दरवाजे बन्द करके दीवारों को रगड़ना शुरु किया और आकाश की तरह बिल्कुल और साफ सादा घाटा कर डाला। उधर चीनी अपना काम पूरा करके खुशी के कारण उछलने लगे।<br /> बादशाह ने आकर चीनियों का काम देखा और उनकी अदभुत चित्रकारी को देखकर आश्चर्य-चकित रह गया। इसके पश्चात वह रुमियों की तरफ आया। उन्होंने अपने काम पर से पर्दा उठाया। चीनियों के चित्रों का प्रतिबिम्ब इन घुटी हुई दीवार इतनी सुन्दर मालूम हुई कि देखनेवालों कि आंखें चौंधिसयाने लगीं। <br /> <br /><br />[रूमियां की उपमा उन ईश्वर-भक्त सूफियों की-सी है, जिन्होंने न तो धार्मिक पुस्तकें पढ़ी और न किसी अन्य विद्या या कला में योग्यता प्राप्त की है। लेकिन लोभ, द्वेष, दुर्गुणों को दूर करके अपने हृदय को रगड़कर, इस तरह साफ कर लिया है कि उसके दिल स्वच्छ शीशें की तरह उज्जवल हो गये है।, जिनमें निराकार ईश्चरीय ज्योति का प्रतिबिम्ब स्पष्ट झलकता है।]1Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4712836137246646595.post-70527480716150768462009-06-26T02:49:00.004-07:002009-06-26T02:50:19.167-07:00७/खारे पानी का उपहारपुराने जमाने में एक खलीफा था, जो हातिम से भी बढ़कर उदार और दानी था। उसने अपनी दानशीलता तथा परोपकार के कारण निर्धनता याचना का अंत कर दिया था। पूरब से पच्छिम तक इसकी दानशीलता की चर्चा फैल गयी।<br />एक दिन अरब की स्त्री ने अपने पति से कहा, ‘‘गरबी के कारण हम हर तरह के कष्ट सहन कर रहे हैं। सारा संसार सुखी है, लेकिन हमीं दुखी हैं। खाने के लिए रोटी तक मयस्सर नहीं। आजकल हमारा भोजन गम है या आंसू। दिन की धूप हमारे वस्त्र हैं, रात सोने का बिस्तर हैं, और चांदनी लिहाफ है। चन्द्रमा के गोल चक्कर को चपाती समझकर हमारा हाथ आसमान की तरफ उठ जाता है। हमारी भूख और कंगाली से फकीरों को भी शर्म आती है और अपने-पराये सभी दूर भागते हैं।’’<br /> पति ने जवाब दिया, ‘‘कबतक ये शिकायतें किये जायेगी? हमारी उम्र ही क्या ऐसी ज्यादा रह गयी है! बहुत बड़ा हिस्सा बीत चुका है। बुद्धिमान आदमी की निगाह में अमीर और गरीब में कोई फर्क नहीं है। ये दोनों दशाएं तो पानी की लहरें हैं। आयीं और चली गयीं। नदी की तरेंग हल्की हो या तेज, जब किसी समय भी इनको स्थिरता नहीं तो फिर इसक जिक्र ही क्या? जो आराम से जीवन बिताता है, वह बड़े दु:खों से मरता है। तू तो मेरी स्त्री है। स्त्री को अपने पति के विचारो से सहमत होना चाहिए, जिससे एकता से सब काम ठीक चलते रहें। मैं तो सन्तोष कियो बैठा हूं। तू ईर्ष्या के कारण क्यों जली जा रही है?’’<br /> पुरुष बड़ी हमदर्दी से इस तरह के उपदेश अपनी औरत को देता रहा। स्त्री ने झुंझलाकर डांटा, ‘‘निर्लज्ज! मैं अब तेरी बातों में नही आऊंगी। खाली नसीहत की बातें न कर। तूने कब से सन्तोष करना सीखा है? तूने तो केवल सन्तोष का नाम ही नाम सुना है, जिससे जब मैं रोटी-कपड़े की शिकायत करुं तो तू अशिष्टता और गुस्ताखी का नाम लेकर मेरा मुंह बन्द कर सके। तेरी नसीहत ने मुझे निरुत्तर नहीं किया। हां, ईश्वर की दुहाई सुनने से मैं चुप हो गयी। लेकिन अफसोस है तुझपर कि तूने ईश्चर के नाम को चिड़ीमार का फंदा बना लिया। मैंने तो अपना मन ईश्वर को सौंपा दिया है, ताकि मेरे घावों की जलन से तेरा शरीर अछूता न बचे या तुझको भी मेरी तरह बन्दी (स्त्री) बना दे।’’ स्त्री ने अपने पति पर इसी तरह के अनेक ताने कसे। मर्द औरत के ताने चुपचाप सुनता रहा। <br /> <br />मर्द ने कहा, ‘‘तू मेरी स्त्री है या बिजका? लड़ाई-झगड़े और दर्वचनों को छोड़। इन्हें नहीं छोड़ती तो मुझे ही छोड़। मेरे कच्चे फोड़ों पर डंक न मार। अगर तू जीभ बन्द करे तो ठीक, नहीं तो याद रख, में अभी घरबार छोड़ दूंगा। तंग जूता पहनने से नंगे पैर फिरना अच्छा है। हर समय के घरेलू झगड़ों से यात्रा के कष्ट सहना बेहतर है।’’ <br /> स्त्री ने जब देखा कि उसका पति नाराज हो गया है तो झट रोने लगी। फिर गिड़गिड़ाकर कहने लगी, ‘‘मैं सिर्फ पत्नी ही नहीं बल्कि पांव की धूल हूं। मैंने तुम्हें ऐसा नहीं समझा था, बल्कि मुझे तो तुमसे और ही आशा थी। मेरे शरीर के तुम्हीं मालिक हो और तुम्हीं मेरे शासक हो। यदि मैंने धैर्य और सन्तोष को छोड़ा तो यह अपने लिए नहीं, बल्कि तुम्हारे लिए। तुम मेरी सब मुसीबतों और बीमारियों की दवा करते हो, इसलिए मैं तुम्हारी दुर्दशा को नहीं देख सकती। तुम्हारे शरीर की सौगन्ध, यह शिकायत अपने लिए नहीं, बल्कि यह सब रोना-धोना तुम्हारे लिए है। तुम मुझे छोड़ने का जिक्र करते हो, यह ठीक नहीं हैं।’’<br /> इस तरह की बातें कहती रही और फिर रोते-रोते औंधे मुंह गिर पड़ी। इस वर्षा से एक बिजली चमकी और मर्द के दिल पर इसकी एक चिनगारी झड़ी। वह अपने शब्दों पर पछतावा करने लगा, जैसे मरते समय कोतवाल अपने पिछले अत्याचारों और पापों को याद कर रोता है। मन में कहने लगा, जब मैं इसका स्वामी हूं तो मैंने इसको कष्ट क्यों दिया? फिर उससे बोला, ‘‘मैं अपनी इन बातों के लिए लज्जित हूं। मैं अपराधी हूं। मुझे क्षमा कर। अब मैं तेरा विरोध नहीं करुगा। जो कुछ तू कहेगी, उसके अनुसार काम करुंगा।’’<br /> औरत ने कहा, ‘‘तुम यह प्रतिज्ञा सच्चे दिल से कर रहे हो या चालाकी से मेरे दिल का भेद ले रहे हो?’’<br /> वह बोला, ‘‘उस ईश्वर की सौगन्ध, जो सबके दिलों का भेद जानेवाले हैं, जिसने आदम के समान पवित्र नबी को पैदा किया। अगर मेरे ये शब्द केवल तेरा भेद लेने के लिए हैं तो तू इनकी भी एक बार परीक्षा करके देख ले।’’<br /> औरत ने कहा, ‘‘देख, सूरज चमक रहा है और संसार इससे जगमगा रहा है। खुदा के खलीफा का नायाब जिसके प्रताप से शहर बगदाद इंद्रपुरी बना हुआ है, अगर तू उस बादशाह से मिले तो खुद भी बादशाह हो जायेगा, क्योंकि भाग्यवानों की मित्रता पारस के समान है, बल्कि पारस भी इसके सामने छोटा है। हजरत रसूल की निगाह अबू बकर पर पड़ी तो वह उनकी जरा-सी कृपा से इस महान पद को पहुंच गये।’’<br /> <br />मर्द ने कहा, ‘‘भला, बादशाह तक मेरी पहुंच कैस हो सकती है? बिना किसी जरिये के वहां तक कैसे पहुंच सकता हूं?’’<br /> औरत ने कहा, ‘‘हमारी मशक में बरसाती पानी भरा रक्खा है। तुम्हारे पास यही सम्पत्ति है। इस पानी की मशक को उठाकर ले जाओ और इसी उपहार के साथ बादशाह की सेवा में हाजिर हो जाओ और प्रार्थना करो कि हमारी जमा-पूंजी इसके सिवा कुछ है नहीं। रेगिस्तान में इससे उत्तम जल प्राप्त होना असम्भव है। चाहे उसके खजाने में मोती और हीरे भरे हुए हैं, लेकिन ऐसे बढ़िया जल का वहां मिलना भी दुश्वार है।’’<br /> मर्द ने कहा, ‘‘अच्छी बात है। मशक का मुंह बन्द कर। देखें, तो यह सौगात हमें क्या फायदा पहुंचाती है? तू इसे नमदे में सी दे, जिससे सुरक्षित रहे और बादशाह हमारी इस भेंट से रोज़ खोले। ऐसा पानी संसार भर में कहीं नहीं। पानी क्या, यह तो निथरी हुई शराब है।’’<br /> उसने पानी की मशक उठायी और चल दिया। सफर में दिन को रात और रात को दिन कर दिया। उसको यात्रा के कष्टों के समय भी मशक की हिफाजत का ही ख्याल रहता था। <br /> इधर औरत ने खुदा से दुआ मांगनी शुरु की कि ऐ परवरदिगार, रक्षा कर, ऐ खदा! हिफाजत कर। <br /> स्त्री की प्रार्थना तथा अपने परिश्रम और प्रयत्न से वह अरब हर विपत्ति से बचता हुआ राजी-खुशी राजधानी तक पानी की मशक को ले पहुंचा। वहां जाकर देखा, बड़ा सुन्दर महल बना हुआ है और सामने याचकों का जमघट लागा हुआ है। हर तरफ के दरवाजों से लोग अपनी प्रार्थना लेकर जाते हैं और सफल मनोरथ लौटते हैं। <br /> जब यह अरब महल के द्वारा तक पहुंचा ता चोबदार आये। उन्होंने इसके साथ बड़ा अच्छा व्यवहार किया। चोबदारों ने पूछा, ‘‘ऐ भद्र पुरुष! तू कहां से आ रहा है? कष्ट और विपत्तियों के कारण तेरी क्या दशा हो गयी है?’’<br /> उसने कहा, ‘‘यदि तुम मेरा सत्कार करो तो मैं भद्र पुरुष हूं और मुंह फेर लो तो बिल्कुल छोटा हूं। ऐ अमीरो! तुम्हारे चेहरों पर एश्चर्य टपक रहा है। तुम्हारे चेहरों का रंग शुद्ध सोने से भी अधिक उजला है। मैं मुसाफिर हूं। रेगिस्तान से बादशाह की सेवा में भिखारी बनकर हाजिर हुआ हूं। बादशाह के गुणों की सुगन्धित रेगिस्तान तक पहुंच चुकी है। रेत के बेजान कणों तक में जान आ गयी है। यहां तक तो मै अशर्फियों के <br /><br />लोभ से आया था, परन्तु जब यहां पहुंचा तो इसके दर्शनों के लिए उत्कण्ठित हो गया।’’ फिर पानी की मशक देकर कहा, ‘‘इस नजराने को सुलतान की सेवा में पहुंचाओ और निवेदन करो कि मेरी यह तुच्छ भेंट किसी मतलब के लिए नहीं है। यह भी अर्ज करना कि यह मीठा पानी सौंधी मिट्टी के घड़े का है, जिसमें बरसाती पानी इकट्ठा किया गया था।’’<br /> चोबदारों को पानी की प्रशंसा सुनकर हंसी आने लगी। लेकिन उन्होंने प्राणों की तरह मशक को उठा लिया, क्योंकि बुद्धिमान बादशाह के सदगुण सभी राज-कर्मचारियों में आ गये थे। <br /> जब खलीफा ने देखा और इसका हाल सुना तो मशक को अशर्फियों से भर दिया। इतने बहुमल्य उपहार दिये कि वह अरब भूख-प्यास भूल गया। फिर एक चोबदार को दयालु बादशाह ने संकेत किया, ‘‘यह अशर्फी-भरी मशक अरब के हाथ में दे दी जाये और लौटते समय इसे दजला नदी के रास्ते रवाना किया जाये। वह बड़े लम्बे रास्ते से यहां तक पहुंचा है। और दजला का मार्ग उसके घर से बहुत पास है। नाव में बैठेगा तो सारी पिछली थकान भूल जायेगा।’’<br /> चोबदारों ने ऐसा ही किया। उसको अशर्फियां से भरी हुई मशक दे दी और दजला पर ले गये। जब वह अरब नौका में सवार हुआ और दजला नदी को देखा तो लज्जा के कारण उसका सिर झुक गया, फिर सिर झुक गया, फिर सिर झुकाकर कहने लगा कि दाता की देन भी निराली है और इससे भी बढ़कर ताज्जुब की बात यह है कि उसने मेरे कड़वे पानी तक को कबूल कर लिया।Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4712836137246646595.post-68665214017244916482009-06-26T02:49:00.003-07:002009-06-26T02:49:49.325-07:00६/ फूट बुरी बलाएक माली ने देखा कि उसके बाग में तीन आदमी चोरों की तरह बिना पूछे घुस आये हैं। उनमें से एक सैयद है, एक सूफी है और एक मौलवी है, और एक से बढ़कर एक उद्दंड और गुस्ताख है। उसने अपने मन में कहा कि ऐसे धूर्तों को दंड देना ही चाहिए, परन्तु उनमें परस्पर बड़ा मेल है और एका ही सबसे बड़ी शक्ति है। मैं अकेला इन तीनों को नहीं जीत सकता। इसलिए बुद्धिमानी इसी में है कि पहले इनको एक-दूसरे से अलग कर दूं। यह सोचकर उसने पहले सूफी से कहा, ‘‘हजरात, आप मेरे घर जाइए और इन साथियां के लिए कम्बल ले आइए।’’ जब सूफी कुछ दूर गया, तो कहने लगा, ‘‘क्यों श्रीमान! आप तो धर्म-शास्त्र के विद्वान हैं और ये सैयद हैं। हम तुम-जैसे सज्जनों के प्रताप से ही रोटी खाते हैं और तुम्हारी समझ के परों पर उड़ते हैं। दूसरे पुरुष हमारे बादशाह हैं, क्योंकि सैयद हैं और हमारे रसूल के वंश के हैं। लेकिन इस पेटू सूफी में कौन-सा गुण है, जो तुम-जैसे बादशाहों के संग रहे? अगर वह वापस आये तो उसे रुई की तरह धुन डालूं। तुम लोग एक हफ्ते तक मेरे बाग में निवास करो। बाग ही क्या, मेरी जान भी तुम्हारे लिए हाजिर हैं, बल्कि तुम तो मेरी दाहिनी आंख हो।’’<br /> ऐसी चिकनी-चुपड़ी बातों से इनको रिझाया और खुद डंडा लेकर सूफी के पीछे चला और उसे पकड़कर कहा, ‘‘क्यों रे सूफी, तू निर्लल्जता से बिना आज्ञा लिये लोगों के बाग में घुस आता है! यह तरीका तुझको किसने सिखाया है? बता, सिक शेख और किस पीर ने आज्ञा दी?’’ यह कहकर सूफी को मारते-मारते अधमर कर दिया। <br /> सूफी ने जी में कहा, ‘‘जो कुछ मेरे साथ होनी थी, वह तो हो चुकी; परन्तु मेरे साथियो! जरा अपनी खबर लो। तुमने मुझको पराया समझा, हालांकि मैं इस दुष्ट माली से ज्यादा पराया न था। जो कुछ मैंने खाया है, वही तुम्हें भी खाना है और सच बात तो यह है कि धूर्तों को ऐसा दण्ड मिलना चाहिए।’’<br /> जब माली ने सूफी को ठीक कर दिया तो वैसा ही एक बहाना और ढूंढा और कहा, ‘‘ऐ मेरे प्यारे सैयद, आप मेरे घर पर तशरीफ ले जायें। मैंने आपके लिए बढ़िया खाना बनवाया है। मेरे दरवाजे पर जाकर दासी को आवाज देना। वह आपके लिए पूरियां और तरकारियां ला देगी।’’<br /> जब उसकी विदा कर चुका तो मौलवी से कहने लगा, ‘‘ऐ महापुरुष! यह तो जाहिर और मुझे भी विश्वास है कि तू धर्म-शास्त्रों का ज्ञात है: परन्तु तेरे साथी को सैयदपने का दावा निराधार है। तुझे क्या मालूम, इसकी मां ने क्या-क्या किया?’’ इस प्रकार सैयद को जाने क्या-क्या बुरा भला कहा। मौलवी चुपचाप सुनता रहा, तब उस दुष्ट ने सैयद का भी पीछा किया और रास्ते में रोककर कहा, ‘‘अरे मूर्ख! इस बाग में तुझे किसने बुलाया? अगर तू नबी सन्तान होता तो यह कुकर्म न करता।’’<br /> फिर उसने सैयद को पीटना शुरु किया और जब वह इस ज़ालिम की मार से बेहाल हो गया तो आंखों में आसूं भरकर मौलवी से बोला, ‘‘मियां, अब तुम्हारी बारी है। अकेले रह गये हो। तुम्हारी तोंद पर वह चोटी पड़गी कि नक्करा बन जायेगी। अगर मैं सैयद नहीं हूं और तेरे साथ रहने योग्य नहीं हूं तो ऐसे ज़ालिम से तो बुरा नहीं हूं।’’<br /> इधर जब वह माली सैयद से भी निबटन चुका तो मौलवी की ओर मुड़ा और कहा, ‘‘ऐ मौलवी,! तू सारे धूर्तों का सरदार है। खुदा तुझे लुंजा करे। क्या तेरा यह फतवा है कि किसी के बाग में घुस आये और आज्ञा भी न ले? अरे मूर्ख, ऐसा करने की तुझे किसने आज्ञा दी है? या किसी धार्मिक ग्रन्थ में तूने ऐसा पढ़ा है?’’ इतना कहकर वह उस पर टूट पड़ा और उसे इतना मारा कि उसका कचूमर निकाल दिया। <br /> मौलवी ने कहा, ‘‘तुझे निस्सन्देह मारने का अधिकार है। कोई कसर उठा न रखा। जो अपनों से अलग हो जाये, उसकी यही सजा है। इतना ही नहीं, बल्कि इससे भी सौगुना दण्ड मिलना चाहिए। मैं अपने निजी बचाव के लिए अपने साथियों से क्यों अलग हुआ?’’<br /> [जो अपने साथियों से अलग होकर अकेला रह जाता है, उसे ऐसी ही मुसीबतें उठानी पड़ती हैं। फूट बला है।]Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4712836137246646595.post-48876738311339241502009-06-26T02:49:00.001-07:002009-06-26T02:49:20.999-07:00५/ साधु की कथाएक साधु पहाड़ों पर रहा करता था। न उसके स्त्री थी और न बच्चे। वह एकान्तवास में ही मगन रहा करता था। <br /> इस पहाड़ की घाटियों में सेव, अमरुद, अनार इत्यादि फलदार वृक्ष बहुत थे। साधु का भोजन यही मेवे थे। इनके छोड़ और कुछ नहीं खाता था। एक बार इस साधु ने प्रतिज्ञा की कि ऐ मेरे पालनकर्त्ता मैं इन वृक्षों से स्वयं मेवे नहीं तोडूगा और न किसी दूसरे से तोड़ने के लिए कहूंगा। मैं पेड़ पर लगे हुए मेवे नहीं खाऊंगा, जो हवा के झोंके से सड़कर गिर गये हों। <br /> दैवयोग से पांच दिन तक कोई फल हवा से नहीं झड़ा। भूख की आग ने साधु को बेचैन कर दिया। उसने एक डाली की फुनगी पर अमरुद लगे हुए देखे। परन्तु सन्तोष से काम लिया और अपने मन को वश में किये रहा। इतने में हवा का एक ऐसा झोंका आया कि शाख की फुनगी नीचे झुक आयी, अब तो उसका मन वश में नहीं रहा और भूख ने उसे प्रतिज्ञा तोड़ने के लिए विवश कर दिया। बस फिर क्या था, वृक्ष से फल तोड़ते ही इसकी प्रतिज्ञा टूट गयी। साथ ही ईश्वर का कोप प्रकट हुआ, क्योंकि उसकी आज्ञा है कि जो प्रतिज्ञा करो, उसे अवश्य पूरा करो। <br /> इसी पहाड़ में शायद पहले से ही चोरों का एक दल रहा करता था और यहीं वे लोग चोरी का माल आपस बांट करते थे। दैवयोग से उसी समय चोरो के यहां मौजूद होने की खबर पाकर कोतवाली के सिपाहियों ने इस पहाड़ी को घेर लिया और चोरों के साथ साधु को भी पकड़कर हथकड़ी-बेड़ी डाल दी। इसके बाद कोतवाल ने जल्लाद को आज्ञा दी कि इनमें से हरएक के हाथ-पांव काट डालो। जल्लाद ने सबका बांया पांव और दायां हाथ काट डाला। चोरों के साथ साधु का हाथ भी काट डाला गया और पैर काटने की बारी आने-वाली थी कि अचानक एक सवार घोड़ा दौड़ाता हुआ आया और सिपाहियों को ललकार कर कहा, ‘‘अरे देखों, यह अमुक साधु है और ईश्चर-भक्त है। इसक हाथ क्यों काट डाला?’’ यह सुनकर सिपाही ने अपने कपड़े फाड़ डाले और जल्दी से कोतवाल की सेवा में उपस्थित होकर इस घटना की सूचना दी। कोतवाल यह सुनकर नंगे पांव माफी मांगता हुआ हाजिर हुआ।<br /><br /><br /> बोला ‘‘महाराज! ईश्वर जानता है कि मुझे खबर नहीं थी। ऐ दयालु, मुझे <br />साधु बोला, ‘‘मैं इस विपत्ति का कारण जानता हूं और मुझे अपने पापों का ज्ञान है। मैंने बेईमानी से अपना मान घटाया और मेरी ही प्रतिज्ञा ने मुझे इसकी कचहरी में धकेल दिया। मैंने जान-बूझकर प्रतिज्ञा भंग की। इसलिए इसकी सजा में हाथ पर आफत आयी। हमारा हाथ हमारा पांव, हमारा शरीर तथा प्राण मित्र की आज्ञा पर निछावर हो जाये तो बड़े सौभाग्य की बात है। तुझसे कोई शिकायत नहीं, क्योंकि तुझे इसका पता नहीं था।’’<br /> संयोग से एक मनुष्य भेंट करने के अभिप्राय से उनकी झोंपड़ी में घुस आया। देखा कि साधु दोनों हाथों से अपनी झोली सी रहे हैं। <br /> साधु ने कहा, ‘‘अरे भले आदमी! तू बिना सूचना दिये मेरी झोंपड़ी में कैसे आ गया।’’<br /> उसने निवेदन किया कि प्रेम और दर्शनों की उत्कंठा के कारण यह अपराध हो गया। <br /> साधु ने कहा, ‘‘अच्छा, तू चला आ। लेकिन खबरदार, मेरे जीवन-काल में यह भेद किसीसे मत कहना!’’<br /> झोंपड़ी की बाहर मनुष्यों का एक समूह झांक रहा था। वह यह हाल जान गया। साधु ने कहा, ‘‘ऐ परमात्मा! तेरी माया तू ही जाने। मैं इस चमत्कार को छिपाता हूं और तू प्रकट करता है। <br /> साधु ने आकाश-वाणी सुनी कि अभी थोड़ी ही दिन में लोग तुझपर अविश्वास करने लगते, और तुझे कपटी और प्रपंची बताने लगते। कहते कि इसीलिए ईश्वर ने इसकी यह दशा की है। वे लोग काफिर न हो जायें और अविश्वास और भ्रम में ग्रस्त न हो जायें, जन्म के अविश्वासी ईश्वर से विमुख न हो जायें, इसलिए हमने तेरा यह चमत्कार प्रकट कर दिया है कि आवश्यकता के समय हम तुझे हाथ प्रदान कर देते हैं। मैं तो इन करामातों से पहले भी तुझे अपनी सत्ता का अनुभव करा चुका हूं। ये चमत्कार प्रकट करने की शक्ति जो तुझको प्रदान कीह गयी है, वह अन्य लोगों में विश्चास पैदा करने के लिए है। इसीलिए इसे उजागर किया गया है।¬1Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4712836137246646595.post-77954323819940142022009-06-26T02:48:00.001-07:002009-06-26T02:48:56.179-07:00४/ चौपायों की बोलीएक युवक ने हजरत मूसा से चौपायों की भाषा सीखने की इच्छा प्रकट की, ताकि जंगली पशुओं की वाणी से ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त करे, क्योंकि मनुष्य की सारी वाक्शक्ति तो छल-कपट में लगी रहती है। सम्भव है, पशु अपने पेट भरने का कोई ओंर उपाय करते हों। <br /> मूसा ने कहां, ‘‘इस विचार को छोड़ दे, क्योंकि इसमें तरह-तहर के खतरे हैं। पुस्तकों और वाणियों द्वारा ज्ञान प्राप्त करने के बजाय ईश्वर से ही प्रार्थना कर कि वह तेरे ज्ञान-चक्षु खोल दे।’’ परन्तु जितना हजरत मूसा ने उससे माना किया, उतनी ही उसकी इच्छा प्रबल होती गयी। इस आदमी ने निवेदन किया, ‘‘जबसे आपको दिव्य ज्योति प्राप्त हुई है, किसी वस्तु का भेद बिना प्रकट हुए नहीं रहा है। किसी को निराश करना आपके दयालु स्वाभाव के विपरीत है। आप ईश्चर के प्रतिनिधि हैं। यदि मुझे इस विद्या के प्राप्त करने से रोकते हैं तो मुझे बड़ा दु:ख होगा।’’<br /> हजरत मूसा ने ईश्वर से प्रार्थना की, ‘‘ऐ प्रभु! मालू होता है कि यह बुद्धिमान मनुष्य शैतान के हाथ में खेल रहा है। यदि मैं इसे पशुओ की बोली सिखा दूं तो इसका अनिष्ट होता है और यदि न सिखऊं तो इसके हृदय को ठेस पहुंचती है।’’ ईश्चर की आज्ञा हुई, ‘‘ऐ मूसा! तुम इसे जरुर सिखाओ, क्योंकि हमने कभी किसी की प्रार्थना नहीं टाली।’’<br /> हजरत मूसा ने बड़ी नरमी से उसे समझाया, ‘‘तेरी इच्छा पूरी हो जायेगी, परन्तु अच्छा यह है कि तू ईश्वर से डर और इस विचार को छोड़ दे, क्योंकि शैतान की प्रेरणा से तुझे यह ख्याल पैदा हुआ है। व्यर्थ की विपत्ति मोल न ले, क्योंकि पशुओं की बोली समझने से तुझपर बड़ी आफत आयेगी।’’<br /> आदमी निवेदन किया, ‘‘अच्छा, सारे जानवरों की बोली न सही कुत्ते की, जो मेरे दरवाज़े पर रहता है और मुर्ग की, जो घर में पला हुआ है, बोलियां जान लूं तो यही काफी है।’’<br /><br /><br />हजरत मूसा बोला, ‘‘अच्छा, ले आज से इन दोनों की बोली समझने का ज्ञान तुझे प्राप्त हो गया।’’ <br /> अगले दिन प्रात:काल वह परीक्षा के लिए दरवाजे पर खड़ा हो गया। दासी ने भोजन लाकर सामने रखा। एक बासी रोटी का टुकड़ा, जो बच रहा था, नीचे गिर पड़ा। मुर्गा तो ताक में लगा हुआ था ही, तुरन्त उड़ा ले गया। कुत्ते ने शिकायत की, ‘‘तू कच्चे गेहूं भी चुग सकता है। मैं दाना नहीं चुग सकता। ऐ दोस्त! यह जरा-सा रोटी का टुकड़ा, जो वास्तव में हमारा हिस्सा है, वह भी तू उड़ा लेता है!’’<br /> मुर्गे ने यह सुनकर कहा, ‘‘जरा सब्र कर और इसका अफसोस मत कर। ईश्वर तुझको इससे बढ़िया भोजन देगा। कल हमारे मालिक का घोड़ा मर जायेगा। खूब पेट भरकर खाना। घोड़ा की मौत कुत्तों का त्यौहार है और बिना परिश्रम और मेहनत के खूब भोजन मिलता है।’’<br /> मालिक अब मुर्गें की बोली समझने लगा था। उसने यह सुनते ही घोड़ा बेच डाला और दूसरे दिन जब भोजन आया तो मुर्गा फिर रोटी का टुकड़ा ले गया। कुत्ते ने फिर शिकायत की, ‘‘ऐ बातूनी मुर्गे तू बड़ा झूठा है। और ज़ालिम तूने तो कहा था कि घोड़ा मर जायेगा। वह कहां मरा? तू अभागा है झूठ है।’’<br /> मुर्गे ने जवाब दिया, ‘‘वह घोड़ा दूसरी जगह मर गया। मालिक घोड़ा बेचकर हानि उठाने से बच गया और अपना नुकसान दूसरों पर डाल दिया, लेकिन कल इसका ऊंट मर जायेगा। तो कुत्तों के पौबारह हैं।’’<br /> यह सुनकर तुरन्त मालिक ने ऊंट को भी बेच दिया और उसकी मृत्यु के शोक और हानि से छुटकारा पा लिया। तीसरे दिन कुत्ते ने मुर्गें से कहा, ‘‘अरे झूठों के बादशाह! तू कबतक झूठ बोलता रहेगा? तू बड़ा कपटी है।’’<br /> मुर्गे ने कहा, ‘‘मालिक ने जल्दी से ऊंट को बेच डाला। लेकिन इसका गुलाम मरेगा और इसके सम्बन्धी खैरात की रोटियां फकीरों को बांटेंगे और कुत्तों को भी खूब मिलेंगी।’’<br /> यह सुनते ही मालिक ने गुलाम को भी बेच दिया और नुकसान से बचकर बहुत खुश हुआ। <br /> वह खुशी से फूला नहीं समाता था और बार-बार ईश्वर को धन्यवाद देता था <br /><br />कि मैं लगातार तीन विपत्तियों से बच गया। जबसे मैं मुर्गां और कुत्तों की बोलियां समझने लगा हूं तबसे मैंने यमराज की आंखों में धूल झौंक दी है। चौथे दिन निराश कुत्ते ने कहा, ‘‘अरे, झेठे बकवादी मुर्गे तेरी भविष्यवाणियों का <br /> क्या हुआ? यह तेरा कपट-जाल कब तक चलेगा? तेरी सूरत से ही झूठ टपकता है!’’<br /> ‘‘मुर्गे ने कहा, ‘‘तोबा! मेरी जाति कभी झूठ नहीं बोलती। भला यह कैसे सम्भव हो सकता है? असली बात यह है कि वह गुलाम खरीदार के पास जाकर मर गया और खरीदार को नुकसान हुआ। मालिक ने खरीदार को तो हानि पहुंचायी, लेकिन खूब समझ ले कि अब खुद उसकी जान पर आ बनी है। कल मालिक ही खुद मर जायेगा। तब इसके उत्तराधिकारी गाय की कुरबानी करेंगी। मांस और रोटियां फकीरो और कुत्तों को बांटी जायेगी। फिर खूब मौज से माल उड़ाना। घोड़े, ऊंट और गुलाम की मौत इस मूर्ख के प्राणों का बदला था। माल के नुकसान और रंज से तो बच गया। लेकिन अपनी जान गंवायी’’<br /> मालिक मुर्गे की भविष्यवाणी को कान लगाकर सुन रहा था। दौड़ा-दौड़ा हजरत मूसा के दरवाजे पर पहुंचा और माथा टेककर फरियाद करने लगा, ‘‘ऐ खुदा के नायब, मुझ पर दया करो।’’<br /> हजरत मूसा ने कहा, ‘‘जा, अब अपने को भी बेचकर नुकासन से बच जा। तू तो इस काम में खूब चालाक हो गया है। अब की बार भी अपनी हानि दूसरी लोगों के सिर डाल दे और अपनी थैलियों को दौलत से भर ले। भवितव्यता तुझे इस समय शीशे में दिखाई दे रही है, मैं उसको पहले ही ईंट में देख चुका था।’’<br /> उसने रोना-धोना शुरु किया और कहा, ‘‘ऐ दयामूर्ति! मुझे निराश न कीजिए। मुझसे अनुचित व्यवहार हुआ है। परन्तु आप क्षमा करें।’’<br /> हजरत मूसा बोले, ‘‘अब तो कमान से तीर निकल चुका है, लौट आना सम्भ्व नहीं है। अलबत्ता मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि मरते समय तू ईमान सहित मरे। जो ईमानदार रहकर मरता है वह जिन्दा रहता है और जो ईमान साथ ले जाये, वह अमर हो जाता है।’’<br /> उसी समय उसका जी मितलाने लगा। दिल उल-पुलट होने लगा। थोड़ी देर में वमन हुईं वह कै मौत की थी। उसे चार आदमी उठाकर ले गये। परन्तु उस समय उसे होश नहीं था। हजरत मूसा ने ईश्वर से प्रार्थना की, ‘‘हे प्रभु, इसे ईमान से वंचित न कर। यह गुस्ताखी इसने भूल में की थी। मैंने इसे बहुत समझाया कि वह विद्या तेरे योग्य नहीं। लेकिन वह मेरी नसीहत को टालने की बात समझा।’’<br /> ईश्वर ने उस आदमी पर दया की और हजरत मूसा की दुआ कबूल हुई।1Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4712836137246646595.post-12029089143785682852009-06-26T02:47:00.002-07:002009-06-26T02:48:28.582-07:00३/ लाहौल वला कूवतएक सूफी यात्रा करते हुए रात हो जाने पर किसी मठ में ठहरा। अपना खच्चर तो उसने अस्तबल में बांध दिया और आप मठ के भीतर एक मुख्य स्थान पर जा बैठा। मठ के लोग मेहमान के लिए भोजन लाये तो सूफी को अपने खच्चर की याद आयी। उसने मठ के नौकरो को अज्ञा दी अस्तबल में जा और खच्चर को घास और जौ खिला।<br /> नौकर ने निवेदन किया, ‘‘आपके फरमाने की जरुरत नहीं। मैं हमेशा यही काम किया करता हूं।’’<br /> सूफी बोला, ‘‘जौ पानी में भिगो कर देना, क्योंकि खच्चर बूढ़ा हो गया है और उसके दांत कमजोर हैं।’’<br /> ‘‘हरजत, आप मुझे सिखाते हैं लोग तो ऐसी-ऐसी युक्तियां मुझसे सीख कर जाते हैं।’’<br /> ‘‘पहले इसका तैरु उतारना। फिर इसकी पीठ के घाव पर मरहम लगा देना।’’<br /> ‘‘खुदा के लिए अपनी तदबीर किसी और मौके के लिए न रख लीजिए। मैं ऐसे सब काम जानता हूं। सारे मेहमान हमसे खुश होकर जाते है; क्योंकि हम अपने अतिथियों जान के बराबर प्यार समझते हैं।’’<br /> ‘‘और देख, इसको पानी भी पिलाना; परन्तु थोड़ा गर्म करके देना।’’<br /> ‘‘आपकी इन छोटी-छोटी बातों के समझाने से मुझे शर्म आती है।’’<br /> ‘‘जौ में जरा-सी घास भी मिला देना।’’<br /> ‘‘आप धीरज से बैठे रहिए। सबकुछ हो जायेगा।’’<br /> ‘‘उस जगह का कूड़ा-करकट साफ कर देना और अगर वहां सील हो तो सूखी घास बिछा देना।’’<br /> ‘‘ऐ बुजुर्गवार! एक योग्य सेवक से ऐसी बातें करने से क्या लाभ?’’<br /> ‘‘मियां, जरा खुरेरा भी फिर देना, और ठंड का मौसम है खच्चर की पीठ पर झूल भी डाल देना।’’<br /> <br />‘‘हजरत, आप चिन्ता न कीजिए। मेरा काम दूध की तरह स्वच्छ और बेलग होता है। मैं आपने काम में आपसे ज्यादा होशियार हो गया हूं। भले-बुरे मेहमानों से वास्ता पड़ा है। जिसे जैसा देखता हूं, वैसी ही उसकी सेवा करता हूं।’’<br />नौकर ने इतना कहकर कम कसी और चला गया। खच्चर का इन्तजाम तो उसे क्या करना था। अपने गुझ्टे मित्रों में बैठकर सूफि की हंसी उड़ाने लगा। सूफी रास्ते का हारा-थका ही, लेट गया और अर्द्धनिद्रा की अवस्था में सपना देखने लगा। <br /> उसने सपने में देखा, उसके खच्चर को एक भेड़िये ने मार दिया है और उसकी पीठ और जांघ के मांस के लोथड़े को नोच-नोचकर खा रहा है। उसकी आंख खुल गयी। मन-ही-मन कहने लगा—यह कैसा पागलपन का सपना है। भला वह दयालू सेवक खच्चर को छोड़कर कहां जा सकता है! फिर सपने में देखा कि वह खच्चर रास्ते में चलते समय कभी कुंए में गिर पड़ता है, कभी गड्ढे में। ऐसी भयानक दुर्घटना सपने में वह बार-बार चौंक पड़ता और आंख खूलने पर कुरानशरीफ की आयतें पढ़ लेता। <br /> अन्त में व्याकुल हो कर कहने लगा, ‘‘अब हो ही क्या सकता है। मठ के सब लोग पड़े सोते हैं और नौकर दरवाजे बन्द करके चले गये।’’<br /> सूफी तो गफलत में पड़ा हुआ था और खच्चर पर वह मुसीबत आयी कि ईश्वर दुश्मन पर भी न डाले। उस बेचारे को तैरु वहां की धूल और पत्थरों में घिसटकर टेढ़ा हो गया और बागडोर टूट गयी। बेचारा दिन भर का हारा-थका, भूखा-प्यास मरणासन्न अवस्था में पड़ रहा। बार-बार अपने मन में कहता रहा कि ऐ धर्म-नेताओं! दया करो। मैं ऐसे कच्चे और विचारहीन सूफियों से बाज आया। <br /> इस प्रकार इस खच्चर ने रात-भर जो कष्ट और जो यातनाएं झेलीं, वे ऐसी थीं, जैसे धरती के पक्षी को पानी में गिरने से झेलनी पड़ती हैं। वह एक ही करवट सुबह तक भूखा पड़ा रहा। घास और जौ की बाट में हिनहिनाते-हिनहिनाते सबेरा हो गया। जब अच्छी तरह उजाला हो गया, तो नौकर आया और तुरन्त तैरु को ठीक करके पीठ पर रखा और निर्दयी ने गधे बेचनेवालों की तरह दो-तीन आर लगायीं। खच्चर कील के चुभ से तरारे भरने लगा। उस गरीब के जीभ कहां थी, जो अपना हाल सुनाता। <br />लेकिन जब सूफी सवार होकर आगे बढ़ा तो खच्चर निर्बलता के कारण गिरने लगा। जहां। जहां कहीं गिरता था, लोगा उसे उठा देते थे और समझते थे कि खच्चर बीमार है। कोई खच्चर के कान मरोड़ता, कोई मुंह खोलकर देखता, कोई यह जांच करता कि खुर और नाल के बीच में कंकर तो नहीं आ गया है और लोग कहते कि ऐ शेख तुम्हारा खच्चर बार-बार गिर पड़ता है, इसका क्या कारण है? <br /><br />शेख जवाब देता खुदा का शुक्र है <br /> <br /> <br />खच्चर तो मजबूत है। मगर वह खच्चर जिसने रात भर लाहौल खाई हो (अर्थात् चारा न मिलने के कारण रातभर ‘दूर ही शैतान’ की रट लगाता रहा), सिवा इस ढंग के रास्ता तय नहीं कर सकता और उसकी यह हरकत मुनासिब मालूम होती है, क्योंकि जब उसका चारा लाहौल था तो रात-भर इसने तसबीह (माला) फेरी अब दिन-भर सिज्दे करेगा (अर्थात् गिर-गिर पड़ेगा)<br /><br />[जब किसी को तुम्हारे काम से हमदर्दी नहीं है तो अपना काम स्वयं ही करना चाहिए। बहुत से लोग मनष्य-भक्षक हैं। तुम उनके अभिवादन करने से (अर्थात् उनकी नम्रता के भम्र में पड़कर) लाभ की <br />आशा न रक्खो। जो मनुष्य शैतान के धोखे में फंसकर लाहौल खाता है, वह खच्चर की तरह मार्ग में सिर के बल गिरता है। किसी के धोखे में नहीं आना चाहिए। कुपात्रों की सेवा ऐसी होती है, जैसी इस सेवक ने की। ऐसे अनधिकारी लोगों के धोखे में आने से बिना नौकर के रहना ही अच्छा है।]1Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4712836137246646595.post-31189041693647445792009-06-26T02:47:00.001-07:002009-06-26T02:47:44.359-07:00२/ अंधा, बहरा और नंगाकिसी बड़े शहर में तीन आदमी ऐसे थे, जो अनुभवहीन होने पर भी अनुभवी थे। एक तो उसमें दूर की चीज देख सकता था, पर आंखों से अंधा था। हजरत सुलेमान के दर्शन करने में तो इसकी आंखें असमर्थ थीं, परन्तु चींटी के पांव देख लेता था। दूसरा बहुत तेज़ सुननेवाला, परन्तु बिल्कुल बहरा था। तीसरा ऐसा नंगा, जैसे चलता-फिरता मुर्दा। लेकिन इसके कपड़ों के पल्ले बहुत लम्बे-लम्बे थे। अन्धे ने कहा, ‘‘देखो, एक दल आ रहा है। मैं देख रहा हूं कि वह किस जाति के लोगों का है और इसमें कितने आदमी हैं।’’ बहरे ने कहा, ‘‘मैंने भी इनकी बातों की आवाज सुनी।’’ नंगे ने कहा, ‘‘भाई, मुझे यह डर लग रहा है कि कहीं ये मेरे लम्बे-लम्बे कपड़े न कतर लें।’’ अन्धे ने कहा, ‘‘देखो, वे लोग पास आ गये हैं। अरे! जल्दी उठो। मार-पीट या पकड़-धकड़ से पहले ही निकल भागें।’’ बहरे ने कहा, हां, इनके पैरों की आवाज निकट होती जाती है।’’ तीसरा बोला, ‘‘दोस्तो होशियार हो जाओ और भागो। कहीं ऐसा न हो वे मेरा पल्ला कतर लें। मैं तो बिल्कुल खतरे में हूं!’’<br /> मललब यह कि तीनों शहर से भागकर बाहर निकले और दौड़कर एक गांव में पहुंचे। इस गांव में उन्हें एक मोटा-ताज़ा मुर्गा मिला। लेकिन वह बिल्कुल हड्डियों की माला बना हुआ था। जरा-सा भी मांस उसमें नहीं था। अन्धे ने उसे देखा, बहरे ने उसकी आवाज सुनी और नंगे ने पकड़कर उसे पल्ले में ले लिया। वह मुर्गा मरकर सूख गया था और कौव ने उसमें चोंच मारी थी। इन तीनों ने एक देगची मंगवायी, जिसमें न मुंह था, न पेंदा। उसे चूल्हे पर चढ़ा दिया। इन तीनों ने वह मोटा ताजा मुर्गा देगची में डाला और पकाना शुरु किया और इतनी आंच दी कि सारी हड्डियां गलकर हलवा हो गयीं। फिर जिस तरह शेर अपना शिकार खाता है उसी तरह उन तीनों ने अपना मुर्गा खाया। तीनों ने हाथी की तरह तृप्त होकर खाया और फिर तीनों उस मुर्गें को खाकर बड़े डील-डौलवाले हाथी की तरह मोटे हो गये। इनका मुटापा इतना बढ़ा कि संसार में न समाते थे, परन्तु इस मोटेपन के बावजूद दरवाज़े के सूराख में से निकल जाते थे। <br /> <br /> [इसी तरह संसार के मनुष्यों को तृष्णा को रोग हो गया है कि वे दुनिया की प्रत्येक वस्तु को,भले ही वह कितनी ही गन्दी हो, पर प्रत्यक्ष रुप में सुन्दर हो, <br /><br />अपने पेट में उतारने की इच्छा रखते हैं। लेकिन दूसरी तरफ यह हाल है कि बिन मृत्यु के मार्ग पर चले इन्हें चारा नहीं और वह अजीब रास्ता है, जो इन्हें दिखाई नहीं देती। प्राणियों के दल-के-दल इसी सूराब से निकल जाते हैं और वह सूराख नजर नहीं आता। जीवों का यह समूह इसी द्वार के छिद्र में घुस जाता है और छिद्र तो क्या, दरवाजा तक भी दिखाई नहीं देता और इस कथा में बहरे का उदाहरण यह है कि अन्य प्राणियों की मृत्यु का समाचार तो वह सुनता है, परन्तु अपनी मौत से बेखबर है।<br /> तृष्णा का उदाहरण उस अन्धे से दिया गया है, जो अन्य मनुष्यों के थोड़े-थोड़े दोष तो देखता है, लेकिन अपने दोष उसे नजर नहीं आते। नंगे की मिसाल यह है कि वह स्वयं नंगा ही आया है और नंगा ही जाता है। वास्तव में उसका अपना कुछ नहीं हैं। परन्तु सारी उम्र मिथ्या भ्रम में पड़कर समाज की चोरी के भय से डरता रहता है। मृत्यु के समय तो ऐसा मनुष्य और भी ज्यादा तड़पता है। परन्तु उसकी आत्मा खूब <br /> हंसती है कि जीवनकाल में यह सदैव का नंगा मनुष्य कौनसी वस्तु के चुराये जाने के भय से डरता था। इसी समय धनी मनुष्य को तो यह मालूम होता है कि वास्तव में वह बिल्कुल निर्धन था। लोभी को यह पता चलता है कि सारा जीवन अज्ञानता में नष्ट हो गया।<br /> इसलिए ए मनुष्य, तू अपने जीवन में इस बात को अच्छी तरह समझ जा कि परलोक में तेरा क्या परिणाम होगा और विद्याओं के जानने से अधिक तेरे लिए यह अच्छा है कि तू अपने स्वरुप को जाने]1Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4712836137246646595.post-67986520264042687082009-06-26T02:46:00.000-07:002009-06-26T02:47:04.257-07:00चोर बादशाहबादशाह का नियम था कि रात को भेष बदलकर गज़नी की गलियों में घूमा करता था। एक रात उसे कुछ आदमी छिपछिप कर चलते दिखई दिये। वह भी उनकी तरफ बढ़ा। चोरों ने उसे देखा तो वे ठहर गये और उससे पूछने लगे, ‘‘भाई, तुम कौन हो? और रात के समय किसलिए घूम रहे हो?’’ बादशाह ने कहा, ‘‘मैं भी तुम्हारा भाई हूं और आजीविका की तलशा में निकला हूं।’’ चोर बड़े प्रसन्न हुए और कहने लगे, ‘‘तूने बड़ा अच्छा किया, जो हमारे साथ आ मिला। जितने आदमी हों, उतनी ही अधिक सफलता मिलती है। चलो, किसी साहूकार के घर चोरी करें।’’ जब वे लोग चलने लगे तो उनमें से एक ने कहा, ‘‘पहले यह निश्चय होना चाहिए कि कौन आदमी किस काम को अच्छी तरह कर सकता है, जिससे हम एक-दूसरे के गुणों को जान जायं जो ज्यादा हुनरामन्द हो उसे नेता बनायें।’’ <br /> यह सुनकर हरएक ने आनी-अपनी खूबियां बतलायीं। एक बोला, ‘‘मैं कुत्तो की बोली पहचानता हूं। वे जो कुछ कहें, उसे मैं अच्छी तरह समझ लेता हूं। हमारे काम में कुत्तों से बड़ी अड़चन पड़ती है। हम यदि बोली जान लें तो हमारा ख़तरा कम हो सकता है और मैं इस काम को बड़ी अच्छी तरह कर सकता हूं।’’<br /> दूसरा कहने लगा, ‘‘मेरी आंखों में ऐसी शक्ति है कि जिसे अंधेरे में देख लूं, उसे फिर कभी नहीं भूल सकता। और दिन के देखे को अंधेरी रात में पहचन सकता हूं। बहुत से लोग हमें पचानकर पकड़वा दिया हैं। मैं ऐसे लोगों को तुरन्त भांप लेता हूं और अपने साथियों को सावधान कर देता हूं। इस तरह हमारी रक्षा हो जाती है।’’<br /> तीसरी बोला, ‘‘मुझमें ऐसी शक्ति है कि मज़बूत दीवार में सेंध लगा सकता हूं और यह काम मैं ऐसी फूर्ती और सफाई से करता हूं कि सोनेवालों की आंखें नहीं खुल <br /><br />सकतीं और घण्टों का काम मिनटों में हो जाता है।’’ <br />चौथा बोला, ‘‘मेरी सूंघने की शक्ति ऐसी विचित्र है कि ज़मीन में गड़े हुए धन को वहां की मिट्टी सूघकर ही बता सकता हूं। मैंने इस काम में इतनी योग्यता प्राप्त की है कि शत्रु भी सराहना करते हैं। लोग प्राय: धन को धरती में ही गाड़कर रखते हैं। इस वक्त यह हुनर बड़ा काम देता है। मैं इस विद्या का पूरा पंडित हूं। मेरे लिए यह काम बड़ा सरल हैं।’’<br /> पांचवे ने कहा, ‘‘मेरे हाथों में ऐशी शक्ति है कि ऊंचे-ऊंचे महलों पर बिना सीढ़ी के चढ़ सकता हूं और ऊपर पहुंचकर अपने साथियों को भी चढ़ा सकता हूं। तुममें तो कोई ऐसा नहीं होगा, जो यह काम कर सके।’’<br /> इस तरह जब सब लोग अपने-अपने गुण बता चुके तो नये चोर से बोले, ‘‘तुम भी अपना कमाल बताओ, जिससे हमें अन्दाज हो कि तुम हमारे काम में कितनी सहायता कर सकते है।’’ बादशाह ने जब यह सुना तो खुश हो कर कहने लगा, ‘‘मुझमें ऐसा गुण है, जो तुममें से किसी में भी नहीं है। और वह गुण यह है कि मैं अपराधों को क्षमा करा सकता हूं। अगर हम लोग चोरी करते पकड़े जायें तो अवश्य सजा पायेंगे। परन्तु मेरी दाढ़ी में यह खूबी है कि उसके हिलते ही अपराध क्षमा हो जाते हैं। तुम चोरी करके भी साफ बच सकते हो। देखो, कितनी बड़ी ताकत है मेरी दाढ़ी में!’’<br /> बादशाह की यह बात सुनकर सबने एक स्वर में कहा, ‘‘भाई तू ही हमारा नेता है। हम सब तेरी ही अधीनता में काम करेंगे, ताकि अगर कहीं पकड़े जायें तो बख्शे जा सकें। हमारा बड़ा सौभाग्य है कि तुझ-जैसा शक्तिशाली साथी हमें मिला।’’<br /> इस तरह सलाह करके ये लोग वहां से चले। जब बादशाह के महल के पास पहुंचे तो कुत्ता भूंका। चोर ने कुत्ते की बोली पहचानकर साथियों से कहा कि यह कह रहा है कि बादशाह हैं। इसलिए सावधान होकर चलना चाहिए। मगर उसकी बात किसीने नहीं मानी। जब नेता आगे बढ़ता चला गया तो दूसरों ने भी उसके संकेत की कोई परवा नहीं की। बादशाह के महल के नीचे पहुंचकर सब रुक गये और वहीं चोरी करने का इरादा किया। दूसरा चोर उछलकर महल पर चढ़ गया। और फिर उसने बाकी चोरों को भी खींच लिया। महल के भीतर घुसकर सेंध लगायी और खूब लूट हुई। जिसके जो हाथ लगा, समेटता गया। जब लूट चुके तो चलने की तैयारी हुई। जल्दी-जल्दी नीचे उतरे और अपना-अपना रास्ता लिया। बादशाह ने सबका नाम-धाम पूछ लिया था। चोर माल-असबाब लेकर चंपत हो गये। <br /> <br />बादशाह ने मन्त्री को आज्ञा दी कि तुम अमुक स्थान में तुरन्त सिपाही भेजो और फलां-फलां लोगों को गिरफ्तार करके मेरे सामने हाजिर करो। मन्त्री ने फौरन सिपाही भेज दिये। चोर पकड़े गये और बादशाह के सामने पेश किये गए। जब इन लोगों ने बादशाह को देखा तो दूसरे चोर ने कहा है कि ‘‘बड़ा गजब हो गया! रात चोरी में बादशाह हमारे साथ था<br />और यह वही नया चोर था, जिसने कहा था कि ‘‘मेरी दाढ़ी में वह शक्ति है कि उसके हिलते ही अपराध क्षमा हो जाते हैं।’’ <br />सब लोग साहस करके आगे बढ़े और बादशाह का अभिवादन किया। बादशाह ने पूछा, ‘‘तुमने चोरी की है?’’ सबने एक स्वर में जवाब दिया, ‘‘हां, हूजर ! यह अपराध हमसे ही हुआ है।’’<br /> बादशाह ने पूछा, ‘‘तुम लोग कितने थे?’’<br /> चोरों ने कहा, ‘‘हम कुल छ: थे।’’<br /> बादशाह ने पूछा, ‘‘छठा कहां है?’’<br /> चोरों ने कहां, ‘‘अन्नदाता, गुस्ताखी माफ हो। छठे आप ही थे।’’<br /> चारों की यह बात सुनकर सब दरबारी अचंभे में रह गये। इतने में बादशाह ने चोरों से फिर पूछा, ‘‘अच्छा, अब तुम क्या चाहते हो?’’<br /> चोरों ने कहा, ‘‘अन्नदाता, हममें से हरएक ने अपना-अपना काम कर दिखाया। अब छठे की बारी है। अब आप अपना हुनर दिखायें, जिससे हम अपराधियों की जान बचे।’’ <br /> यह सुनकर बादशाह मुस्कराया और बोला, ‘‘अच्छा! तुमको माफ किया जाता है। आगे से ऐसा काम मत करना।’’<br /> <br /> [संसार का बादशाह परमेश्वर तुम्हारे आचराणों को देखने के लिए सदैवा तुम्हारे साथ रहता है। उसके साथ समझकर तुम्हें हमेशा उससे डरते रहना चाहिए और बुरे कामों की ओर कभी ध्यान नहीं देना चाहिए।]1Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4712836137246646595.post-71446198845721062992009-06-25T06:52:00.001-07:002009-06-25T06:52:47.708-07:00चंदाभाई की चांदनीएक थे राम सिंह भाई और दूसरे थे चन्दाभाई। दोनों जागीरदार। रामसिंह भाई गावं मुखिया, और पाच-सात गांवों के मालिक। चन्दाभाई के पास सिर्फ दो हल की ज़मीन। रामसिंह भाई का अपना राज-दरबार था। जो भी आता, चौपाल पर बैठता। हुक्का-पानी पीता। खाना खाता और घर जाता। <br /> चन्दाभाई के घर मे तो कुछ भी नही था। घर के दरवाजें आया हुआ भूखा ही लौट जाता। लेकिन चन्दाभाई ज़बान के बहुत तेज-तर्रार थें। एक बढिया घोड़ी रखते थे। सफेद कपड़े पहनते थे, और गावं मे बैठकर गप्पे हांका करते थे। जहां भी पहुच जाते, मेहमान के ठाठ से रहते और मौज करते।<br />चन्दाभाई ने रामसिंह भाई के साथ दोस्ती कर ली। रामसिंह भाई को कमी किस बात की थी? चन्दाभाई रामसिंह भाई के घर साल मे दो-तीन महीने रहते। खाते-पीते और चैन की बंसी बजाते। लौटते समय बहुत आग्रह करके कहते, रामसिंह भाई! अब तो एक बार आप मेरे घर जरूर ही पधारिए!"<br /> संयोग से एक बार रामसिंह भाई को कहीं रिश्तेदारी मे जाना हुआ। रास्तें मे चन्दाभाई का गांव पड़ा। रामसिंह भाई ने सोचा—चन्दाभाई बार-बार आग्रह करके कहे रहते है, पर हम कभी इनके घर जाते नहीं। चलूं, क्यों न इस बार मै इनका गढ़ भी देख लूं?"<br /> रामसिंह भाई ने ओर उनके भतीजों ने अपनी घोडियां चन्दाभाई के गावं की ओर मोड़ दी। किसी ने चन्दाभाई को खबद दी। वह परेशान हो गये। सोचने लगे—रामसिंह भाई के घर तो मै खूब खाता-पीता रहा हूं लेकिन मै उनको खिलाऊंगा क्या? घर मे तो चूहे डण्ड पेल रहे थे।<br /> इतने मे रामसिंह भाई की घोड़ी हिनहिनाई और रामसिंह भाई ने आवाज लगाई, "चन्दाभाई कहां है?" बेचारे चन्दाभाई क्या मुंह दिखाते? वे तो ठुकरानी की साड़ी ओढ़कर सो गए। ठाकुर रामसिंह गढ़ के अन्दर आ पहुचे। पूछा, "क्या ठाकुर चन्दाभाई घर मे है?"<br /> एक बहन ने बाहर निकलकर कहा, "दरबार तो जूनागढ़ की जागीर के काम से की गए है। कल-परसों तक लोटेगें।"<br /> रामसिंह भाई के मन मे शक पैदा हुआ। सोचा बात कुछ गलत लगती है। कल ही तो खबर मिली थी। कि चन्दाभाई गांव मे ही है।<br /> ठाकुर रामसिंह ने कहा, "अच्छी बात है। लेकिन घर के अन्दर ये सोए कौन है? कोई बीमार तो नही है?"<br /> बहन बोली, "ये तो जसोदा भुवा है। सिर दुख रहा है, इसलिए सोई है।"<br /> ठाकुर रामसिंह ने सोचा—जसोदा भुवा के कुशल समाचार तो पूछ ही लें। घर मे पहुचकर उन्होने साड़ी ऊपर उठाई और पूछा, "क्यों भुवा जी! सिर क्यों दुख् रहा है?" तभी देखते क्या है कि भुवाजी की जगह वहां मूंछों वाले चन्दाभाई लेटे पड़े है!<br /> देखकर रामसिंह भाई तो दंग रह गए। खिसिया भी गए। उनके साथ एक चारण था। उससे रहा नही गयां। उसकी जीभ कुलबुलाई वह बोला:<br />चन्दाभाई की चांदनी।<br />और रामजी भाई की रोटी।<br />जसोदा भुआ के मूंछे आई।<br />घड़ी कलजुग की खोटी।•Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4712836137246646595.post-6142368833834702422009-06-25T06:51:00.004-07:002009-06-25T06:52:20.177-07:00अल्लम-तल्लम करता हूंएक था कौआ, और एक थी मैना। दोनो मे दोस्ती हो गई।<br /> मैना भली ओर भोली थी, लेकिन कौआ बहुत चंट था।<br /> मैना ने कौए से कहा, "कौए भैया! आओं, हम खेत जोतने चले। अनाज अच्छा पक जायेगा, तो हमको साल भर तक चुगने नही जाना पड़ेगा, और हम आराम के साथ खाते रहेगे।"<br /> कौआ बोला, "अच्छी बात है। चलो चलें।"<br /> मैना ओर कौआ अपनी-अपनी चोच से खेंत खोदने लगे।<br /> कुछ देर बाद कौए की चोंच टूट गई। कौआ लुहार के घर पहुचा और वहां अपनी चोंच बनवाने लगा। जाते-जाते मैना से कहता गया, "मैना बहन! तुम खेत तैयार करो। मै चोंच बनावाकर अभी आता हूं।"<br /> मैना बोली, "अच्छी बात है।"<br /> फिर मैना ने सारा खेत खोद लिया, पर कौआ नही आया। <br /> कौआ की नीयत खोटी थी। इसलए चोंच बनवा चुकने के बाद भी वह काम से जी चुराकर पेड़ पर बैठा-बैठा लुहार के साथ गपशप करता रहा। मैना कौए की बाट देखते-देखते थक गई। इसलिए वह कोए को बुलाने निकली। जाकर कौए से कहा, "कौए भैया, चलो! खेत सारा खुद चुका है। अब हम खेत मे कुछ बो दें।"<br />कौआ बोला<br /> अल्लम-टल्लम करता हूं।<br /> चोंच अपनी बनवाता हूं।<br /> मैना बहन, तुम जाओं, मै आता हूं।<br />मैन लौट गई ओर उसने बोना शुरू कर दिया। मैना ने बढ़िया बाजरा बोया। कुछ ही दिनो के मे वह खूब बढ़ गया। <br /> इस बीच नींद ने निराने का समय आ पहुचा। इसलिए मैना बहन फिर कौए को बुलाने गई। जाकर कौए से कहा, "कौए भैया! चलो, चलो बाजरा बहुत बढिया उगा हैं। अब जल्दी ह निरा लेना चाहिए, नही तो फसल को नुक़सान पहुंचेगा।"<br /> पेड़ पर बैठे-बेठे ही आलसी कौआ बोला<br /> अल्लम-टल्लम करता हूं। चोंच अपनी बनवाता हूं। <br /> मैना बहन, तुम जाओं, मै आता हूं।<br />मैना वापस आ गई। उसने अकेले ही सारे खेत की निराई कर ली। <br /> कुछ दिनों के बाद फसल काटने का समय आ लगा। इसलिए मैना फिर कौए को बुलाने गई। जाकर कौए से कहा, "कौए भैया! अब तो चलो फसल काटने का समय हो चुका है! देर करके काटेंगें, तो नुकसान होगा।"<br /> कौआ बोला<br />अल्लम-टल्लम करता हूं।<br />चोंच अपनी बनवाता हूं।<br />मैना बहन, तुम जाओं मै आता हूं।<br /> मैना तो निराश होकर वापस आ गई। और गुस्से-ही-गुस्से मेंअकेली खेत की सारी फसल काट ली।<br /> इसके बाद मैना ने बाजरे का के भुटटों मे से दाने निकाले। एक तरफ<br />बाजरे का ढेर लगा दिया और दूसरी तरफ भूसे का बड़ा-सा ढेर बनाकर उसके ऊपर थोड़ा बाजरा फैला दिया। <br /> बाद मे वह कौए को बुलाने गई। जाकर बोली, "कौए भैया! अब तो तुम चलोगें? मैने बाजरे की ढेरियां तैयार कर ली है। तुमको जो ढेरी पसन्द हो, तुम रख लेना।"<br /> कौआ यह सोचकर खुश हो गया कि बिना मेहनत के ही उसको बाजरे का अपना हिस्सा मिलेगा।<br /> कौए ने मैना से कहा, "चलों बहन! मै तैयार हूं। अब मेरी चोंच अच्छी तरह ठीक हो गई है।"<br /> कौआ और मैना दोनो खेत पर पहुंचे। मैना ने कहा, "भैया! जो ढेरी तुमको अच्छी लगे, वह तुम्हारी।"<br /> बड़ी ढेरी लेने के विचार से कौआ भूसे वाले ढेर पर जाकरबैठ गया। लेकिन जैसे ही वह बैठा कि उसके पैर भूसे मे धंसने लगे, और भूसा उसकी आंखों, कानों और मुंह मे भर गया। देखते-देखते कौआ मर गया!<br /> बाद मे मैना सारा बाजरा अपने घर ले गई।•Unknownnoreply@blogger.com0